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यह समय ‘जागने और जाग्रत विवेक से अपनी समझ को साफ करते रहने’ का है

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प्रफुल्ल कोलख्यान

भारतीय राजनीति और इसलिए जीवन में भी बार-बार दो शब्द सुनाई देते हैं, वाम और दक्षिण। सुनाई देते हैं, लेकिन इन पर थोड़ा-सा ठहरकर कम ही विचार किया जाता है। जाहिर है कि दक्षिण और वाम रुझान में आकर्षण आग्रह और अपील का तौर-तरीका की भिन्नता पर भी बात नहीं हो पाती है। समाज में इस पर अपेक्षाकृत थोड़ी अधिक गंभीरता से बात की जानी चाहिए। इस अंतर के बारे में अस्पष्ट अवधारणा के चलते रहने के कारण भी बहुत भ्रामक वैचारिक धुंधलापन बना रहता है।

वैचारिक धुंधलापन के वातावरण में भ्रामक वाग्मिता को प्रशंसात्मक स्वीकृति मिलती रहती है। अवधारणा के अस्पष्ट रहने के कारण बने धुंधलापन को दूर करने का एक ही उपाय है, अवधारणा की अस्पष्टता को यथा-समय दूर करते रहना। समाज में आलोचनात्मक स्वीकृति का अभाव और प्रशंसात्मक स्वीकृति का प्रभाव बड़े-बड़े संकट खड़ा करता है।

प्रसंगवश, भारत में हिंदू-मुसलमान पर बहुत बात होती है। हिंदू-मुसलमान के रिश्तों में सह-अस्तित्व की बनावट की ऐतिहासिक प्रक्रिया पर शायद ही कभी बात की जाती है। भारत के हिंदू-मुसलमान एक दूसरे के धर्म को बहुत कम जान पाते हैं। एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे के बारे में इतना कम जानने से एक सामाजिक दुश्चक्र बन जाता है। अर्थात हम एक दूसरे को इतना कम क्यों जानते हैं! क्योंकि सामाजिक दूरी है। सामाजिक दूरी क्यों है! क्योंकि एक दूसरे को बहुत कम जानते हैं। कहा जा सकता है कि आज हिंदू-मुसलमान एक दूसरे को उससे भी बहुत कम जानते हैं जितना 1857 में वे एक दूसरे को जानते थे!

भारत में जन्म ले रही नई राजनीतिक शैली के दौर में यह बहुत बड़ा नागरिक दायित्व है कि हिंदू-मुसलमान के बीच की ही नहीं हर स्तर पर बनाई गई या बन गई सामाजिक दुश्मनी को समाप्त करने के लिए शुरू से स्पष्ट और सोद्देश्य अभियान चलाने की कोशिश करे। समाज के समझदार हितधारक भी अपने बीच विकसित हो गये हितों के टकराव में निहित मिथ्या तत्व को नहीं चिह्नित कर पायें तो फिर बहुत मुश्किल है! बेहतर और संविधान सचेत नागरिक बनने के लिए आस-पास फैलाये गये मिथ्या तत्व को पहचानना और किसान की तरह उसकी निकौनी करते रहना जरूरी है।

मिथ्या तत्व क्या होता है! मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं होता है। मिथ्या न झूठ होती है, न सच होती है। किसी भी संदर्भ के वास्तविक पहलू का अप्रत्यक्ष और ओझल हो जाना और उसकी जगह अ-वास्तविक पहलू का आंख के सामने आ जाना उस संदर्भ का मिथ्या तत्व होता है। जैसे रोजगार के अभाव को दूर करने के वर्तमान और वास्तविक पहलू पर बातचीत करते हुए, इस संकट को ओझल करने के लिए भविष्य में कभी रोजगार की सर्वजन सुलभता के अ-वास्तविक पहलू पर चर्चा को जोरदार तरीके से सामने ले आना, रोजगार के अभाव को दूर करने की बातचीत का मिथ्या तत्व है।

विभिन्न संदर्भों के इस मिथ्या तत्व से मुक्ति के लिए ही मंथन होता है। जिनका हित मिथ्या तत्व के बने रहने से सधता है, वे क्षतिग्रस्त मिथ्या तत्व को फिर से प्रभावी बनाने के लिए भी मंथन करते हैं! गंभीर अर्थ में कहा जाये तो अधिकतर मामलों में राजनीतिक दल एक दूसरे के मिथ्या तत्व पर ही हल्ला बोलते रहते हैं। अपने-अपने क्षतिग्रस्त मिथ्या तत्व की मरम्मत करते रहते हैं।

व्यापक नागरिक समाज में हिंदू-मुसलमान और वाम-दक्षिण अवधारणा के स्पष्ट न होने के कारण भारत की राजनीति और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में तरह-तरह की मिथ्या समस्याएं खड़ी होती रहती हैं और वास्तविक समस्याओं पर कोई सार्थक बात नहीं हो पाती है। निस्संदेह इसमें मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन इस वास्तविक चर्चा विहीनता का कुछ-न-कुछ संबंध नागरिक समाज की बौद्धिक शिथिलता से भी है। यह नहीं हो सकता है कि मछली की आंख बचाने की चिंता मछली के अस्तित्व के संकट के खतरों की लगातार अनदेखी करती रहे।

बुद्धिमानी से बुद्धि का विरोध, तर्क से तर्क-वितर्क का विरोध का विचित्र वितंडा का असर ‘उच्च लोगों’ के ‘स्तरीय विमर्श’ में भी देखा जा सकता है और साधारण लोगों की बातचीत में भी देखा जा सकता है। सूप-चलनी शैली में चतुर-सुजान प्रवक्ताओं का एक दूसरे पर आरोप लगाते रहने से आम लोगों को मिथ्या तत्व के अलावा क्या मिल सकता है! कुछ नहीं मिल सकता है। चतुर-सुजान वह होता है जो स्थिति को अच्छी तरह से जनता है, तो सुजान है लेकिन बातचीत में मिथ्या तत्व के इस्तेमाल में चतुर है!

एक निश्छल लेकिन समझदार और बुद्धिमान व्यक्ति ने संदेश भेजा। निस्संदेह वे वाम-पंथी नहीं हैं, न ऐसा कोई उनका दावा है, और न मनोरथ ही। उनका दावा और मनोरथ दक्षिण-पंथी होने का भी नहीं है। हां, दक्षिण-पंथी विचार के आकर्षण में होने के कारण उन में दक्षिण-पंथी रुझान जरूर हैं। हालांकि, यह दक्षिण-पंथी रुझान उनके अनजाने ही उन में होगा, उनके निश्छल होने के कारण ऐसा मेरा अनुमान है।

मेरा अनुमान तो यह भी है कि दक्षिण-पंथी विचार की तरफ लोगों का रुझान अनजाने में ही हो जाता है या कहा जा सकता है कि जन्म-जात ही होता है। ‘सामान्य-बुद्धि’ की तरह! ऐसा क्यों होता है? इस पर बात की जानी चाहिए। उनके भेजे ‘वाट्सअप संदेश’ से शुरू करना अधिक प्रासंगिक और जरूरी है। अंग्रेजी में भेजे गये उन के संदेश का हिंदी पाठ है, “यदि आप अपना पूरा जीवन आनेवाले संकट की आशंका की चिंता में बिताते हैं, तो आप कभी भी जीवन में हासिल बेहतर का आनंद नहीं ले पायेंगे।”

यह वाट्सअप संदेश देखते ही मुझे अमेरिका के स्वेट मार्डेन (Swett Marden) सहित कई भारतीय और अ-भारतीय प्रसिद्ध विचारकों, लेखकों, प्रभावशाली वक्ताओं की बातें कौंध गई। जिनकी मूल प्रेरणा होती है, “चिंता छोड़ो, सुख से जीयो।” सभ्यता विकास के दौरान आदमी ने बहुत दुख भोगा है, अभी भी दुख भोग रहे हैं। दुख कई तरह के होते हैं। कुछ लोगों को कोई चिंता नहीं होती है, वे सुख से ‘सोते’ हैं। एक तरह का दुख बुद्धिमान आदमी को हमेशा रहता है; सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै, दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै। चिंता और चिंता-विहीनता का संबंध ‘दुख’ और ‘सुख’ से जरूर होता है। ‘दुख’ और ‘सुख’ को समझने के लिए इस चिंता को समझना होगा। हिंदी के महाकवि ने तो कामायनी में चिंता को अभाव की चपल बालिका, और ललाट की खलरेखा कहा है।

मूल बात है चिंता अभाव से पैदा होती है। जिसे अभाव नहीं है, उसे चिंता भी नहीं है। अभाव भी बहुत तरह के होते हैं। चिंता भी बहुत तरह की होती है। क्या कोई मनुष्य ऐसा भी हो सकता है जिसे किसी तरह का कोई अभाव हो ही नहीं! दुख कबीर को हुआ था, उसके पहले और व्यापक रूप से महात्मा बुद्ध को दुख के होने का बोध हुआ था। बल्कि दुख के होने का बोध इतना व्यापक था कि ‘दुख है’ को महात्मा बुद्ध के चार आर्य-सत्यों में से पहला आर्य-सत्य माना जाता है! दूसरा आर्य-सत्य यह है कि दुख से मुक्ति संभव है।

आदमी ‘दुख से मुक्ति’ और ‘सुख से जीने’ की कोशिश में खुद को लगाये रखता है। आदमी को अपने जीवन में न तो स्थाई रूप से ‘दुख से मुक्ति’ मिलती है और न स्थाई रूप से ‘सुख से जीने’ की तमन्ना ही कभी पूरी होती है। स्थाई दुख के बीच से, सुख के अस्थाई क्षण का ही जुगाड़ साधारण आदमी कर पाता है। लोक अनुभव और कहावतों के मुताबिक आदमी की आधी जिंदगी बिछाने में लग जाती है और आधी जिंदगी समेटने में लग जाती है। बीच-बीच में लोट-पोट के अस्थाई अवसर जरूर आते रहे हैं। स्थाई रूप से ‘सुख से जीने’ का अवसर तो जिंदगी के बाद ही होता है। क्या ही मजे की बात है कि जिंदगी के बाद जब सारे अवसर स्थाई रूप से समाप्त हो जाते हैं, तब सुख से लोट-पोट करने या सोने का अवसर आता है! मरणोपरांत सुख का आकर्षण भी आदमी के मन में कोई कम नहीं होता है। हिंदू मन में तो इस मरणोपरांत सुख की बड़ी महिमा जीवंत रहती है।

चिंता उत्पन्न होती कहां से है? चिंता की जड़ अभाव और दुख की आशंका में होती है। आशंका की जड़ कहां होती है? आशंकाओं की जड़ होती है, व्यवस्था की दुर्नीतियों को समझनेवाली बुद्धि में। बुद्धि में तर्क-वितर्क की प्रवृत्ति होती है। बुद्धि ने मनुष्य के मनुष्य बनने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। बुद्धि ने अपनी भूमिका तर्क-वितर्क के माध्यम से ही अदा की है। ‘चिंता छोड़ने’ की सलाह में तर्क-वितर्क को छोड़ने का आग्रह छिपा होता है। तर्क-वितर्क छोड़ने के आग्रह में बुद्धिमत्ता-पूर्ण तरीके से बुद्धि के निषेध का भाव होता है।

कुल मिलाकर यह कि सुख से जीने की प्रमुख शर्त बुद्धि-हीनता है। जरूरत हो तो बुद्धि की याचना किसी अन्य से कर लें! खुद को बुद्धि-हीन मानकर ‘बुद्धि- दायकों’ से याचना करना उपयोगी होता है। आदमी को चाहिए कि वह सुख के आकर्षण की फांस में पड़ने के लिए कभी भी बुद्धि-हीनता के तोहफे को स्वीकार न करे और तर्क-वितर्क की डोर को हाथ से कभी भी छूटने न दे। तर्क पर पकड़ कमजोर हुई और अपनी दृष्टि गई! मनुष्य जीवन के लिए जरूरी होता है कि में तर्क की महिमा को खंडित होने से बचाने के उद्यम में लगा रहे। मनुष्य के व्यवहार में बुद्धि का निषेध, मनुष्य में मनुष्यता का निषेध है।

जाहिर है कि यहां थोड़ा भिन्न तरह के अभाव से उत्पन्न चिंता और दुख की बात की जा रही है। साफ-साफ कहा जाये तो रोजगार और जीवनयापन के न्याय-पूर्ण अवसर के अभाव के कारण होनेवाले दुख की बात की जा रही है। देश में पिछले कई सालों से लोगों को महसूस हो रहा है कि सरकार रोजगार और जीवनयापन के न्यायपूर्ण अवसरों की अभाव की चिंता से मुक्त होकर ‘सुख’ से अपनी नीतियां बनाने में लगी रही है।

विकास के नक्शे में बुनियादी संरचना (infrastructure) की तो बहुत बात होती है, लेकिन मनुष्य की बात बहुत कम होती है। व्यवस्था को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य की बनाई प्रत्येक संरचना की बुनियाद में मूलतः मनुष्य का हित ही होता है। जीवनयापन और बेहतर जीवन से जुड़े सवालों को मिथ्या तत्व से ढकने की कोशिश में दक्षिण-पंथ की राजनीति लगी रहती है। इस कोशिश में वाम, कांग्रेस और मुसलमान विरोध के विभिन्न मुद्दों का इस्तेमाल किया जाता है। राहुल गांधी कांग्रेस वाम और मुसलमान तो उनके ‘अनिवार्य विषय’ हैं।

दक्षिण रुझान जैविक और वाम रुझान सामाजिक होता है। मनुष्य में दक्षिण रुझान बिना किसी आयास के बनता है। इसमें बुद्धि की कोई खास भूमिका नहीं होती है। प्यास को महसूस करने के लिए प्यास से संबंधित पोथी पढ़ने की जरूरत नहीं होती है। प्यास को समझने के लिए निश्चय ही पुस्तकें अनिवार्य सहायक होती हैं। महसूस करने के लिए बुद्धि की जरूरत नहीं होती है, समझने के लिए बुद्धि की निश्चित भूमिका होती है।

दक्षिण रुझान के बनने में भावुकता काम करती है। वाम रुझान के बनने में बौद्धिकता की जरूरत होती है। दक्षिण रुझान स्वतः प्राप्त हो जाता है, जबकि दक्षिण रुझान को अर्जित करना पड़ता है। किसी भी चीज को अर्जित करने में कितनी कठिनाइयों का सामना होता है यह अर्जित करनेवाला ही जानता है। दक्षिण रुझान मनुष्य को विरासत में मिल जाता है। वाम रुझान खुद ही अर्जित करना होता है। जाहिर है कि दक्षिण रुझान को वरीयता मिली होती है। मनुष्य के अलावा सृष्टि के अन्य प्राणियों का काम विरासत से मिले प्राकृतिक उपादान से चल जाता है, क्योंकि सामाजिकता तो उनमें भी होती है, लेकिन उनकी सामाजिकता उन्नत नहीं होती है।

मनुष्य एक मात्र प्राणी है जिसकी व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए अन्य व्यक्ति एवं प्रकृति का इस्तेमाल होता है। किसी अन्य प्राणी की ‘सुख-सुविधा’ के लिए उसी तरह का अन्य प्राणी न तो रिक्शा खींचता और न जहाज उड़ाता है, न मीडिया चलाता है और न तो लेख आदि ही लिखता है। यह कमाल मनुष्य की बुद्धिमत्ता से ही संभव होता है। भावुकता से नहीं, महसूस करने से नहीं, यह बुद्धि के प्रयोग करने की प्रक्रिया से ही संभव होता है। कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होना या कम्युनिस्ट होना तो दूर की बात है, वाम रुझान के लिए भी बुद्धि और बुद्धि के पक्ष में खड़े होने की बुनियादी समझदारी की जरूरत होती है।

मीडिया में खबर आ रही है कि ‘शाखा में एंट्री से हटा बैन, मोदी विरोधी क्यों बेचैन’ इस के साथ यह भी कि ‘शाखा में जायेंगे सरकारी अफसर’! किसकी एंट्री पर बैन थी? सरकारी अफसर और कर्मचारी पर बैन था? अभी किन-किन संगठनों में एंट्री पर बैन लगा हुआ है? सरकार के अफसर कर्मचारी के भाग लेने पर उनकी ‘सर्विस बुक’ में रोक का प्रावधान रहता है या नहीं? अभी मीडिया में इस पर चर्चा, गहन और गंभीर चर्चा होगी।

बहस का निष्कर्ष जो भी निकले, शाखा में एंट्री पर बैन हटने का सीधा मतलब सरकार के कर्मचारी के लिए बाध्यतामूलक प्रेरणा है। इसका एक मतलब और हो सकता है, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से रिटायर्ड ‘अग्निवीर’ का भी कोई ‘सकारात्मक रिश्ता’ बन ही सकता है! क्या सरकारी अफसर और कर्मचारी की नियुक्तियों में भी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से संबंध की पृष्ठ-भूमि की भी कोई ‘महती भूमिका’ होती है! क्या पता! बहस में क्या-क्या मुद्दे उठेंगे! चर्चा में मिथ्या तत्व का कमाल तो दिख ही सकता है। हां, जिन लोगों के मजबूत कंधों पर भारत-रत्न स्व चौधरी चरण सिंह कि विरासत का विवेक लदा है, उन्हें तो याद ही होगा कि किस प्रकार इमरजेंसी के बाद जनादेश प्राप्त करनेवाली जनता पार्टी की सरकार का पतन दोहरी सदस्यता के नाम पर हुआ था।

निश्चय ही देश में विकसित हो रही नई राजनीतिक शैली को समझने के लिए भावुक सांद्रताओं से निकलकर सक्रिय बौद्धिक विवेक के इस्तेमाल की जरूरत है। मनुष्य में एक सामान्य प्रवृत्ति होती है कि विरोधी बातों और व्यक्तियों पर थोड़ा-सा भी ठहरकर कोई गंभीर दृष्टि नहीं डालना चाहता है। कहें तो, मनुष्य की यह सामान्य प्रवृत्ति भी मूलतः दक्षिण रुझान ही है। हालांकि यह सामान्य प्रवृत्ति घोषित या चिह्नित वाम-पंथियों में भी कोई कम असरदार नहीं होती है।

नागरिक समाज के लोगों को दक्षिण-पंथ को भी समझना चाहिए, वाम-पंथ को भी समझना चाहिए, हिंदू-मुसलमान को भी समझना चाहिए; हर उस अवधारणा की बुनियाद को स्पष्टता से समझना चाहिए जिस के चलते हमारे नागरिक जीवन में कोलाहल और कलह मचा हुआ है।

समझना चाहिए कि व्यक्ति के मन में दक्षिण-पंथी विचार की तरफ का रुझान उन के अनजाने भी क्यों और कैसे काम करने लग जाता है? और हां, दक्षिण और वाम रुझान में आकर्षण आग्रह और अपील का तौर-तरीका ठीक से समझने में चूक हुई तो द्वार पर उपस्थित नई राजनीतिक शैली को समझ पाना मुश्किल ही होगा; कोलाहल और कलह से तो खैर थोड़ी-सी भी मुक्ति असंभव ही बनी रहेगी! यह समय ‘चिंता छोड़’ ‘खाने और सोने’ का नहीं ‘जागने और जाग्रत विवेक से अपनी समझ को साफ करते रहने’ का है।

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