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लोकसभा व उप-चुनाव के बाद की बिहार की राजनीतिक सियासत

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जितेंद्र कुमार 

पिछले डेढ़ महीने में बिहार से दो चुनाव परिणाम आए हैं। पहला परिणाम 2024 का लोकसभा चुनाव का था, जो 4 जून को आया था, जिसमें एनडीए ने 30 सीटें जीती थी और इंडिया को 9 सीटें मिली थीं और पप्पू यादव निर्दलीय चुनाव जीतकर आए थे। दूसरा चुनाव परिणाम 13 जुलाई को आया है जहां रुपौली विधानसभा से जनता दल यू की विधायक रही बीमा भारती के दलबदल के चलते उपचुनाव हुआ था और जो राजद की उम्मीदवार के रुप में भारी मतों के अंतर से तीसरे नंबर पर रही हैं। बीमा भारती वहां से पांच बार विधायक रह चुकी हैं और पिछली चार टर्म से अपराजेय बनी हुई थीं।

उत्तर बिहार राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का गढ़ हुआ करता था जहां से राजद बहुतायत सीटें जीतकर विधानसभा या संसद में पहुंचती थी। लेकिन नीतीश व बीजेपी ने अपने सामाजिक समीकरण को इस रुप में साधा है कि राजद हर बार उसी क्षेत्र में अटक जाती है जो उसका पारंपरागत रुप से गढ़ हुआ करता था। इसके लिए सिर्फ नीतीश-बीजेपी की रणनीति को ही इतना सफल नहीं कहा जा सकता है बल्कि राजद का अहंकार और जनता के बीच नेताओं की पहुंच न होने को मुख्य कारण माना जाना चाहिए।

उत्तर बिहार की हवा में पूरी तरह मार खाए राजद को दक्षिण बिहार में मजबूत आधार मिला है। राजद को मगध और शाहाबाद ने संजीवनी प्रदान किया। उसे उन एरिया से संजीवनी इसलिए मिली क्योंकि राजद का भाकपा माले के साथ गठबंधन है।

लोकसभा चुनाव के आंकड़ों का विश्‍लेषण करें तो बिहार में एनडीए को 174 विधान सभा सीटों पर बढ़त मिली है, जबकि इंडिया गठबंधन को महज 62 सीटों पर बढ़त मिली है जबकि 5 विधान सभा सीटों पर निर्दलीय और 2 सीटों पर एआईएमआईएम को बढ़त मिली है। इंडिया गठबंधन के उम्‍मीदवारों को उत्तर बिहार में सिर्फ 19 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली है। लालू-राजद के गढ़ उत्तर बिहार में कटिहार एकमात्र सीट है जो इंडिया गठबंधन के हिस्‍से में आयी है, क्योंकि किशनगंज लोकसभा से पिछली बार कांग्रेस पार्टी ही विजयी रही थी। हां, निर्दलीय पप्‍पू यादव ने जद यू से जरूर पूर्णिया सीट छीन लिया है जहां तेजस्वी यादव ने न सिर्फ पप्पू यादव के खिलाफ कैंप किया था बल्कि यहां तक कह दिया था कि अगर वोट बर्बाद ही करना हो तो भाजपा गठबंधन को दे दीजिए लेकिन पप्पू यादव को मत दीजिए।

जिन लोगों को तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बिहार में इंडिया गठबंधन का भविष्य काफी सुखमय लग रहा है उन्हें कई बातों पर गौर करने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि जिस राजद को 2020 के चुनाव में आपने सबसे बड़े राजनीतिक दल के रुप में देखा था उसके पीछे सीधे राजद नहीं था बल्कि चिराग पासवान की लोजपा और बीजेपी का मिलाजुला खेल था जिसने नीतीश कुमार के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतार दिया था। इसी के कारण जदयू बिहार विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी थी। काफी लड़ाई-झगड़े के बाद अब चिराग पासवान फिर से एनडीए का हिस्सा हैं जिसके पास दुसाधों का कम से कम साढ़े पांच फीसदी वोट शेयर है। राजद और इंडिया गठबंधन नेतृत्व इतने बड़े वोट की खाई को किस रुप में भरता है, यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है।

अति पिछड़ों का अधिकांश वोट या तो बीजेपी के साथ चला गया है या आज भी जदयू के साथ है। बिहार में इंडिया गठबंधन के नेता तेजस्वी यादव की बिल्कुल ही दिलचस्पी नहीं है कि उन वोटों को अपने पक्ष में कैसे किया जाय। राजद नारा या सोशल मीडिया पर जो भी समीकरण बनाए या गढ़े हकीकत तो यह है कि वह पूरी तरह ‘माय’ (मुसलमान व यादव) पर ही आश्रित है और उसी से चुनाव जीत लेना चाहती है जिसकी संख्या लगभग 34 फीसदी है। राजद की अतिरिक्त परेशानी यह भी है कि उसे यादव उम्मीदवार तो दिख जाता है लेकिन जिस 20 फीसदी मुसलमानों का वोट चाहिए उन्हें टिकट देने में परेशानी होती है। राजद को इस बात का डर सता रहा होता है कि अधिक मुसलमानों को टिकट देने से कहीं हिन्दुओं में राजद के लिए गुस्सा न बढ़ जाए। जबकि हकीकत में इन दोनों के अलावा किसी भी जाति या समुदाय का सहज पसन्द राजद नहीं है।

पिछले विधानसभा और अभी के लोकसभा में राजद उसी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया है जहां भाकपा माले ने अपने कैडर वोट को इनके पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित किया है।

राजद की एक अलग परेशानी यह भी है कि उसके पास अपने वोटरों से संवाद करने के लिए कोई कैडर नहीं है। पूरी पार्टी ‘वन मैन शो’ बनकर रह गया है। जमीनी स्तर पर न उसके पास कोई कार्यक्रम है और न ही उन सीमित कार्यकर्ताओं को दिशा-निर्देश देने वाला नेतृत्व है। राजद मूलतः किसानों, मजदूरों व कुछ हद तक द्वितीय-तृतीय श्रेणी की नौकरी पेशा वालों (खासकर सरकारी दफ्तरों के क्लर्क व सभी तरह के स्कूलों के शिक्षकगण) की पार्टी है। उन्हें अपनी पार्टी से जोड़े रखने के लिए राजद के पास न कोई कार्यक्रम है और न ही उनसे संवाद करने के लिए किसी तरह का मंच है। बिना किसी राजनीतिक कार्यक्रम के पार्टी अपने कैडर से संबंध ही नहीं बैठा पाती है।

लालू यादव करैस्मिटिक (चमत्कारिक) नेता रहे हैं, इसलिए संगठन के बगैर भी पार्टी अच्छा करती रही। लालू यादव सक्रिय राजनीति से पूरी तरह दूर हैं, और पार्टी का पूरा दारोमदार तेजस्वी यादव पर है, जो नेता भले ही अच्छे हों, चमत्कारिक नहीं है। इसलिए उनकी जनता तक पहुंच बढ़ाने के लिए संगठन को तैयार करना होगा, जिसकी तैयारी राजद में नहीं दिखती है।

बिहार में राजनीतिक रुप से यही हाल रहा तो हो सकता है कि राजद महत्वपूर्ण पार्टी फिर भी बन जाए लेकिन उसका सत्ताधारी दल के रुप में परिवर्तित होना लगभग असंभव है। हां, जिस एरिया में भाकपा माले का आधार है, और यह गठबंधन बना रहता है तो वहां से राजद के पक्ष में बहुत ही बढ़िया परिणाम आएगा। संभवतः माले भी बड़ी राजनीतिक दल के रुप में मौजूद रहे क्योंकि उनका काम और आधार है, फिर भी इंडिया के लिए सत्ता की पहुंच इनसे काफी दूर की कौड़ी लगती है!

और याद रखिए, बिहार में एनडीए की जीत, नरेन्द्र मोदी को मजबूत ही करेगा, एक प्रधानमंत्री के रुप में भी और नेता के रुप में भी। राजद की कार्यशैली में बदलाव की जरूरत महसूस होती है। यह बात तेजस्‍वी यादव को खुद समझना चाहिए। इसलिए बिहार में राजद के लिए आत्मचिंतन का वक्त है कि इंडिया को कैसे आगे ले जाए!(

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