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ध्यान : जन्म, मृत्यु और आप 

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     डॉ. विकास मानव        

बचपन, जवानी, बुढ़ापा–सब देखा। मगर सब बदल गया। हमारे भीतर जो उन्हें देखने वाला था, वह नहीं बदला। उसी ने बचपन देखा, उसी ने युवावस्था देखी, उसी ने बुढ़ापा भी देखा। उसीने सुख-दुख, सफलता-असफलता देखी। उसी ने जन्म देखा, उसीने मृत्यु भी देखी। मगर सब बदल जाता है, केवल वही एक नहीं बदलता–जो सबकुछ देखता रहता है, सबकुछ अनुभव करता रहता है, सबका साक्षी बना रहता है।

     इसी सूत्र को जिसमें सारे मनके पिरोये होते हैं, योगशास्त्र ‘आत्मा’ कहता है। केवल आत्मा सत्य है।जिस समय हम अपने को इन तमाम मनकों से हटा लेंगे, और आत्मा रूपी सूत्र से अपने को मुक्त कर लेंगे, जान लेंगे कि हम सूत्र हैं, हम आत्मा हैं, वही सतत साक्षीभाव हम ही हैं, वह चैतन्य भी हम ही हैं–यह प्रतीति सघन अनुभव बन जाती है तब हम कैवल्य को उपलब्ध् हो जाते हैं। 

    मात्र आत्मा ही जानने और पाने योग्य है। हम उस ‘एक’ को खोकर सबकुछ गँवा बैठते हैं। सपनों को पकड़ते हैं और पकड़ भी नहीं पाते। रात सपने में देखा कि करोड़पति हो गए, मगर सवेरा होते ही देखते हैं कि मुट्ठी ख़ाली की ख़ाली है। इसी प्रकार जीवन में देखा कि हम यह हो गए हैं, हम वह हो गए हैं, लखपति हो गए, एम् एल ए बन गए, मंत्री बन गए, मगर मृत्यु के समय पता चलता है कि मुठ्ठी ख़ाली की ख़ाली है। 

     सब सपना-सपना-सा लगता है। योग की दृष्टि में सपने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि जहाँ-जहाँ परिवर्तन है, वहां-वहां ‘सत्य’ नहीं है। वह ‘सत्य’ हमें फिर कहाँ मिलेगा ? कहाँ उसके दर्शन होंगे ?उस एकमात्र ‘सत्य’ को खोजना होगा अपने भीतर। तभी दृष्टाभाव से मिलेगी वह ‘सूत्रबद्धता’। 

     वह ‘सातत्य’ जो एक है, उसे ही कहा है–‘कैवल्य’। उसी को जान लेना है, उसी को समझ लेना है। जिसका फल होगा हम देह रहते हुए भी और देह के मृत हो जाने पर भी उस एक का अनुभव करेंगे।

      कैसे जान पाएंगे उस “एक” को ? जानने की प्रक्रिया क्या है ? जानने की प्रक्रिया है–सारे विकल्पों से शून्य हो जाना। विकल्प का अर्थ है–जिन-जिन वस्तुओं में विपरीतता है, वे सब विकल्प हैं, जैसे दुःख-सुख, शान्ति-अशान्ति, त्याग-आसक्ति, जैसे–घृणा-लगाव, सफलता- असफलता।

         विकल्प का मतलब है–द्वन्द्व। यह जगत् द्वंद्वमय है। जहाँ हर चीज के दो विकल्प हों, दो पहलू हों। जिसने एक को चाहा, वह दूसरे में उलझेगा। बचने का कोई रास्ता नहीं है। सुख चाहते हैं तो दुःख उसके विपरीत है, वह झेलना पड़ेगा। शान्ति चाहते हैं तो अशान्ति उसके विपरीत है, उसे प्राप्त करना होगा। त्याग चाहते हैं तो आसक्ति के सागर में डूबना पड़ेगा। प्यार चाहते हैं तो घृणा सहनी होगी। हम बच नहीं सकते दूसरे से। 

    अगर बचने का कोई रास्ता है तो यही कि हम दोनों को छोड़ दें। दोनों को छोड़ना ही विकल्पशून्यता है जिसका अर्थ है–जहाँ-जहाँ द्वन्द्व है, वहां-वहां चुनाव न करें। बस, चुनाव करना ही छोड़ दें। सुख की, शान्ति की, सफलता की, प्यार की। बस, अलग रहें दोनों से।काफी कठिन यह समस्या दोनों से अलग रह पाने की। सबकुछ समझ में आ जाता है, मगर समस्या वही रहती है द्वन्द्व की। यदि हम मुक्ति चाहते हैं तो बन्धन में पड़ते रहेंगे। क्योंकि द्वन्द्व तो वहां भी है। 

     विकल्प तो स्वयम् बन जाता है। जो शान्ति मांगता नहीं, अशान्ति भी मांगता नहीं, जो मुक्ति मांगता नहीं, बन्धन भी मांगता नहीं–वह व्यक्ति पूर्णरूप से शान्त हो जाता है। फिर उसी व्यक्ति के जीवन में ‘उस एक’ के पुष्प खिलते हैं और महकते हैं।

        सही मायने में सन्यास क्या है ?हमें संसार से कुछ नहीं माँगना है, न कुछ चाहना है और न कोई आशा-अपेक्षा ही रखना है। यही सही मायने में सन्यास है। सन्यास का मतलब गेरुआ वस्त्र पहन लेना नहीं है। सन्यास संसार के विपरीत नहीं है। जिन लोगों ने सन्यास को संसार के विपरीत समझा है, वे बराबर संसार में ही फंसे रहते हैं। उन्होंने संसार को सन्यास के विपरीत समझा है। यही समझना द्वन्द्व में पड़ना है। संसार को त्यागने वाले सन्यासियों ने संसार को मन में बसा रखा है। 

     संसार छोड़ कर भागे तो क्या ? संसार को तो मन में बसा रखा है। हम संसार में बने रहें, कोई बात नहीं। मगर संसार हमारे मन में नहीं रहना चाहिए। वास्तव में सन्यास का अर्थ है–निर्द्वन्द्व हो जाना, विकल्पशून्य हो जाना, चुनावरहित हो जाना। जो सच्चा सन्यासी होता है, वह हर परिस्थिति से अप्रभावित रहते हुए गुजर जाता है। उसके जीवन में जो घट जाता है, उसे वह अलिप्त भाव से ईश्वरेच्छा समझ कर स्वीकार कर लेता है। 

     जो नहीं घटता, उसकी वह मांग नही करता। इसी एकमात्र भाव का नाम है सन्यास। यदि हमने इस भाव को जीवन में उतार लिया तो हम भी वही सन्यासी हैं। वस्त्र बदलने, सिर मुड़ाने, दण्ड-कमण्डल हाथ में लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    यही बात उपनिषद का यह सूत्र कहता है :

अज्ञान ह्रदयग्रन्थि निःशेष विलयस्तदा।समाधिना$विकल्पेन यदा अद्वेता$त्मदर्शनम्।।

     अर्थात् जिसने समाधि या किसी और माध्यम से अज्ञान रूपी ग्रंथि का संपूर्ण रूप से प्रणाश कर् लिया है और सारे विकल्पों और द्वंद्वों को छोड़कर एक उस अद्वैत रूपी आत्मा का दर्शन कर लिया है, वही सच्चा सन्यासी है, साधक है सविकल्प समाधि का अर्थ जो व्यक्ति ध्यान करने का प्रयास करता है, उसका अभ्यास करता है, उसे यह भली भाँति मालूम होना चाहिए कि इसका आगे का क्रम समाधि है। ध्यान से समाधि में प्रवेश। लेकिन जैसा कि पूर्व की पोस्टों में बतलाया जा चुका है कि वह व्यक्ति इस अभ्यास में सफल हो सकता है जिसने अपने आपको मानसिक और व्यावहारिक रूप से बदलने का संकल्प किया हुआ है। जिसने यह जान-समझ लिया है कि यह संसार उसके लिए व्यर्थ है और वह स्वयं इस संसार के लिए व्यर्थ है। जिसने हानि-लाभ, जीवन- मरण, यश-अपयश सबसे निरपेक्ष होकर विधि के हाथ छोड़ दिया है। ऐसा व्यक्ति ध्यान से समाधि में शीघ्र प्रवेश का सकता।

       जब साधक ध्यान से समाधि की अवस्था की ओर बढ़ता है तो सर्वप्रथम जो उसे उपलब्ध् होता है, वह है सहज समाधि। सहज समाधि जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगती है तो उसके आगे जो मिलता है, वह है–सविकल्प समाधि। सविकल्प समाधि का कोई अधिक महत्त्व नहीं रहता क्योंकि अभीतक साधक के जीवन में विकल्पशून्यता उत्पन्न नहीं हो पाती है।

     द्वन्द्व, विकल्प, द्वैत उसके जीवन का हिस्सा अभी भी रहते हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि उसने शान्त होना स्वीकार कर लिया है। वह संसार से परेशान है, इसलिए उसने शांति को चुन लिया है। लेकिन उसने जो शान्ति प्राप्त की है, उसकी गहराई में अशान्ति छिपी है। वहां विकल्प विद्यमान है।

      उसने अशांति के विपरीत शांति को चुना है। यही कारण है कि वह अशांति से मुक्त नहीं है। ऐसी शान्ति से सदा यही भय बना रहता है कि कहीं अशान्ति लौटकर न आ जाये। जो व्यक्ति जंगल, पहाड़ की ओर भागता है, वह व्यक्ति वास्तव में संसार, समाज और परिवार से नहीं भागता है। उसे सदैव भय बना रहता है कि कहीं संसार, समाज और परिवार उसके भीतर छिपी अशान्ति को उकसा न दे।

    ब्रह्मचारी व्यक्ति इसलिए पहाड़, जंगल की ओर भागता है कि उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना है। वह तो इसलिए भागता है कि कहीं उसके भीतर छिपी हुई काम-वासना को कोई उघार न दे।अपने को ब्रह्मचारी कहने और मानने वाला व्यक्ति स्त्री से दूर क्यों भागता है ? क्यों उससे दूर रहना चाहता है ? 

    इसलिए कि उसके ब्रह्मचर्य का  निर्माण सतही है, ऊपरी है। गहराई में काम-वासना छिपकर बैठी हुई है। ब्रह्मचर्य को उसने काम वासना का विकल्प समझा है, विपरीत समझा है। वास्तव में जिसने जिसका चुनाव किया, समझ लीजिए, वह विपरीत के बन्धन में जकड गया।

       हमारा जीवन दो भागों में विभक्त है। एक भाग् को तो हमने चुनकर स्वीकार कर लिया है और दूसरे भाग् को न चुनकर अस्वीकार कर दिया है। मगर दोनों भाग एक दूसरे जुड़े हुए हैं। इसलिए जिसको हमने स्वीकार नहीं किया, वह आखिर जायेगा कहाँ ? वह भाग् भी तो हमेशा साथ ही रहेगा।हम संसार, समाज, परिवार से भागकर हिमालय में सैकड़ों वर्ष रहें, तपस्या करें। मगर जिस दिन हम वापस लौटेंगे, तो पाएंगे कि हमारे सैकड़ों वर्ष का समय बेकार चला गया। 

     हमारे भीतर जो छिपकर गहराई से बैठा है, उसे संसार, समाज, परिवार फिर से वापस ला देंगे। हम फिर से जस के तस हो जायेंगे। बस, यही है सविकल्प समाधि का अर्थ।

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