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किसान आंदोलन: संसद से सड़क तक निर्णायक संग्राम छिड़ेगा

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लाल बहादुर सिंह

संयुक्त किसान मोर्चा ने 9 अगस्त को “कॉरपोरेट भारत छोड़ो दिवस” के रूप में मनाया, मांग की कि भारत विश्व व्यापार संगठन से बाहर आए और कृषि उत्पादन तथा व्यापार में कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी न हो।

पिछले दिनों दिल्ली में हुई संयुक्त किसान मोर्चा की आम सभा की बैठक ने 9 दिसंबर 2021 को ऐतिहासिक किसान आंदोलन के स्थगन के समय केंद्र सरकार और किसान मोर्चे के बीच हुए समझौते को (जिस पर भारत सरकार के प्रतिनिधि ने हस्ताक्षर किए हैं ) लागू करने की मांग की तथा किसानों की आजीविका को प्रभावित करने वाली अन्य प्रमुख मांगों को लेकर आंदोलन को फिर से शुरू करने का फैसला किया।

किसान नेताओं ने बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि मोदी सरकार ने अपना विजय रथ रोकने के “अपराध” के लिए किसानों से बदला लिया है और उन्हें दंडित किया है। न सिर्फ कृषि का बजट घटा दिया गया है, बल्कि उनकी जो दो मुख्य मांगें थीं, MSP की कानूनी गारंटी और कर्ज माफी, उनका बजट में कहीं कोई जिक्र ही नहीं है। अन्नदाता के प्रति सरकार की संवेदनहीनता की यह पराकाष्ठा है।

इस बीच संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा के कायकर्ता शंभू बॉर्डर पर जमे हुए हैं। हाईकोर्ट ने बॉर्डर खोलने का आदेश दिया था, जिसके बाद वे दिल्ली कूच की तैयारी में थे। लेकिन इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय ने फिर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दे दिया।

बहरहाल, ये किसान संगठन अपनी पहल बनाए हुए हैं। उन्होंने फिर उस समय सुर्खियां बटोरीं जब वे राहुल गांधी से मिलने संसद प्रांगण में गए। शुरुआती इंकार के बाद अंततः सरकार को झुकना पड़ा और उन्हें इसकी परमिशन देनी पड़ी। राहुल से किसानों के मिलने से, वह भी संसद भवन के अंदर, सरकार का असहज होना समझ में आने लायक है क्योंकि किसान उस MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर मिलने गए थे, जिसका वायदा मोदी सरकार ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन के स्थगन के समय किया था, लेकिन बाद में वायदा खिलाफी करते हुए उससे मुकर गई।

किसान नेताओं ने राहुल गांधी को याद दिलाया कि विपक्षी गठबंधन ने चुनाव पूर्व घोषणाओं में MSP की कानूनी गारंटी का वायदा किया था। उन्होंने उनसे मांग किया कि इसके लिए वे आवाज उठाएं और लागू करवाएं। जाहिर है किसानों को सरकार से अधिक विपक्ष से उम्मीद है कि वह MSP की कानूनी गारंटी लागू करवाएगी।

लोकसभा चुनाव में भाजपा को किसानों के आक्रोश का शिकार होना पड़ा, जब कुल 159 ग्रामीण इलाके की सीटों पर उसे हार का मुंह देखना पड़ा। इनमें 38 सीटें पंजाब, हरियाणा, UP, राजस्थान और महाराष्ट्र के किसान आंदोलन के सघन इलाके की सीटें हैं। लखीमपुर में किसानों के जनसंहार के आरोपी पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी को मोदी ने भले किसानों की बारंबार मांग के बावजूद मंत्रिमंडल से नहीं हटाया लेकिन किसानों ने चुनाव में हराकर उसे दंडित कर दिया। कृषिमंत्री अर्जुन मुंडा को भी झारखंड के खूंटी में हार का मुंह देखना पड़ा।

अब किसानों ने शिवराज सिंह चौहान को कृषि मंत्री बनाए जाने पर तीखा आक्रोश व्यक्त किया है। वे 2017 जून में मंदसौर में हुए किसानों के जनसंहार के लिए, जिसमें 6 किसान मारे गए थे, शिवराज चौहान सरकार को जिम्मेदार मानते हैं।

मोर्चे ने प्रधानमंत्री मोदी और नेता विपक्ष राहुल गांधी तथा सभी सांसदों को दिए जानेवाले 14 सूत्रीय चार्टर में अपनी सभी ज्वलंत मांगों को शामिल किया है और लंबित मांगों को दोहराया है, जिनमें MSP की कानूनी गारंटी, कर्जमाफी, किसानों तथा खेत मजदूरों के लिए 10 हजार मासिक पेंशन, सभी फसलों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सर्वांगीण बीमा कवरेज की गारंटी शामिल है।

बहरहाल, सच्चाई यह है कि आज किसान आंदोलन अपने हालिया इतिहास के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है। किसान आंदोलन का जो मुख्य मंच था – संयुक्त किसान मोर्चा – वह आज अपने गौरवशाली अतीत की छाया मात्र रह गया है, वह फिलहाल बिखरा हुआ है और कोई प्रभावी जनपहलकदमी नहीं ले पा रहा है। 10 जुलाई की बैठक की विडंबना यह रही कि न उसके सबसे बड़े जनाधार वाले घटक संगठन के नेता उगराहां उपस्थित थे, न आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे राकेश टिकैत। इस बैठक की यह सफलता जरूर थी कि कभी आंदोलन के सर्वमान्य नेता रहे बलबीर सिंह राजेवाल जो पंजाब विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मोर्चे से अलग हो गए थे, वे फिर वापस मोर्चे में और उसकी बैठक में आए।

ऐसा लग रहा है कि मोर्चे ने अपना mass dynamism और स्वतः स्फूर्त उत्साह और जनभागीदारी का तत्व खो दिया है और संगठन संचालन के नाम पर एक तरह का फॉर्मलिज्म और यांत्रिकता हावी हो गई है।

दूसरी ओर जो धड़ा पहलकदमी लेता दिख रहा है और शंभू बॉर्डर पर डेरा डाले हुए है, उसका एक हिस्सा अपने को अराजनीतिक कहता है, उसके शीर्ष नेता डल्लेवाल की संघ के किसान संगठन से नजदीकी बताई जाती है, तो दूसरा हिस्सा किसान मजदूर मोर्चा ऐतिहासिक किसान आंदोलन के समय संयुक्त किसान मोर्चा से अलग रहा और उसके ऊपर अराजकता पैदा करने के भी आरोप लगे थे। जाहिर है यह कुनबा भी किसी स्पष्ट लोकतांत्रिक वैचारिक विजन के आधार पर काम नहीं कर रहा है और इसकी राजनीतिक दिशा संदिग्ध है।

उधर किसान आंदोलन के गढ़ पंजाब में कट्टरपंथी ताकतों का असर बढ़ना भी किसान आंदोलन के लिए अशुभ संकेत है। जाहिर है यह स्थिति केंद्र सरकार और भाजपा के अनुकूल है, इसलिए वे इसमें गहरी रुचि ले रहे हैं।

आज जरूरत इस बात की है कि हर तरह की संकीर्णता त्यागकर सुस्पष्ट जनतांत्रिक दिशा और साझा मुद्दों तथा कार्यक्रम के आधार पर किसान संगठनों की व्यापक एकता कायम हो और एकताबद्ध संयुक्त किसान मोर्चा MSP गारंटी कानून , कर्जमाफी तथा पेंशन आदि किसानों के बीच लोकप्रिय मुद्दों को केंद्रित करते हुए मोदी सरकार को घेरने की ओर बढ़े।

किसान आंदोलन के प्रबल समर्थक कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने हाल ही में किसानों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा है कि किसानों को अपना राजनीतिक दल बनाना चाहिए। यह प्रस्ताव एक गंभीर बहस की मांग करता है। राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा मोड़ पर जब देश फासीवाद की चुनौती का सामना कर रहा है, तब बेहतर टैक्टिक्स क्या होगी? क्या यह संभव है कि सुस्पष्ट सुसंगत लोकतांत्रिक दिशा के साथ किसानों का दल बने और वह तमाम वामपंथी शक्तियों, सोशलिस्ट, अंबेडकरवादी समूहों, जनांदोलन की ताकतों के साथ मिलकर फ्रांस जैसे प्रगतिशील ब्लॉक का निर्माण करते हुए एक रैडिकल सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम पेशकर तथा मध्यमार्गी दलों के साथ tactical तालमेल कायम करते हुए फासीवादी मोदी सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा सके और संघ-भाजपा को निर्णायक शिकस्त दे सके?

कहीं ऐसा तो नहीं कि देश के मौजूदा राजनीतिक मोड़ पर किसानों का अलग दल बनाने का प्रयास भाजपा विरोधी विपक्ष को ही नुकसान पहुंचाएगा और स्वयं किसान आंदोलन को भी और बिखराव की ओर ले जायेगा ?

जो भी हो किसानों को राजनीति और आंदोलन दोनों को साधना होगा और व्यापक किसान जनसमुदाय को एक स्वायत्त आंदोलन के बतौर खड़ा करना होगा तथा भाजपा सरकार के खिलाफ लामबंद करते हुए अंततः उन्हें सत्ता से बाहर करना होगा।

यह संतोष का विषय है कि किसान संगठनों की बैठक में यह तय किया गया कि आगामी विधानसभा चुनावों के लिए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर की राज्य समन्वय समितियां अपनी बैठकें आयोजित करेंगी और आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को बेनकाब करने, उसका विरोध करने और दंडित करने के लिए एसकेएम की मांगों के आधार पर किसानों के बीच एक स्वतंत्र और राज्यव्यापक अभियान सुनिश्चित करेंगी। 

उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष ने व्यापक किसान समुदाय के अंदर MSP की कानूनी गारंटी और कर्ज माफी की जो गहरी आकांक्षा पैदा की थी, उसे हासिल करने के लिए आने वाले दिनों में किसान आंदोलन के दूसरे चरण का आगाज होगा और विपक्षी गठबंधन की मदद से संसद से सड़क तक निर्णायक संग्राम छिड़ेगा।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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