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अपने बौद्धिक नख-दंत को शार्प कर रहा है आरएसएस ?

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आलोक श्रीवास्तव 

आरएसएस बौद्धिक रूप से काफी बदल गया है और बदलने जा रहा है। अब वह सिर्फ हेडगेवार और गोलवलकर की किताबों पर ही निर्भर नहीं है। उसने अपने बुद्धिजीवी खड़े कर दिए हैं। यह एक अत्यंत विस्तृत विषय है, पर अभी सिर्फ एक बात का जिक्र करना जरूरी है। आरएसएस भाजपा के जरिये केवल सत्ता के मजे नहीं ले रहा है, बल्कि अपने बौद्धिक नख-दंत को शार्प कर रहा है और बड़े कौशल के साथ कर रहा है। वह ज्ञान की बारीकी में उतर रहा है। वह किस प्रक्रिया से और कैसे यह कर रहा है, यह जानने की कोशिश करने पर पता चल जाएगा। अब वि-उपनिवेशीकरण उसके मुख्य लक्ष्यों में से है।

वि-उपनिवेशीकरण अफ्रीका एशिया, चीन, रूस इन सभी के लिए पिछली एक सदी से बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है, क्योंकि औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवाद के प्रसार ने सारी दुनिया में न सिर्फ उपनिवेश बनाए बल्कि उपनिवेशों के समाज, लोगों के मानस और वहां की संस्थाओं पर जो छाप छोड़ी वह आज तक मिटी नहीं है। अतः वि-उपनिवेशीकरण सचमुच एक बहुत बड़ा मसला है। हालांकि भारत की कांग्रेसी, समाजवादी और वामपंथी राजनीति के लिए यह कोई मसला नहीं रहा, लिहाजा दक्षिणपंथ ने इसे लोक लिया है। बहुत सरल शब्दों में कहा जाए तो यह कि पश्चिमी सभ्यता ने भारत में बहुत कुछ बुरा किया और बहुत कुछ अच्छा भी किया तो वि-उपनिवेशीकरण का मतलब हुआ भारत की संस्थाओं, कानूनों आदि समस्त जीवन-क्षेत्रों से पश्चिमी प्रभाव से आए अच्छे को बरकरार रखना और सशक्त करना और बुरे को खत्म करना।

परंतु संघ की विचारधारा में वि-उपनिवेशीकरण का मतलब अभारतीय चीजों को हटाकर भारतीय चीजों की स्थापना करना है। भारतीय से उनका आशय हिंदू परंपरा है और हिंदू परंपरा से उनका आशय यह नहीं है कि हिंदू धर्म के जीवंत और उचित तत्वों को लिया जाए और मृत तत्वों को त्यागा जाए।

यह एक बहुत सूक्ष्म और कठिन युद्ध है जो आने वाले समय में भारत पर थोपा जा रहा है और  इसमें जय-पराजय पर ही भारत का भविष्य निर्भर करेगा। वि-उपनिवेशीकरण ही वह चोर दरवाजा है, जिसके जरिए भारत को बिना संविधान बदले हिंदू राष्ट्र में तब्दील कर दिया जाएगा और आप संविधान की रक्षा की राजनीति करते रहिएगा।

ज्ञान की बारीकी तथा अन्य सभी शब्द से वास्तविक और गहनतम जो अर्थ लिया जाता है, किसी भी प्रतिक्रियावादी आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए उसका वह अर्थ कभी नहीं होता है वे सारे अर्थ उनके अपने एजेंडे के मातहत ही होते हैं। उदाहरण के लिए मैं यदि कहूं कि संघ ने इतिहास के क्षेत्र में पिछले दिनों काफी काम किया है तो यहां यह निहित है कि इतिहास से उनका जो आशय होता है उसी के तहत उन्होंने काफी काम किया है न कि किसी वस्तुनिष्ठ इतिहास के क्षेत्र में।

संघ के लिए वि-उपनिवेशीकरण महज एक पैकेजिंग है। वह अपनी विचारधारा की पैकेजिंग अब नए रैपर्स में कर रहे हैं और यह संजीदा संकट है जो बढ़ते जाने वाला है, क्योंकि अब इसे सत्ता और पूंजीगत बहुत बड़ा आधार मिल गया है।

और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी लिखने से रह गई कि गांधी के हिंद स्वराज से लेकर ढेर सारा काम विचार और व्यवहार में इस क्षेत्र में हुआ है, परंतु अब जो हो रहा है वह एक अलग परिघटना है एक ओर कानून की नई व्याख्या की जा रही है और उन्हें सचमुच बदल जा रहा है, इस आधार पर कि वह ब्रिटिश काल के हैं और उन्हें भारतीय स्वरूप देना है। दूसरी ओर पूरे देश भर में साल भर हजारों प्रचार कार्यक्रमों और साइबर माध्यमों द्वारा इस बात की जरूरत को युद्ध स्तर पर प्रचारित किया जा रहा है।

एक उदाहरण रखना चाहूंगा। प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन एक्ट 1855, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 तथा इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1948 – इन तीन कानूनों से मेरा एक मुकदमे के दौरान परिचय हुआ और उन्हें मैंने पढ़ा। इनमें से पहला कानून प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन एक्ट तो पूरी तरह से बेहूदा है। बाकी दो कानून काल बाह्य हो चुके हैं। अतः इन तीनों कानूनों को पूरी तरह से बदल दिए जाने की जरूरत बहुत लंबे समय से है। परंतु यह कल्पना की जा सकती है की अब इन्हें बदलते समय भाजपा सरकार इन को क्या रूप देगी और इनमें किस तरह की भारतीयता समाहित कर दी जाएगी।

इन तीनों तीनों कानून को 1990 तक बदल दिया जाना चाहिए था क्योंकि इस समय तक वे आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां अपनी पूर्णता पर पहुंच चुकी थीं जिनसे ये कानून पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके थे।

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