हेमलता शाक्यवल
जयपुर, राजस्थान
हमारे देश में लड़का और लड़की के बीच अंतर आज भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है. वैसे तो यह अंतर सभी जगह नज़र आता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी स्लम बस्तियों के सामाजिक परिवेश में किशोर और किशोरियों के बीच किया जाने वाला भेदभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है. बात चाहे शिक्षा की हो या स्वास्थ्य की, प्रत्येक क्षेत्र में लड़का और लड़की के बीच किया जाने वाला भेदभाव स्पष्ट तौर पर नज़र आता है. एक ओर जहां उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता है तो वहीं दूसरी ओर लड़कों की तुलना में लड़कियों को पोषणयुक्त आहार कम उपलब्ध हो पाता है. जिसके कारण किशोरावस्था में ही उनमें कुपोषण और एनीमिया के बहुत अधिक लक्षण पाए जाते हैं.
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में किशोरियों और महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) का होना बहुत आम है। एनएफएचएस-5 डेटा के अनुसार भारत में प्रजनन आयु वर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत, दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां लगभग 20 प्रतिशत किशोर आबादी निवास करती है। जिनकी आयु 10 से 19 वर्ष के बीच है। इनमें लगभग 12 करोड़ किशोरियां हैं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक किशोरियां एनीमिया से पीड़ित हैं। जो उनमें विकास को पूरी तरह से प्रभावित करता है. उनमें जीवन जीने की क्षमता को सीमित कर देता है. किशोरियों में कुपोषण के कई कारण होते हैं. जिनमें गरीबी, सही पोषण न मिलना, पराया धन समझना, लड़की को बोझ समझना, उन्हें शिक्षा से वंचित रखना, बाल विवाह होना और कम उम्र में मां बनना ऐसे प्रमुख कारक हैं जो उनके विकास की क्षमता को प्रभावित करता है.
ग्रामीण क्षेत्रों के साथ साथ बाबा रामदेव नगर जैसे देश के शहरी स्लम बस्तियों की किशोरियों का भविष्य भी इन्हीं कारकों से जुड़ा हुआ है. राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है. न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से 500 मीटर की दूरी पर आबाद इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है. जिसमें लोहार, जोगी, कालबेलिया, मिरासी, रद्दी का काम करने वाले,
फ़कीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों की संख्या अधिक है. यहां रहने वाले सभी परिवार बेहतर रोज़गार की तलाश में करीब 20 से 12 वर्ष पहले राजस्थान के विभिन्न दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास करके आये हैं. इनमें से कुछ परिवार स्थाई रूप से यहां आबाद हो गया है तो कुछ मौसम के अनुरूप पलायन करता रहता है. इसका सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर होता है. वहीं उन्हें बोझ और पराया धन समझने की प्रवृत्ति भी उनके समग्र विकास में बाधा बन रही है.
इस संबंध में बस्ती की 16 वर्षीय किशोरी सांची बताती है कि उसके माता-पिता दोनों दैनिक मज़दूरी करते हैं. घर की देखभाल के नाम पर पांचवीं के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई. अब वह घर में छोटी बहन और भाइयों की देखभाल करती है. उनके लिए खाना पकाती है और कपड़े धोती है. हालांकि उसे पढ़ लिख कर डॉक्टर बनने का शौक था. वह पांचवीं तक सभी क्लास में अच्छे नंबर लाती रही है. इसके बावजूद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई. वह कहती है कि “उसके पिता अक्सर उसे पराया धन कहते हैं और पढ़ने से अधिक घर का कामकाज सीखने पर ज़ोर देते हैं. उसकी जल्द शादी कर देने की बात करते रहते हैं. सांची कहती है कि इस बस्ती में 14 से 16 वर्ष की आयु में लड़कियों की शादी हो जाना आम बात है. दुबला पतला शरीर और आंखों में पीलापन के कारण सांची स्वयं कुपोषण से ग्रसित नज़र आ रही थी.
वहीं 55 वर्षीय गीता बाई राणा कहती हैं कि बाबा रामदेव नगर में बालिकाओं के प्रति बहुत अधिक नकारात्मक सोच विधमान है. अभिभावक उन्हें पढ़ाने से अधिक उनकी शादी की चिंता करते हैं. इसलिए उन्हें बहुत अधिक नहीं पढ़ाया जाता है. इस बस्ती की कोई भी लड़की अभी तक 10वीं तक भी नहीं पढ़ सकी है. पढ़ाई छुड़वा कर उन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है. लड़कों की तुलना में उन्हें बहुत अच्छा खाना भी खाने को नहीं मिलता है. इसलिए यहां की लगभग सभी किशोरियां एनीमिया से पीड़ित नज़र आती हैं. जो आगे चल कर उनकी गर्भावस्था में कठिनाइयां उत्पन्न करता है और मृत्यु दर को बढ़ाता है. गीता बाई कहती हैं कि इस बस्ती की कई लड़कियों को उन्होंने प्रसव के दौरान कठिनाइयों से गुज़रते देखा है. यह उनकी कम उम्र में शादी और खून की कमी के कारण होता है. वह कहती हैं कि चूंकि इस बस्ती में बहुत ही गरीब परिवार रहता है. घर की आर्थिक स्थिति का नकारात्मक प्रभाव लड़कों की तुलना में लड़कियों के भविष्य पर पड़ता है. इससे न केवल उनकी शिक्षा बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है. इस तरह सबसे पहले वह शिक्षा से वंचित कर दी जाती हैं.इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019-21 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लड़कों के मामले में यह आंकड़ा 28% है. वहीं लड़कों की तुलना में लड़कियों में मानसिक तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गई है. वहीं शिक्षा की अगर बात करें तो अभी भी बड़ी संख्या में किशोरियां स्कूल से बाहर हैं. साल 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई है. कोरोना महामारी के बाद भारत की किशोरियों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित हुई है. लड़कियों की एक बड़ी संख्या न केवल शिक्षा से वंचित हुई है बल्कि बाल विवाह में भी बढ़ोतरी देखी गई थी. हालांकि अब इसमें कुछ कमी आई है लेकिन बाबा रामदेव नगर जैसी बस्तियों में रहने वाली किशोरियों का भविष्य अभी भी उज्जवल होने की राह तक रहा है. शहर में होने के बावजूद इस बस्ती की किशोरियों का भविष्य स्कूल से दूर है. (चरखा फीचर्स)