अग्नि आलोक
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काम और राम का अंतर्संबंध 

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(राम से हमारा आशय एकमात्र ईश्वर से है, दसरथपुत्र से नहीं)

      डॉ. विकास मानव 

      पूर्णत्व के, राम बनने के यानी परमानंद/मोक्ष के दो ही सिद्ध मार्ग हैं : ध्यान साधना और काम (संभोग) साधना. ध्यान का पथ ज्ञान द्वारा शुक्ष्मतापूर्वक सत्य का अवबोधन देता है. काम साथना सहजता से, सत्य की स्थूल अनुभूति कराती है. यही कारण है कि ध्यानमार्गी ऋषि महर्षि ब्रह्मर्षी ही नहीं, भगवान कहे गये लोग भी संभोग साधना में उतरे.

मिथुन तत्व परम गुह्य तत्व है. यही सृजन और प्रलय का कारण है. इसी के द्वारा सिद्धि और सदुर्लभ ब्रह्मज्ञान लाभ हो सकता है  कुंड के मध्य में कुमकुम वर्ण रेप युक्त और बिंदुरूप मकार योनि में स्थित रहता है.

      शिश्नाकार जब योनिप्रदेश में दीर्घावधि तक के लिए एकाभूत होकर युगल को बेसुध कर देता है तब सर्वदुर्लभ ब्रह्मबोध और परमानंद उत्पन्न होता है. आत्मा में रमण करने लगने के कारण ही वह आत्माराम कहलाता है।

      उसी से ब्रह्मांड का उद्भव होने के कारण ही वह ब्रह्म कहलाता है. यह रामरूपी परमानंद ही निश्चयपूर्वक तारक ब्रह्म है. सत्कर्म और काम साधना जीवन में फलीभुत हुई है तो मृत्युकाल में भी यह रामस्मरण होता है और जीव का कर्मबंधन छूट जाता है. इसलिए कि वह स्वयं ब्रह्ममय हो चुका होता है.

    यह मिथुन तत्व परमगुरु है और तत्वज्ञान का कारण स्वरूप है. समस्त पूजा का तत्त्वसार तत्व और जप आदि का समस्त फल इससे प्राप्त होता है।

    कुंड माध्यम में कुमकुम वर्णयुक्त रे’प और बिंदुरूप ऊँ योनि में स्थित है.  शरीर के भीतर नाभिचक्र में और विज्ञान की भाषा में G Spot पर कुमकुम की आभा के सामान रक्तवर्ण तेजस-तत्व रहता है। इस पर बलिष्ट और दीर्घगामी शिश्न के घर्षण से अद्भुत विद्युत यानी जीवनऊर्जा का संघटन होता है.

     यही ‘रं’ यानी रति बीज है.  उच्च तेजस्तत्त्व के साथ योनि में परमानंद बिंदुरूप में रहता है.  ‘रं’ बीज अथवा तेजस्तत्व के साथ शिश्नाघात को स्त्री के बेसुध होने तक संयुक्त करना होता है. तब इस महायोग से राम उत्पन्न होता है. यही राम तारक ब्रह्म है. यह ही हंस पर आरूढ है. हंस अर्थात अजपारूप में श्वास प्रश्वास. 

    इसी श्वास प्रश्वास में लक्ष्य व मन को लगाकर साधन करने से नाभि चक्र स्थित तेजस्तत्वरूप ‘रं’ प्रकार के साथ आज्ञाचक्र स्थित बिंदुरूप में मकार का मिलन होता है. 

    इस प्रकार पर अनापान की गति रूद्ध होने पर स्वास मस्तिष्क में स्थिर होता है. पारस्परिक प्राणापान की गति होने पर परमानंद की प्राप्ति होती है. जीव का यही तारकमंत्र है।

       इस निश्वास और श्वास वायु की सहायता से मंत्र का मनन नहीं करने से वास्तविक मंत्र चैतन्य नहीं होता. प्राणायाम द्वारा वायवी अथवा प्राणशक्ति कुंण्डलिनी जब सहस्त्रार में जाकर सहस्त्रार स्थित महेश्वर के साथ सम्मिलित होती है तभी जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।

      जब तक मूलपद्मविलासिनी कुलकुंण्डलिनी शक्ति निद्रिता रहती है. तब तक मंत्रजप अर्चनादि कुछ भी, किसी भी रूप में फलप्रद नहीं होता. उसे निद्रिता को जगाकर महाविस्फोटक बनाना होता है. यह पौरुष का विषय है.

     वस्तुत रतिदेवी या यौनशक्ति या कामाग्नि की शक्ति के बिना स्वतंत्र भाव से किसी में कुछ करने की शक्ति नहीं है. ब्रह्मा विष्णु शिव से लेकर जितने भी देव मनुष्य पशु पक्षी कीट पतंग लता तरुण आदि  हैं कोई भी उस निखिल ब्रह्मांड की अधीश्वरी की आज्ञा के बिना स्वाधीनता पूर्व कुछ भी नहीं कर सकता है।

       वह प्रसन्न होकर जब साधक के मस्तिष्क पर प्रतिष्ठित होती है तब वह क्या-क्या नहीं कर सकता. जो अति निन्दित इस सब सत्त्वों में विवर्जित पशुतुल्य जीव है वह भी उसकी कृपा से निर्वाण यानी मुक्तिलाभ प्राप्त कर सकता है.   

   वही नानाकार से नानाधार से जगत के शुभाशुभ समस्त कर्मों को निष्पन्न करती है. हम अज्ञजीव समझते हैं कि सबकुछ हम ही करते हैं।

      वही कालरात्रिरूप में जगत के जीवो को संन्त्रस्त करके मृत्युरूप में उनका ग्रास करती है. जगदधिष्ठात्री जगद्धात्री मां होकर जग-जीव का परिपालन करती है. चामुंडा रूप में बुद्धत्व की तरफ करने के लिए उनका रक्तपान करती है. भुवनमोहनी शिवसीमंन्तिनी रूप में विश्व ब्रह्मांड को विमुग्ध करती है. कृपा करके जीव की अशेष दुर्गति दूर करके त्रिलोक के पूज्या दुर्गारूप में उनके शांतिविधान के लिए उन्हें परमशांतिरूपा मुक्ति-ऐश्वर्य प्रदान करती है।

     यह भगवती (भग = योनि, वती = वाली) ही समस्त विश्व का प्राण है. जब वह शक्ति रूप में जगत व्यापार में रत् होती है. तब निर्गुण ब्रह्मा अचैतन्य-भाव में उसके पैरों के नीचे पड़ जाते हैं‌. सभी ब्रह्मांड का पुनः पुनः सर्जन पालन और ध्वंस होता है. पुनः जब उसका पुरुषभाव जाग्रत हो उठता है तब प्रकृति पुरुष में आत्मसमर्पण करती है. यही शिव शक्ति सम्मिलन है.

    यही मिलन ही महासमाधि की अवस्था है. ध्यानयोग की समाधि और संभोगयोग की प्राप्ति एक ही वस्तु है।

समस्त जगत् जीव पुरूष-प्रकृतिमय है. यह दोनों शक्तियां मिलकर राम बन जाती हैं.

     स्वस्थ काम साधना से, यौनरूपी समुद्रमंथन से, बेसुध स्थिति में अद्वैत स्तरीय संभोग की अवस्था से जन्मा यह रामबोध ही जीव का तारक है परंतु हम सभी इस अवस्था से च्युत हो गये है. यह अवस्था चेतना मिशन देता है, बिना कुछ लिए.

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