अग्नि आलोक
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मैं आज भी हूं एक सैनिक की भूमिका में

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सुब्रतो चटर्जी

पानी में बहते हुए सितारे दूर जा रहे हैं मुझसे
समय के शिलापट्ट पर उभरे
मेरी आस्थाओं के मंदिरों में
दीया जलाने वाले हाथ
चंद सिक्कों की तलाश में
गुम हो गए हैं अपनी अपनी
नज़दीकी जेबों में

मेरा अनधुला युद्ध की गंदगी को ढोता हुआ शरीर
सैनिक के यूनिफ़ॉर्म के अंदर
अपने ही उपर आती हुई घृणा के बोझ तले
सिकुड़ता जा रहा है

मेरी उंगलियां नहीं फिरतीं हैं
मेरे गंदे, चिपचिपे बालों के बीच

ऐसा भी नहीं कि
तुम्हारी ताज़ा झील के पानी से धुली उंगलियां
आज मेरे पहुंच के अंदर हैं

खोने की प्रक्रिया सतत है
मैंने खोया है अपने आप को
तुम्हारे खेतों को जंगली जानवरों से बचाते हुए
मैंने खोया है अपने घर को
तुम्हारे घर को दावानल से बचाते हुए

आज मेरे चेहरे को नहीं पहचानता है
मेरे उजड़े हुए घर की एक मात्र
साबूत दीवार पर
आख़िरी साँस की तरह टंगे हुए आईने का तिलिस्म

मरते हुए आदमी की आवाज़ को
भेड़िये की आवाज़ समझ लेने में कोई बुराई नहीं है
जब भय के पीछे छुपने का इरादा पक्का हो
मैं एक सैनिक की भूमिका में आज भी हूं

तेज गुजरती हुई रेलगाड़ी के पहियों के पार
मेरा निशाना आज भी वहीं पर मौजूद है
जहां पर वह था स्टेशन बनने के पहले
या रेलगाड़ी के आविष्कार के पहले

मुझे उसी निशाने पर गोली चलानी है बिना चूके
सरपट गुजरती हुई रोशनी अंधेरे के बीच से

पहुंचना है उस पार
जहां पर तुम नहीं तो
तुम्हारे होने का भ्रम तो होगा अदिति…

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