रहीस सिंह
ब्रिटेन हुए आम चुनाव में ब्रिटिश मतदाताओं ने 14 वर्षों से सत्ता पर काबिज कंजर्वेटिव्स को बेदखल कर कीर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी को बड़ी जीत दिलाई। सेंटर-लेफ्ट लेबर पार्टी को ब्रिटेन में मिली यह जीत अन्य यूरोपीय देशों की राजनीतिक धारा के उलट है। इसलिए सवाल उठता है कि ब्रिटेन सेंटर-लेफ्ट के साथ एक नई सुबह लेकर आया है या नई चुनौतियां? अभी जवाब देना मुश्किल होगा। हां, इतना कहा जा सकता है कि ब्रिटेन अन्य यूरोपीय देशों द्वारा खींची गई लकीरों से कुछ अलग चलने का प्रयास कर रहा है।
ढेर सारे सवाल: ब्रिटेन के मतदाताओं ने कंजर्वेटिव पार्टी को कुछ थके, अनसुलझे और विवादित रहे चेहरों के कारण सत्ता से बाहर किया या बात कुछ और है? यूरोपीय राजनीति में दक्षिणपंथी उभारों और ब्रिटेन में हुए सत्ता परिवर्तन के बीच के विरोधाभासों को किस तरह से देखा जाए? जिस ब्रिटेन के लोग साढ़े चार साल पहले तक लेबर पार्टी के ‘क्वासी नैशनलिस्ट’ और ‘क्वासी लिबरल’ एप्रोच को खारिज कर रहे थे, आज वे 180 डिग्री क्यों घूम गए?
फेल हुए सुनक: चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों ने स्पष्ट कर दिया था कि ऋषि सुनक और उनकी पार्टी बुरी तरह से पराजित होने वाली है। सुनक को ब्रिटेन की जनता ने प्रधानमंत्री नहीं चुना था, वह ‘बाई डिफॉल्ट’ पीएम बने थे। फिर भी उनसे अपेक्षा की जा रही थी कि वह ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास करेंगे और वर्ष 2016 से विरोधाभासों से जूझती हुई कंजर्वेटिव पार्टी की साख को दुरुस्त करेंगे। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं।
चुनौतियों की भरमार: सुनक के नेतृत्व में ब्रिटेन ‘Get Brexit Done’ को ग्लोरिफाई नहीं कर पाया। चुनौतियां अलबत्ता बढ़ती गईं। पिछले सात दशकों के इतिहास में ब्रिटेन में टैक्स की दरें सबसे ज्यादा हो गईं। सरकार के पास लोगों पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं, जिसका परिणाम बढ़ते हुए टैक्स के रूप में दिख रहा है। यूक्रेन युद्ध के दौर में जो नीतियां अपनाई गईं, उसके कारण ब्रिटेन में गैस और तेल की कीमतें काफी बढ़ीं। इसका असर आम उपभोक्ता वस्तुओं पर भी पड़ा।
इकॉनमी क्रैश: सरकार ने एनर्जी संकट से निपटने के लिए उधार लेकर 400 बिलियन पाउंड खर्च कर दिए। बढ़ती महंगाई से निपटने को ब्रिटेन के सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरें बढ़ा दीं। इससे एक तरफ इकॉनमी क्रैश हुई, दूसरी तरह जनता महंगाई और असुरक्षा के दौर से गुजरी। ऐसे में उसे प्रतिक्रियावादी तो होना ही था। एक बात और, नवंबर 2018 में ब्रिटेन की राजनीति में एक नई पार्टी का प्रवेश हुआ, ‘रिफॉर्म यूके’। इसकी और कंजर्वेटिव पार्टी की नीतियां लगभग एक ही जैसी हैं। इसकी बढ़त का सीधा असर कंजर्वेटिव पार्टी पर पड़ा।
वादों का बोझ: कीर स्टार्मर पार्टी को एक नए युग में ले जाने के वादे के साथ आगे बढ़े। स्वास्थ्य व्यवस्था, स्टूडेंट्स और टैक्नोक्रेट्स के लिए वेलकम पॉलिसी, रोजगार बढ़ाने के लिए नई इंडस्ट्रियल पॉलिसी, टैक्स क्रिएशन के बजाय वेल्थ क्रिएशन पर फोकस के साथ-साथ यूरोप से रिश्ते सुधारने की उनकी घोषणा ने वहां की जनता पर अच्छा प्रभाव डाला है, लेकिन क्या इससे अपेक्षित परिणाम मिलेंगे? क्या आप्रवासन आने वाले समय में एक नई चुनौती पैदा नहीं करेगा?
शरणार्थियों का मुद्दा: ब्रेग्जिट का मुख्य कारण था इमिग्रेशन। ब्रिटेन ही नहीं, पूरे यूरोप में इमिग्रेशन का मुद्दा दक्षिणपंथ को बढ़ावा दे रहा है। ऑस्ट्रिया में हंगरी से आने वाली उन ट्रेनों को रोक दिया गया था, जिनमें शरणार्थी आते थे। यही काम डेनमार्क और स्वीडन ने भी किया था। क्या इस तरह का प्रतिरोध सिर्फ इसलिए है कि एक बड़ी आबादी का आव्रजन आर्थिक दबाव और रोजगार की समस्या लेकर आएगा? या यह भय भी काम कर रहा है कि इस विशाल आव्रजन के साथ यूरोप में इस्लामवाद और आतंकवाद का भी आव्रजन हो रहा था?
दक्षिणपंथ मजबूत क्यों: आज जब यूरोप दक्षिणपंथ की तरफ बढ़ रहा है, तब सोचने की जरूरत है कि क्या यूरोपीय समाज में ऐसी विशेषताएं मौजूद हैं, जो इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद के लिए रास्ता उपलब्ध करा रही हैं या फिर यह इस्लामोफोबिया का पर्याय है? आधुनिकीकरण के अतिरिक्त भी कोई वजह है, जो बुर्का और तमाम अन्य इस्लामी प्रथाओं के विरुद्ध यूरोप में आंदोलनों को जन्म दे रही है या फिर सरकारों को प्रतिबंधात्मक कदम उठाने के लिए विवश कर रही है? फ्रांस, जर्मनी, इटली और ऑस्ट्रिया में धुर दक्षिणपंथ क्यों मजबूत होता जा रहा है?
इतिहास में जवाब: ब्रिटेन में हुए इस परिवर्तन से लगता है कि यूरोप अपने इतिहास को दोहरा रहा है। अतीत में देखें तो यूरोप भावनात्मक या राजनीतिक रूप से एक नहीं रहा। हां, आर्थिक आवश्यकताओं ने उसमें एकता के तत्वों का संयोजन जरूर किया। इधर के वर्षों में यूरोप में एक नई तरह का एकाधिकारवादी और कट्टर राष्ट्रवादी रवैया पनप रहा है, जिसके कारण न केवल एकता प्रभावित हो रही है बल्कि अन्य कई तरह के खतरे भी जन्म ले रहे हैं। यह वजह भी ब्रिटेन के ईयू से अलग होने की रही हो, लेकिन गंभीर पड़ताल इसे इमिग्रेशन और इस्लामोफोबिया तक ले जाती है। वर्तमान समय में ऐसे कई अध्ययन सामने आए हैं, जो यूरोप में यूरोसेप्टिज्म की भावना को तीव्र होते और यूरोफीलिया (यूरोप के अंदर एकता की भावना) को कमजोर होते पाते हैं। अब देखना है कि नई सरकार ब्रिटेन को पुरानी राहों पर भटकाएगी अथवा नई दिशा दे पाएगी।