ओमप्रकाश मेहता
जिस तरह हमारे संविधान के तहत महामहिम राष्ट्रपति जी को देश का सर्वोच्च संवैधानिक प्रमुख माना गया है, उसी की तर्ज पर महा महिम राज्यपालों को राज्यों का संवैधानिक प्रमुख बताया गया है, इसीलिए राज्यपालों की नियुक्ति महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा केन्द्र की अनुशंसा पर की जाती है, हमारे संविधान में इस पद की योग्यता को लेकर भी स्पष्ट उल्लेख है, साहित्य, संस्कृति, सामाजिक व अन्य क्षेत्रों में ख्याति प्राप्त विद्वान को इस पद पर नियुक्ति का प्रावधान है, किंतु आजादी की हीरक जयंति के इस वर्ष में विद्वतजनों में यही चर्चा का विषय है कि आज के दौर में जो राज्यपाल नियुक्ति किए जा रहे है, वे पद की इस प्रमुख योग्यता की पात्रता रखते है? या राज्य के इस प्रमुख संवैधानिक पद पर भी राजनीतिक चौला चढ़ा दिया गया है और राष्ट्रपति के संरक्षण में रहने वाले राज्यपाल अब केन्द्र की राजनीतिक ’दया दृष्टि‘ पर निर्भर हो गए है, अर्थात केन्द्र पर राज करने वाला राजनीतिक दल व उसके नेता ही राज्यप्रमुख के ’माई-बाप‘ हो गए है।
हमारे संविधान में राज्यपाल के पद का सम्मिश्रण इसलिए किया गया था कि वह राष्ट्रपति जी का प्रतिनिधि के रूप में राज्य सरकार पर संवैधानिक निगरानी रखे और समय-समय पर राष्ट्रपति जी को राज्य की हर गतिविधि से अवगत रखे। किंतु आज क्या हो रहा है? राज्यपालों के संरक्षक अब राष्ट्रपति जी नही बल्कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के राजनेता हो गए है और राज्य के संवैधानिक इस प्रमुख पद पर उन गए गुजरे तथा वयोवृद्ध राजनेताओं की नियुक्ति हो रही है, जो या तो चुनावों में जनता द्वारा कई बार ठुकरा दिए गए हो, या फिर जो सत्तारूढ़ राजनीतिक दल व नेताओं की सेवा सुश्रुषा में विशेष योग्यता प्राप्त हो, फिर चाहे उन्हें संविधान का ज्ञान हो या नहीं? यह जरूरी इसलिए नहीं क्योंकि उन्हें तो अपने अधिनस्थ अफसरों व केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के प्रादेशिक व राष्ट्रीय नेताओं के नेतृत्व ने काम करना है?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की एक माननीया न्यायाधीश जस्टिस नागरत्ना ने भी महामहिमों की मौजूदा कर्तव्य निष्ठा पर यही सवाल उठाया है, उन्होंने स्पष्ट कहा कि ”कुछ राज्यपाल ऐसा काम कर रहे है, जो उन्हें नही करना चाहिए“ उनका स्पष्ट कहना था कि- ”आज राज्यपाल वहां भूमिका निभा रहे है, जहां उन्हें विवादित भूमिका नहीं निभानी चाहिए, जहां उन्हें सक्रिय भूमिका निभानी होती है, वहां वे निष्क्रीय हो जाते है, उनका स्पष्ट कहना था कि सुप्रीम कोर्ट में राज्यपालों की खिलाफ मामले देश में राज्यपाल की संवैधानिक दशा की दु:खद कहानी है।“ वैसे नागरत्ना जी ने अपना यह वक्तव्य किसी राज्य विशेष के राज्यपाल को लेकर नही दिया, किंतु चर्चा है कि उनका स्पष्ट संकेत कर्नाटक के राज्यपाल को मध्यप्रदेश के वरिष्ठ राजनेता थावर चंद गेहलोत को लेकर थी, जिनकी वहां की कांग्रेस राज्य सरकार से कथित अनबन चल रही है, जिसका विषय मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण है तथा जमीन आवंटन के नाम पर मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी को कथित तौर पर रिश्वत देने का आरोप है। राज्यपाल गेहलोत ने मुख्यमंत्री सिद्धारामैय्या को कारण बताओं नोटिस दिया था, जिस पर राज्य सरकार ने प्रस्ताव पारित करके राज्यपाल से अपना नोटिस वापस लेने की मांग की है।
यह तो महज एक उदाहरण मात्र है, वैसे देश के एक दर्जन से भी अधिक राज्यों में राज्यपाल व वहां की सरकारों के बीच अर्न्तद्वन्द जारी है, विशेषकर उन राज्यों में जहां राज्य सरकार को सत्तारूढ़ दल विरोधी दलों के राज्यपाल तैनात है।
इस तरह कुल मिलाकर आज सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि क्या मौजूदा राज्यपालगण अपने दायित्वों, कर्तव्यों का निर्वाहन संवैधानिक दायरें में कर रहे है? या राज्यपाल का पद अब अर्थहीन हो गया है? शायद इसीलिए कुछ समय पूर्व संवैधानिक विद्वानों द्वारा इस पद को खत्म करने की मांग की गई थी?