अग्नि आलोक
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*कहानी :  वैरी*

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(रसियन साहित्यकार अंतोन चेखव की कृति का भाषिक रूपांतर)

       ~> पुष्पा गुप्ता 

  सितम्बर की एक अँधेरी रात, नौ बजे के थोड़ी देर बाद डॉक्टर किरीलोव का इकलौता छह वर्षीय पुत्र आन्द्रेई डिप्थीरिया से मर गया। डॉक्टर की पत्नी गहरे शोक व निराशा के पहले दौर में बच्चे के पलंग के पास घुटनों के बल बैठी ही थी जब दरवाज़े की घण्टी कर्कश स्वर में खनखना उठी।

डिप्थीरिया की छूत के कारण घर के नौकर सबेरे ही घर से बाहर भेज दिये गये थे। किरीलोव, जैसा था वैसे ही, सिर्फ़ क़मीज़ पहने वास्कट के बटन खोले, अपना गीला चेहरा और कारबोलिक से झुलसे हाथ पोंछे बिना, दरवाज़ा खोलने चल दिया। ड्योढ़ी में अँधेरा था और डॉक्टर आगन्तुक का जो कुछ देख पाया वह था औसत क़द, सफ़ेद गुलूबन्द, बड़ा और इतना पीला पड़ा चेहरा कि लगता था कि कमरे में उससे रोशनी आ गयी हो…

“क्या डॉक्टर घर पर है?” आगन्तुक ने जल्दी से पूछा।

“हाँ, मैं घर पर ही हूँ,” किरीलोव ने जवाब दिया, “आप क्या चाहते हैं?”

“ओह! आपसे मिलकर ख़ुशी हुई!” उस व्यक्ति ने प्रसन्न होकर अँधेरे में डॉक्टर का हाथ टटोलते हुए और उसे पाने पर अपने दोनों हाथों से ज़ोर से दबाकर कहा – “बहुत… बहुत ख़ुशी हुई! हम पहले मिल चुके हैं। मेरा नाम अबोगिन… गर्मियों में ग्नुचेव परिवार में आपसे मिलने का सौभाग्य हुआ था। आपको घर पर पाकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई… ईश्वर के लिए कृपा करके फ़ौरन मेरे साथ चलें… मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ… मेरी पत्नी बहुत सख़्त बीमार पड़ी है… मैं गाड़ी लाया हूँ…”

      आगन्तुक के हाव-भाव और आवाज़ से लग रहा था कि वह बहुत घबराया हुआ है। उसकी साँस तेज़ी से चल रही थी और वह तेज़ी से काँपती हुई आवाज़ में बोल रहा था, मानो वह कहीं किसी पागल कुत्ते या आग से बचकर भागता आ रहा हो, और उसकी बात में साफ़दिली और बच्चों जैसे सहमेपन का पुट था। वह छोटे अधपूरे जुमले बोल रहा था, जैसा कि आशंकित और अभिभूत लोग करते हैं और बहुत-सी ऐसी फ़ालतू बातें कह रहा था जिनका मामले से कोई सम्बन्ध नहीं था।

“मुझे डर था कि आप घर पर न मिलेंगे,” उसने कहना जारी रखा। “यहाँ आने तक, सारे रास्ते-भर में यन्त्रणा और व्यथा से घिरा रहा…ईश्वर के लिए, आप अपना कोट पहन लें और चलें…यह सब हुआ इस तरह कि पापचिंस्की – आप उसे जानते हैं, अलेक्सान्द्र सेम्योनिविच पापचिंस्की मुझसे मिलने आया। थोड़ी देर हम लोग बैठे बातें करते रहे…फिर मेज़ पर जमकर चाय पी। यकायक मेरी पत्नी चीख़़ी और दिल पर हाथ रखकर कुर्सी पर पसर गयी। हम लोग उसे उठाकर पलंग पर ले गये और…मैंने उनकी कनपटियों पर अमोनिया मला और उसके मुँह पर पानी छिड़का…पर वह बिल्कुल स्तब्ध पड़ी रही, बिल्कुल मरी-सी… मुझे डर है कहीं उसका दिल बढ़ न गया हो… आप चलें… उसके पिता की मौत दिल के बढ़ जाने से हुई थी…”

किरीलोव चुपचाप सुनता रहा मानो वह रूसी भाषा ही न समझता हो।

जब अबोगिन ने फिर पापचिंस्की और अपनी पत्नी के पिता का ज़िक्र किया और अँधेरे में फिर उसका हाथ ढूँढ़ना शुरू किया, तब उसने सिर उठाया और उदासीन भाव से हर शब्द को लम्बा खींचते हुए कहा:

“मुझे खेद है कि मैं आपके घर नहीं जा सकूँगा… पाँच मिनट पहले मेरा लड़का… मर गया…”

“अरे, नहीं!” पीछे को हटते हुए अबोगिन फुसफुसाया। “हे ईश्वर, मैं किस ग़लत मौक़े पर आया! कैसा अभागा दिन है यह… वाक़ई यह कैसी अजब बात है! कैसा संयोग है यह… कौन सोचता था!”

उसने दरवाज़े का हत्था पकड़ लिया, उसका सिर झुका हुआ था, मानो चिन्तामग्न हो। स्पष्टतः वह निश्चय नहीं कर पा रहा था कि वह लौट जाये या डॉक्टर की आरज़ू-मिन्नत जारी रखे।

किरीलोव की बाँह पकड़ वह लालसा से बोला:

“मैं आपकी हालत बख़ूबी समझता हूँ! ईश्वर जानता है कि मैं ऐसे वक़्त आपका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करने के लिए कितना शर्मिन्दा हूँ, पर मैं क्या करूँ? आप ही सोचें, मैं कहाँ जाऊँ? इस जगह आपके सिवा और कोई डॉक्टर नहीं है। आप चलें, ईश्वर के लिए चलें! मैं अपने लिए अनुनय नहीं कर रहा… बीमार मैं नहीं हूँ!”

ख़ामोशी छा गयी। किरीलोव अबोगिन की ओर पीठ फेरकर एक-दो मिनट चुपचाप खड़ा रहा और फिर ड्योढ़ी से धीरे-धीरे बैठक में चला गया। उसकी अनिश्चित यन्त्रवत चाल, बैठक में अनजले लैम्प-शेड की झालर सीधी करने और मेज़ पर पड़ी एक मोटी किताब के पन्ने पलटने के खोये-खोये ढंग से लग रहा था कि उस समय न उसकी कोई इच्छा थी, न इरादा था, न वह कुछ सोच रहा था। वह शायद बिल्कुल भूल गया था कि बाहर ड्योढ़ी में कोई अजनबी भी खड़ा है। कमरे के सन्नाटे और धुँध में उसकी विमूढ़ता बढ़ती लगती थी। बैठक से अपने कक्ष की ओर बढ़ते हुए उसने अपना दाहिना पैर ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचा उठा लिया और फिर दरवाज़े की चौखट टटोलने लगा; उसकी पूरी आकृति से एक तरह का भौचक्कापन प्रकट हो रहा था, मानो वह किसी अनजाने मकान में चला आया हो या ज़िन्दगी में पहली बार नशा कर लिया हो और अब नशे में विमूढ़ हो गयी तरंग में बह रहा हो। रोशनी की एक चौड़ी पट्टी कक्ष की एक दीवार व किताबों की अलमारियों पर पड़ रही थी। यह रोशनी कारबोलिक व ईथर की तीखी व भारी गन्ध के साथ सोने वाले कमरे से आ रही थी, जिसका दरवाज़ा ज़रा-सा खुला हुआ था…डॉक्टर मेज़ के पास वाली कुर्सी में धँस गया। थोड़ी देर वह रोशनी में पड़ी किताबों की ओर उनींदा-सा घूरता रहा, फिर उठकर सोने वाले कमरे में चला गया।

यहाँ, सोने वाले कमरे में मौत का-सा सन्नाटा था। यहाँ की छोटी से छोटी चीज़ भी उस तूफ़ान का सबूत दे रही थी जो बिल्कुल हॉल में आया था और अब थककर चूर हो गया था। यहाँ पूर्ण विश्रान्ति थी। बोतलों, बक्सों व मर्तबानों से भरी तिपाई पर एक मोमबत्ती और अलमारी पर रखा एक बड़ा लैम्प पूरे कमरे को रोशन कर रहे थे। खिड़की के ठीक पास पलंग पर एक बालक लेटा था जिसकी आँखें खुली थीं और चेहरे पर आश्चर्य का भाव था। वह बिल्कुल हिल-डुल नहीं रहा था पर उसकी खुली आँखें क्षण-क्षण काली पड़ती और माथे में गहरी धँसती जा रही लगती थीं। उसके शरीर पर हाथ रखे, बिस्तर में मुँह छिपाये माँ पलंग के पास झुकी बैठी थी। बच्चे की तरह वह भी निश्चल थी, पर उसके शरीर की गोलाइयों और भुजाओं में कैसी गति छिपी थी! पलंग से वह पूरी तरह से चिपटी हुई थी, सारे शरीर को उससे इस शक्ति व उत्सुकता के साथ दबाये हुए थी मानो थकान भरे शरीर ने जो शान्त तथा विश्राममय मुद्रा अन्ततः धारण कर ली थी, उसमें व्याघात पहुँचाने से वह डर रही हो। कम्बल, कपड़े के टुकड़े, चिलमची, फ़र्श पर पानी, इधर-उधर बिखरे ब्रश और चम्मच, चूने के पानी की सफ़ेद बोतल, घुटी-घुटी भारी हवा तक – सभी चीज़ें गम्भीर शान्ति में लय, विश्राम करती लग रही थीं।

डॉक्टर अपनी पत्नी की बग़ल में आ खड़ा हुआ, पतलून की जेबों में हाथ डालकर और सिर एक ओर झुकाकर वह अपने बेटे की ओर ताकने लगा। उसके चेहरे से उदासीनता टपक रही थी और सिर्फ़ दाढ़ी पर चमक रही बूँदें ही इस बात का पता दे रही थीं कि वह अभी रोया है।

सोने के कमरे में मृत्यु के विचार से सम्बद्ध भयानकता और वीभत्सता का सर्वथा अभाव था। वहाँ छायी हुई निस्तब्धता, माँ की मुद्रा, पिता की आकृति पर अंकित उदासीनता के भाव में कुछ बड़ी आकर्षक, मर्मस्पर्शी, मानव शोक की वह बड़ी सूक्ष्म अदृश्य सुन्दरता थी जिसे समझना और वर्णन करना लोग जल्दी नहीं सीखेंगे, जो सम्भवतः केवल संगीत द्वारा ही अभिव्यक्त की जा सकती है। और उस उदास निस्तब्धता में भी सौन्दर्य था। किरीलोव और उसकी पत्नी ने कुछ नहीं कहा, वे रोये नहीं मानो दुख की गुरुता के साथ ही उन्हें उस स्थिति के कवित्व का भी आभास हो रहा हो। जैसे अपने समय से उनका यौवन विदा हुआ था वैसे ही इस बालक के साथ उनका सन्तान पाने का अधिकार भी विदा ले गया था। डॉक्टर की उम्र चवालीस वर्ष की थी, उसके बाल अभी से सफ़ेद हो गये थे और बूढ़ा लगता था। उसकी रुग्ण, मुरझायी हुई पत्नी पैंतीस वर्ष की थी। आन्द्रेई उनका एकमात्र ही नहीं, अन्तिम सन्तान भी था।

अपनी पत्नी के विपरीत, डॉक्टर उस स्वभाव के व्यक्तियों में से था जो मानसिक कष्ट के समय कुछ कर डालने की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पत्नी के पास कुछ मिनट खड़े रहने के बाद वह सोने के कमरे से निकल आया, उसी तरह दाहिना पैर ज़रूरत से ज़्यादा उठाते हुए, और एक छोटे से कमरे में गया जो एक सोफ़े से ही आधा-भर गया था। वहाँ से वह रसोई में गया। अलावघर और रसोइये के पलंग के पास टहलते हुए वह झुककर एक छोटे दरवाज़े से होकर ड्योढ़ी में निकल आया।

यहाँ उसकी सफ़ेद गुलूबन्द और फीके पड़े चेहरे वाले व्यक्ति से फिर मुठभेड़ हो गयी।

“आखि़रकार!” दरवाज़े के हत्थे पर हाथ रखते हुए अबोगिन ने लम्बी साँस लेकर कहा – “चलिये, मेहरबानी करके चलिये!”

डॉक्टर चौंक पड़ा, उसकी ओर देखा और उसे याद आ गया…

“लेकिन मैंने आपसे कह दिया था कि मैं जा न सकूँगा!” यकायक फिर इस दुनिया में लौटते हुए उसने कहा, “कैसी अजब बात है…”

अपने गुलूबन्द पर हाथ रखते हुए और मिन्नत भरी आवाज़ में अबोगिन बोला – “डॉक्टर! मैं पत्थर की मूरत नहीं हूँ, मैं आपकी हालत अच्छी तरह समझता हूँ… मुझे आपसे सहानुभूति है। पर मैं आपसे अपने लिए अनुनय-विनय नहीं कर रहा हूँ। मेरी पत्नी मर रही है! यदि आपने उसकी वह चीख़़ सुनी होती, उसका वह चेहरा देखा होता, तो आप मेरे हठपूर्ण अनुरोध को समझ सकते! हे भगवान, और मैं सोच रहा था कि आप कपड़े पहनने गये हैं। डॉक्टर, वक़्त बहुत क़ीमती है! आप चलें, मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ!”

बैठक की ओर बढ़ते हुए डॉक्टर ने एक-एक शब्द का स्पष्ट उच्चारण करते हुए कहा – “मैं आपके साथ नहीं जा सकता!”

अबोगिन उसके पीछे-पीछे गया और उसकी बाँह पकड़ ली।

“आप बहुत दुखी हैं, मैं समझ रहा हूँ, पर मामूली दाँत के दर्द के इलाज या किसी बीमारी के लक्षण पूछने-भर के लिए तो मैं आपसे चलने का अनुरोध कर नहीं रहा,” वह याचना भरे स्वर में बोला। “मैं एक इंसान की ज़िन्दगी बचाने के लिए कह रहा हूँ, यह ज़िन्दगी व्यक्तिगत शोक के ऊपर है! अब आप चलें, मानवता के नाम पर मैं आपसे धैर्य और वीरता दिखाने को कह रहा हूँ!”

“मानवता – वह तो दुधारी तलवार है,” किरीलोव ने झुँझलाकर कहा, “इसी मानवता के नाम पर मैं आपसे कहता हूँ कि मुझे न ले जाइये। अजब बात है, सचमुच! यहाँ मेरे लिए खड़ा होना दुभर हो रहा है और आप हैं कि मुझे ‘मानवता’ शब्द की धमकी दे रहे हैं। इस वक़्त मैं कोई काम करने के क़ाबिल नहीं हूँ…किसी तरह भी मैं जाने को राजी नहीं हो सकता; और फिर यहाँ कोई है भी नहीं, जिसे मैं अपनी बीवी के पास छोड़ जाऊँ। नहीं, नहीं…”

किरीलोव एक क़दम पीछे हट गया और हाथ हिलाते हुए इन्कार करने लगा।

“आप मुझे जाने को न कहें,” फिर एकदम घबराकर बोला, “मुझे माफ़ करें…आचरण संहिता के तेरहवें खण्ड के अनुसार मैं आपके साथ जाने को बाध्य हूँ, और आपको अख़्तियार है कि मेरे कोट का गला पकड़कर मुझे घसीट ले जायें…अच्छी बात है, आप यही करें, पर…मैं कोई भी काम करने के क़ाबिल नहीं हूँ…मैं बोल भी नहीं सकता…मुझे माफ़ करें…”

“डॉक्टर, आप ऐसा न करें,” उसकी बाँह से चिपके-चिपके ही अबोगिन ने कहा। “मुझे तेरहवें खण्ड से क्या लेना-देना? आपकी इच्छा के विरुद्ध चलने के लिए आपको मजबूर करने का मुझे कोई हक़ नहीं। अगर आप चलने को राजी हैं, तो ठीक; अगर नहीं तो मजबूरी है, मेरी अपील आपके दिल से है। एक युवती मर रही है! आप कहते हैं कि आपका बेटा अभी मरा है – तब तो औरों से ज़्यादा आपको मेरी वेदना समझनी चाहिए।”

घबराहट से अबोगिन की आवाज़ काँप रही थी। उसकी आवाज़ की कँपकँपी और लहज़े में शब्दों की अपेक्षा मनाने की अधिक शक्ति थी। अबोगिन के शब्दों में सच्चाई थी लेकिन उल्लेखनीय बात यह थी कि उसके सब जुमले ऐंठे, रूखे, ग़ैरज़रूरी तड़क-भड़क वाले और डॉक्टर के घर के वातावरण व कहीं दूर मरती हुई महिला दोनों के लिए खटकने वाले अनादर से भरे मालूम पड़ते थे। उसे ख़ुद भी यही लग रहा था और इस डर से कि कहीं उसकी बात समझी न जा सके, अपनी आवाज़ को नम्र और अनुनयभरी बनाने की भरसक चेष्टा कर रहा था ताकि यदि शब्दों से काम न चले तो आवाज़ की साफ़दिली ही उसका उद्देश्य पूरा कर दे। यह कहा जा सकता है कि शब्द और वाक्य चाहे कितने सुन्दर व सारगर्भित क्यों न हों, केवल उन्हीं को प्रभावित कर पाते हैं जो उदासीन हैं, जो प्रसन्न या शोकाकुल हैं उन्हें नहीं। इसीलिए सुख और दुख की चरम अभिव्यक्ति बहुधा मौन में होती है। प्रेमी जब मूक होते हैं तभी एक-दूसरे को ज़्यादा अच्छी तरह समझते हैं और क़ब्र पर दिये गये ओजस्वी भाषण बाहर वालों का ही हृदय स्पर्श कर पाते हैं, मृतक के बच्चों व विधवा को वह निष्प्रेम व तुच्छ ही लगते हैं।

किरीलोव चुपचाप खड़ा रहा। अबोगिन फिर डॉक्टरी के पेशे व उसके त्याग तपस्या आदि के सम्बन्ध में बोला। डॉक्टर ने रुखाई के साथ पूछा:

“क्या बहुत दूर जाना होगा?”

“बस यही तेरह या चौदह मील। मेरे घोड़े बहुत बढ़िया हैं, डॉक्टर! ईमान की क़सम, वे घण्टे-भर में आपको वापस पहुँचा देंगे, सिर्फ़ एक घण्टे में!”

डॉक्टर पर डॉक्टरी के पेशे और मानवता के सम्बन्ध में कहे गये जुमलों से ज़्यादा असर इन आखि़री शब्दों का पड़ा। एक क्षण सोचने के बाद उसने उसास भरकर कहा:

“अच्छा! चलो चलें!”

वह तेज़ी से कक्ष में घुसा। अब उसकी चाल स्थिर थी; क्षण-भर में ही वह फ्रॉक कोट डालकर वापस लौट आया। अबोगिन छोटे-छोटे डग भरते हुए उसकी बग़ल चलने लगा और कोट पहनने में उसकी मदद करने लगा, फिर दोनों साथ-साथ घर से बाहर निकले।

बाहर अँधेरा था, पर इतना गहरा नहीं जितना भीतर ड्योढ़ी में था। लम्बे, झुके हुए, लम्बी टेढ़ी नाक और लम्बी नुकीली दाढ़ी वाले डॉक्टर की आकृति अँधेरे की पृष्ठभूमि में भी साकार थी। मुरझाये हुए चेहरे वाले अबोगिन का बड़ा सिर भी जिस पर छात्रों वाली छोटी टोपी लगी थी और जो मुश्किल से उसकी चँदिया ढँक रही थी, दिखायी दे रहा था। गुलूबन्द सिर्फ़ सामने ही सफ़ेद चमक रहा था, पीछे वह उसके लम्बे बालों से ढँका हुआ था।

“आप यक़ीन माने आपकी उदारता की क़द्र करना मैं जानता हूँ।” गाड़ी में डॉक्टर को बैठाते हुए वह बुदबुदाया, “हम लोग वहाँ अभी पहुँचते हैं। लुका, प्यारे! तुम जितनी तेज़ी से हाँक सकते हो, हाँको! मेहरबानी करके, हाँको!”

कोचवान ने घोड़े दौड़ा दिये। पहले इन लोगों को अस्पताल के अहाते की बदनुमा इमारतों की क़तार मिली। इमारतें अँधेरे में थीं, सिर्फ़ अहाते की बिल्कुल कोने वाली इमारत के सामने बग़ीचे में खिड़की से तेज़ रोशनी आ रही थी और अस्पताल की इमारत की ऊपर की मंज़िल की तीन खिड़कियों के शीशे आसपास से ज़्यादा पीले लग रहे थे। अब गाड़ी बिल्कुल अन्धकार में चल रही थी; कुकुरमुत्तों की भीगी गन्ध आ रही थी और पत्तियों की सरसराहट सुनायी पड़ रही थी। पहियों की आवाज़ से जागे कौए शाखों से चौंककर शोकाकुल आवाज़ में काँव-काँव कर उठते मानो उन्हें पता हो कि डॉक्टर का लड़का मर गया है और अबोगिन की बीवी बीमार है। पर जल्दी ही पेड़ों की क़तारें ख़त्म हो गयीं और इक्का-दुक्का पेड़ और फिर झाड़ियाँ सपाटे से गुज़रने लगीं। एक पोखरा जिसकी सतह पर बड़ी-बड़ी काली परछाईंयाँ पड़ रही थीं, उदासी से झिलमिला रहा था; गाड़ी खुले मैदान में खड़खड़ाती जा रही थी। कौवों की काँव-काँव खोखली पड़ती जा रही थी और धीरे-धीरे वह भी ख़त्म हो गयी।

क़रीब रास्ते-भर किरीलोव और अबोगिन चुप रहे। अबोगिन सिर्फ़ एक बार गहरी साँस लेकर बड़बड़ाया:

“कैसी दारुण परिस्थिति है! जो आत्मीय हैं, उन पर इतना प्रेम कभी नहीं उमड़ता जितना तब जब उन्हें खो बैठने पर डर पैदा हो जाता है।”

फिर जब नदी पार करने के लिए गाड़ी धीमी हुई किरीलोव यकायक चौंक पड़ा मानो पानी की छपछप ने उसे चौंका दिया हो और अपने स्थान से हिलकर उदास लहज़े में बोला:

“देखिये, मुझे जाने दीजिये। मैं बाद में आ जाऊँगा। मैं सिर्फ़ अपने सहकारी को अपनी पत्नी के पास भेजना चाहता हूँ। वह तो बिल्कुल ही अकेली रह गयी है, न!”

अबोगिन ने कुछ नहीं कहा। नदी के तल में पड़े पत्थरों से पहियों के लड़ने से गाड़ी डगमगायी और रेतीले किनारे पर निकलकर आगे बढ़ गयी। सन्तप्त किरीलोव बेचैनी से कुलबुलाता और अपने आसपास झाँकता। सितारों की हल्की रोशनी में, रास्ता और नदी के किनारे की बेंत के झाड़ अँधेरे में ग़ायब होते दिखायी पड़ते। दाहिनी ओर मैदान फैला था, आकाश की तरह निस्सीम और समतल। वहाँ दूरी पर छुटपुट रोशनियाँ झिलमिला रही थीं जो शायद दलदल की सड़ी घास से चमक रही थीं। बायीं ओर, रास्ते के समानान्तर एक पहाड़ था, जो झाड़ियों के कारण झबरा लग रहा था और जिस के ऊपर बड़ा, लाल हँसिया-सा चाँद स्थिर रूप से लटका हुआ था, कुहरे से वह कुछ धुँधला लग रहा था और उसके चारों तरफ़ छोटी-छोटी बदलियाँ घिरी हुई थीं, मानो उसे चारों ओर से देख उस पर पहरा दे रही हों कि वह कहीं चला न जाये।

पूरी प्रकृति निराशा और रोग से व्याप्त मालूम पड़ती थी। अँधेरे कमरे में अकेली बैठी पतित स्त्री की तरह जो अपना विगत भुलाने की कोशिश कर रही हो, पृथ्वी वसन्त और ग्रीष्म की स्मृतियों से परेशान हो अनिवार्य शरद की उपेक्षापूर्ण प्रतीक्षा में थी। जिधर भी निगाह जाती प्रकृति अँधेरा, असीम गहरा, ठण्डा गड्ढा मालूम पड़ती जिसमें से न किरीलोव, न अबोगिन और न लाल चाँद का हँसिया कभी भी उबर सकेंगे…

गाड़ी जैसे-जैसे गन्तव्य स्थान के पास पहुँचती जाती, अबोगिन उतना ही धैर्यहीन होता जाता। वह उठता, बैठता, चौंककर उछल पड़ता, आगे कोचवान के कन्धे के ऊपर से ताकता। अन्ततः गाड़ी जब धारीदार किरमिच के परदे से रुचिपूर्ण ढंग से सजे ओसारे में जाकर रुकी, उसने जल्दी और ज़ोर से साँसें लेते हुए दूसरी मंज़िल की खिड़कियों की ओर ताका जिनसे रोशनी आ रही थी।

“अगर कुछ हो गया तो… मैं बरदाश्त न कर पाऊँगा,” उसने डॉक्टर के साथ ड्योढ़ी की ओर बढ़ते और घबराहट में हाथ मलते हुए कहा। “पर परेशानी प्रकट करने वाली कोई आवाज़ तो सुनायी नहीं पड़ती, इसलिए अब तक सब कुछ ठीक ही होगा,” सन्नाटे में कुछ सुन पाने के लिए कान लगाये, वह बोला।

ड्योढ़ी में बोलने या क़दमों की आवाज़ भी नहीं सुनायी पड़ रही थी और पूरा घर तेज़ रोशनी के बावजूद सोया हुआ लग रहा था। अभी तक अँधेरे में रहने के बाद किरीलोव और अबोगिन अब एक-दूसरे को अच्छी तरह देख सकते थे। डॉक्टर लम्बा, झुके कन्धों वाला था और बेपरवाही से भौंड़े कपड़े पहने था। वह सुन्दर नहीं था। उसके मोटे, कुछ-कुछ हबशियों जैसे होंठ, लम्बी टेढ़ी नाक और आलस्य व उपेक्षा भरी निगाह में कुछ ऐसा था जो कठोर, रूखा, निष्ठुर लगता था। उसके बेकढ़े बाल, धँसी हुई कनपटी, लम्बी नुकीली दाढ़ी की असमय सफ़ेदी, जिसमें से बीच-बीच में उसकी ठुड्डी झलकती थी, उसकी त्वचा का मिट्टी जैसा फीकापन, उसका बेढ़ंगा और लापरवाही भरा बरताव – सभी जीवन तथा लोगों से, ऊब, ग़रीबी और आवश्यकताओं की पूर्तिहीनता प्रकट करते थे। उसकी भावहीन आकृति से यह प्रकट नहीं होता था कि इस शख़्स के भी पत्नी है और वह अपने बच्चे के लिए रो भी सकता है। अबोगिन बिल्कुल भिन्न था। वह हट्टा-कट्टा सुनहरे बालों वाला आदमी था, उसका सिर बड़ा था और नाक-नक़्शा बड़ा, पर मुलायम था, वह बिल्कुल नये फ़ैशन के कपड़े बड़े सुन्दर ढंग से पहने हुए था। उसकी चाल-ढाल में कुलीनता थी। उसके बड़े-बड़े बालों की लटों, उसके चेहरे और कसकर बन्द किये गये फ्रॉक कोट से कुछ-कुछ शेर जैसी बात लगती थी। वह चलता तो सिर उठाकर, सीना आगे निकालकर और बड़ी भली लगने वाली भारी आवाज़ में बोलता। जिस ढंग से उसने गुलूबन्द उतारा और बालों पर हाथ फेरा उसमें स्त्रियों जैसी सुघड़ता और छवि थी। यहाँ तक कि उसकी उदासी व पीलेपन और ओवरकोट उतारते हुए सीढ़ियों की ओर बच्चों जैसी झिझक से ताकने से भी उसके व्यक्तित्व से समृद्धि, स्वास्थ्य और आत्मविश्वास की छाप बिगड़ नहीं पाती थी।

सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसने कहा – “न कोई आवाज़ है और न कोई दिखायी ही पड़ता है, कहीं कोई हलचल खलबली भी नहीं है, ईश्वर करे…”

अबोगिन डॉक्टर को ड्योढ़ी से होते हुए हॉल में ले गया जहाँ एक पियानो की काली आकृति दिखायी पड़ रही थी और छत से ढीले सफ़ेद आवरण में फानूस लटक रहा था। यहाँ से वे एक छोटे दीवानख़ाने में गये जो आरामदेह और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था और जिसमें एक तरह की गुलाबी कान्ति झिलमिला रही थी।

“डॉक्टर! आप यहाँ बैठें और प्रतीक्षा करें,” अबोगिन बोला, “मैं अभी एक मिनट में आता हूँ। मैं जाकर देख लूँ और बता दूँ कि आप आ गये हैं।”

किरीलोव अकेला रह गया। दीवानख़ाने की विलासिता, मधुर सान्ध्य प्रकाश, अजनबी अनजाने घर में उसकी मौजूदगी जो स्वयं अपने में एक उल्लेखनीय घटना थी, इन सबका उस पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं लग रहा था। वह एक आरामकुर्सी पर बैठ गया और कारबोलिक के निशान पड़ी अपनी उँगलियों की ओर देखने लगा। उसने लाल लैम्प-शेड और वायलिन के केस की ओर हल्की निगाह दौड़ायी और टिक-टिक करती घड़ी की ओर देखकर उसने एक भेड़िया ज़रूर देख लिया जिसको मारकर खाल भर दी गयी थी जो अबोगिन की तरह ही भारी-भरकम और खाया-पिया मालूम पड़ता था।

सब ओर शान्ति थी…दूर, किसी दूसरे कमरे में किसी ने ज़ोर से आह भरी, किसी अलमारी का शीशे का दरवाज़ा झनझनाया और फिर शान्ति छा गयी। कोई पाँचेक मिनट के बाद किरीलोव ने हाथों की ओर निहारना छोड़ उस दरवाज़े की ओर देखा जिससे अबोगिन गया था।

अबोगिन दरवाज़े में खड़ा था, पर वह अब वही अबोगिन नहीं था जो कमरे से गया था। उसकी परिष्कृत सुघड़ता और खाया-पिया होने की छवि उसे दग़ा दे गयी थी। उसके चेहरे, हाथों व मुद्रा पर एक विरक्ति का भाव अंकित था जो मानो भय था या शारीरिक कष्ट। उसकी नाक, होंठ, मूँछें, उसका सारा चेहरा फड़क रहा था, मानो वे उसके चेहरे से फूटकर अलग निकल पड़ना चाहते हों, उसकी आँखों में पीड़ा की चमक थी…

लम्बे भारी डग भरता हुआ वह दीवानख़ाने के बीच आ खड़ा हुआ, फिर आगे झुककर मुट्ठियाँ बाँधते हुए कराहा।

“वह मुझे दग़ा दे गयी!” ‘दग़ा’ पर ज़ोर देते हुए वह चिल्लाया। “दग़ा दे गयी! मुझे छोड़कर भाग गयी! बीमार पड़ी और मुझे डॉक्टर लाने भेजा सिर्फ़ इसलिए कि वह उस बन्दर पापचिंस्की के साथ भाग जाये! हे भगवान!”

अबोगिन भारी क़दम भरता हुआ डॉक्टर के पास तक चला आया और उसके चेहरे के पास अपना भरा, सफ़ेद घूँसा हिलाता हुआ चिल्लाया:

“मुझे छोड़ गयी!! दग़ा दे गयी! यह सब झूठ क्यों?! हे भगवान! ही भगवान! यह गन्दी, फ़रेब भरी चालबाज़ी क्यों, यह शैतानियत भरा धोखे का खेल क्यों? मैंने उसका क्या बिगाड़ा था? वह मुझे छोड़ गयी!”

आँसू उसके गालों पर छलक आये। वह मुड़ा और दीवानख़ाने में इधर-उधर टहलने लगा। छोटे फ्रॉक कोट व फ़ैशनेबुल चुस्त पतलून में जिससे बड़े बालों वाले भारी सिर वाले उसके जिस्म के मुक़ाबले उसकी टाँगें बहुत पतली मालूम पड़ती थीं, वह अब और भी ज़्यादा शेर की तरह लग रहा था। डॉक्टर के उदासीन चेहरे पर जिज्ञासा की झलक आयी, वह उठ खड़ा हुआ और अबोगिन की ओर देखता हुआ बोला:

“पर मरीज़ कहाँ है?”

“मरीज़! मरीज़!” हँसता और रोता, मुट्ठियाँ हिलाता अबोगिन चिल्लाया, “वह मरीज़ नहीं है, अधम दुष्टा है! कितना कमीनापन! कितनी कलुषता! आप सोचेंगे शैतान ख़ुद इससे ज़्यादा घिनौनी बात न सोच पाता! मुझे भेज दिया ताकि वह भाग सके, उस बन्दर, उस दलाल, उस भौंड़े भाँड के साथ भाग जाये! हे भगवान! इससे अच्छा होता कि वह मर जाती! मैं बरदाश्त नहीं कर सकूँगा, कभी नहीं!”

डॉक्टर तनकर खड़ा हो गया। उसने आँसुओं से भरी आँखें झपकायीं, उसकी नुकीली दाढ़ी भी जबड़ों के साथ बायें से दायें हिल रही थी। भौचक्का हो बोला:

“माफ़ कीजिये पर इसका मतलब क्या है? मेरा बच्चा मर गया है, मेरी पत्नी शोक से व्याकुल है, घर में अकेली है…ख़ुद मैं मुश्किल से खड़ा हो पा रहा हूँ, तीन रात से मैं सोया नहीं हूँ…और यहाँ मुझे क्या पता लगता है? मैं एक भद्दी भँड़ैत में पार्ट करने को बुलाया गया हूँ। एक तरह से स्टेज की सामग्री-भर बना दिया गया हूँ। मैं…मेरी तो समझ में नहीं आता!”

अबोगिन ने एक मुट्ठी खोली और मुड़ा-मुड़ाया पुर्जा फ़र्श पर डालकर उसे कुचल दिया, मानो वह कोई कीड़ा रहा हो जिसे वह नष्ट कर डालना चाहता था। अपने चेहरे के सामने मुट्ठी हिलाते हुए, दाँत भींचकर वह बोला:

“और मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया, कुछ समझा नहीं! मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह रोज़ मेरे यहाँ आता है, इस बात पर ग़ौर नहीं किया कि आज वह मेरे घर बग्घी में आया था। बग्घी में क्यों? मैं अन्धा और मूर्ख था जो इस बात पर सोचा तक नहीं! अन्धा और मूर्ख!” उसके चेहरे से लग रहा था मानो किसी ने उसके पैर का घट्ठा कुचल दिया हो।

डॉक्टर फिर बड़बड़ाया – “मैं…मेरी समझ में नहीं आता! इस सबका मतलब क्या है? यह तो किसी इन्सान की हिक़ारत करना हुआ, इन्सान के दुख और वेदना का मज़ाक़ उड़ाना हुआ! यह तो बिल्कुल नामुमकिन बात है…मैंने तो अपनी ज़िन्दगी में कभी ऐसी बात सुनी तक नहीं!”

भारी चौंकाहट की भावना में, उस व्यक्ति की तरह जो अब समझ रहा हो कि उसका बड़ा भारी अपमान किया गया है, डॉक्टर ने अपने कन्धे झँझोड़े और बेबसी में हाथ फैला दिये, बोलने या कुछ कर सकने में असमर्थ वह आरामकुर्सी में फिर धँस गया।

“तो तुम अब मुझे प्यार नहीं करतीं, किसी दूसरे से प्रेम करती हो – अच्छी बात है, पर यह धोखा क्यों, यह कमीनी दगाबाज़ी की हरकत क्यों?” रुआँसे स्वर में अबोगिन बोला। “इससे किसका भला होगा? और यह किया क्यों? मैंने तुम्हारा कब क्या बिगाड़ा था? डॉक्टर!” वह आवेग में किरीलोव के पास जाता हुआ चिल्लाया – “आप मेरे दुर्भाग्य के अवश बन गये साक्षी हैं और मैं आपसे सच बात नहीं छिपाऊँगा। मैं क़सम खाता हूँ, उस औरत से मैं मुहब्बत करता था, मैं उसकी पूजा करता था, मैं उसका ग़ुलाम था! मैंने उसके लिए हर चीज़ की क़ुर्बानी की – अपने रिश्तेदारों से झगड़ा किया, नौकरी छोड़ दी, संगीत का अपना शौक़ छोड़ दिया, उन बातों के लिए उसे माफ़ कर दिया जिनके लिए मैं अपनी माँ या बहन को माफ़ न करता…मैंने उसकी ओर कभी कड़ी निगाह से ताका तक नहीं… मैंने कभी उसे बुरा मानने का ज़रा-सा मौक़ा नहीं दिया! यह सब झूठ और फ़रेब है क्यों? अगर तुम मुझे प्यार नहीं करतीं तो ऐसा साफ़-साफ़ कह क्यों नहीं दिया – इन सब मामलों में तुम मेरी राय जानती थीं…”

आँखों में आँसू भरे, काँपते हुए, अबोगिन ने ईमानदारी से अपना दिल डॉक्टर के सामने खोलकर रख दिया। वह भावोद्रेक से आवेग में बोल रहा था, सीने से हाथ लगाये हुए, बिना किसी झिझक के वह गोपनीय घरेलू बातें बता रहा था, वास्तव में, एक तरह से आश्वस्त-सा होता हुआ कि आखि़रकार ये गोपनीय बातें अब खुल गयीं। अगर इसी तरह वह घण्टे-भर और बोल लेता, अपने दिल की बात कह लेता, गुबार निकाल लेता तो इसमें संशय नहीं कि वह बेहतर महसूस करने लगता। कौन जाने, अगर डॉक्टर दोस्ताना हमदर्दी से उसकी बातें सुन लेता, शायद, जैसा कि अक्सर होता है, वह ना-नुकर किये बिना और अनावश्यक ग़लतियाँ किये बग़ैर ही अपने प्रारब्ध से सन्तुष्ट हो जाता…पर हुआ कुछ और ही। जब अबोगिन बोल रहा था, अपमानित डॉक्टर के चेहरे पर एक परिवर्तन होता दिखायी दिया। उसके चेहरे पर जो उदासीनता और स्तब्धता का भाव था वह मिट गया और उसकी जगह क्रोध, घोर अपमान और रोष ने ले ली। उसका चेहरा और भी कठोर, अप्रिय व हठपूर्ण हो गया। अबोगिन ने जब उसे घोर धार्मिक पादरिनों जैसे रूखे व भावशून्य चेहरे वाली एक सुन्दर नवयुवती का फ़ोटो दिखाते हुए पूछा कि क्या कोई यक़ीन कर सकता है कि इस चेहरे वाली औरत झूठ बोल सकती है, डॉक्टर यकायक झटके से खड़ा हो गया, उसकी आँखों में एक वहशियाना चमक आ गयी और हर लफ़्ज़ पर ज़ोर देते हुए वह रुखाई से बोला:

“आप मुझे यह सब क्यों बता रहे हैं? मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है, मैं यह सब नहीं सुनूँगा!” वह मेज़ पर हाथ पटककर चिल्लाने लगा था, “मुझे आपके ओछे रहस्यों की कोई ज़रूरत नहीं है! बुरा हो उनका! मुझसे ऐसी निजी बातें करने की हिम्मत भी न करना! शायद आप समझते हैं कि मेरा अभी तक काफ़ी अपमान नहीं हुआ? आप मुझे अपना नौकर समझते हैं जिसका आप अपमान कर सकते हैं? क्यों, है न?”

अबोगिन किरीलोव के पास से पीछे हट गया और स्तम्भित हो उसकी ओर देखने लगा।

“आप मुझे यहाँ लाये क्यों?” डॉक्टर कहता गया, उसकी दाढ़ी हिल रही थी। “आपने शादी की क्योंकि इससे ज़्यादा अच्छा कोई और काम आपको था नहीं, और इसीलिए आप अपना ओछा नाटक मनमाने ढंग से खेलते रहें, पर मुझे इससे क्या लेना-देना? मुझे आपके प्यार-मुहब्बत से क्या सरोकार? मुझे तो चैन से छोड़ दो! आप अपनी सभ्य मुक्केबाज़ी कीजिये, अपने मानवतावादी विचार बघारिये, (वायलिन केस की ओर कनखियों से देखते हुए) अपने बाजे बजाइये, मुर्गे़ की तरह मुटाइये, लेकिन लोगों का अपमान करने की हिम्मत न कीजिये! अगर आप उनका सम्मान नहीं कर सकते तो उनसे अलग ही रहिये, बस!”

अबोगिन का चेहरा लाल हो गया, उसने पूछा:

“इसका मतलब क्या है?”

“इसका मतलब यह है कि लोगों के साथ यह कमीना और कुत्सित खिलवाड़ है! मैं डॉक्टर हूँ, आप डॉक्टरों को, बल्कि हर ऐसा काम करने वालों को, जिसमें इत्र और वेश्यावृत्ति की गन्ध नहीं आती, नौकर, बदमाश क़िस्म का आदमी समझते हैं, आप समझें; पर दुखी व्यक्ति को नाटक की सामग्री समझने का आपको कोई अधिकार नहीं है!”

अबोगिन का चेहरा ग़ुस्से से फड़क रहा था, उसने हलके से पूछा – “मुझसे ऐसी बात करने की आपकी हिम्मत कैसे हुई?”

मेज़ पर फिर घूँसा मारते हुए डॉक्टर चिल्लाया – “मेरा दुख जानते हुए, अपनी अनाप-शनाप बातें सुनाने के लिए मुझे यहाँ लाने की हिम्मत आपको कैसे हुई? दूसरे के दुख का मखौल करने का हक़ आपको किसने दिया?”

अबोगिन चिल्लाया – “आप ज़रूर पागल हैं! कैसी निर्दयता है! मैं ख़ुद कितना अधिक दुखी हूँ…और…और…”

नफ़रत से मुस्कुराकर डॉक्टर ने कहा – “दुखी! आप इस शब्द का प्रयोग न कीजिये, इसका आपसे कोई वास्ता नहीं। जो निकम्मे आवारा क़र्ज़ नहीं ले पाते वे भी अपने को दुखी कहते हैं। मुटापे से परेशान मुर्ग़ा भी दुखी होता है। ओछे आदमी!”

ग़ुस्से से पिपियाते हुए अबोगिन ने कहा – “जनाब, अपने को भूल रहे हैं! ऐसी बातों का जवाब लातों से दिया जाता है। समझें?”

अबोगिन ने जल्दी से अन्दर की जेब टटोलकर उसमें से नोटों की एक गड्डी निकाली और उसमें से दो नोट निकालकर मेज़ पर पटक दिये। नथुने फड़काते हुए उसने कहा:

“यह रही आपकी फ़ीस, आपके दाम अदा हो गये!”

नोटों को ज़मीन पर फेंकते हुए डॉक्टर चिल्लाया:

“मुझे रुपये देने की गुस्ताख़ी न कीजिये! अपमान रुपये से नहीं धुल सकता!”

अबोगिन और डॉक्टर एक-दूसरे से ग़ुस्से में ऐसी अपमानजनक बातें कहने लगे जो अनुचित थीं। उन दोनों ने जीवन-भर शायद सन्निपात में भी कभी इतनी अनुचित, निर्दयतापूर्ण और बेहूदी बातें नहीं कही थीं। दोनों में वेदनाजन्य अहं जाग गया था। जो वेदना में होते हैं उनका अहं बहुत बढ़ जाता है; वे क्रोधी, नृशंस और अन्यायी हो जाते हैं; वे एक-दूसरे को समझने में मूर्खों से भी ज़्यादा असमर्थ होते हैं। दुर्भाग्य लोगों को मिलाने की जगह अलग करता है, और जब कि यह समझा जाता है कि एक ही तरह का दुख पड़ने पर लोग एक-दूसरे के निकट आयेंगे, वास्तविकता यह है कि ऐसे लोग अपेक्षाकृत सन्तुष्ट लोगों से बहुत ज़्यादा नृशंस व अन्यायी साबित होते हैं।

डॉक्टर चिल्लाया – “मेहरबानी करके मुझे मेरे घर पहुँचा दीजिये!” ग़ुस्से से उसका दम फूल रहा था।

अबोगिन ने ज़ोर से घण्टी बजायी। जब उसकी पुकार पर कोई नहीं आया, तब अपने ग़ुस्से में घण्टी फ़र्श पर फेंक दी। कालीन पर एक हल्की खोखली आह-सी भरती हुई घण्टी ख़ामोश हो गयी। एक नौकर आया।

घूसा ताने अबोगिन ज़ोर से चीख़़ा – “तुम लोग कहाँ छिपे थे? तेरा सत्यानाश हो! तू अभी था कहाँ? जा, इस भलेमानस के लिए गाड़ी लाने को कह और मेरे लिए बग्घी निकलवा!” जैसे ही नौकर जाने के लिए मुड़ा, अबोगिन फिर चिल्लाया – “ठहर! कल इस घर में एक भी ग़द्दार दग़ाबाज़ नहीं रहेगा! सब निकल जायें! मैं नये नौकर रखूँगा, दुष्ट कहीं के!”

गाड़ियों के लिए इन्तज़ार करते समय डॉक्टर और अबोगिन ख़ामोश रहे। हष्ट-पुष्ट और नाज़ुक सुरुचि का भाव अबोगिन के चेहरे पर फिर लौट आया था। बड़े सभ्य लहज़े में वह अपना सिर हिलाता हुआ, कुछ योजना-सी बनाता हुआ कमरे में टहलता रहा। उसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ था, लेकिन वह ऐसा ज़ाहिर करने की कोशिश कर रहा था मानो कमरे में दुश्मन की मौजूदगी की ओर उसका ध्यान भी न गया हो…डॉक्टर एक हाथ से मेज़ पकड़े हुए स्थिर खड़ा अबोगिन की ओर बदनुमा, गहरी हिक़ारत की निगाह से ताक रहा था, ऐसी नफ़रत से देख रहा था जैसी कि सन्तुष्टि और सुरुचि देखकर केवल निर्धन और दुखी लोगों की नज़रों में आ पाती है।

कुछ देर बाद, जब डॉक्टर गाड़ी में बैठा अपने घर जा रहा था, उसकी आँखों में तब भी घृणा की वही भावना क़ायम थी। घण्टे-भर पहले जितना अँधेरा था, अब वह उससे ज़्यादा बढ़ गया था। दूज का लाल चाँद पहाड़ी के पीछे छिप गया था और उसकी रखवाली करने वाले बादल सितारों के आस-पास काले धब्बों की तरह पड़े थे। पीछे से सड़क पर पहियों की आवाज़ सुनायी दी और बग्घी की लाल रंग की लालटेनों की चमक डॉक्टर की गाड़ी के आगे आ गयी। यह अबोगिन था जो प्रतिवाद करने, झगड़ा करने, ग़लतियाँ करने पर उतारू…

रास्ते-भर डॉक्टर अपनी पत्नी या पुत्र आन्द्रेई के बारे में नहीं, अबोगिन और उस घर में रहने वाले के बारे में सोचता रहा जिसे वह अभी छोड़कर आया था। उसके विचार नृशंस और अन्यायपूर्ण थे। उसने अबोगिन, उसकी बीवी, पापचिंस्की, सुगन्धित, गुलाबी उषा में रहने वाले सभी लोगों के विरुद्ध क्षोभ प्रकट किया और रास्ते-भर बराबर वह इन लोगों के बारे में घृणा और नफ़रत की बातें ही सोचता रहा, यहाँ तक कि उसके दिल में दर्द होने लगा और ऐसे लोगों के प्रति एक ऐसा ही दृष्टिकोण उसके दिमाग़ में स्थिर हो गया।

वक़्त गुज़रेगा और किरीलोव का दुख भी गुज़र जायेगा लेकिन यह अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण जो मानवोचित नहीं है, नहीं गुज़र पायेगा और डॉक्टर के साथ रहेगा ज़िन्दगी-भर, उसकी मौत के दिन तक।@

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