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दिक दर्शन : जाग्रतिपूर्ण प्रगतिशीलता के सूत्र 

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      ~ डॉ. विकास मानव 

कठोपनिषद् का जागरण मन्त्र :
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति॥
(१/३/१४)
उठो, जागो, श्रेष्ठ मनुष्यों के पास जा कर ज्ञान प्राप्त करो। कवि (ज्ञानी, विचारक) उस ज्ञान मार्ग को छूरे की तेज धार पर चलने जैसा कठिन बताते हैं।

वैराग्य डिण्डिमम् सूत्र :
माता नास्ति पिता नास्ति नास्ति बन्धुः सहोदरः।
अर्थं नास्ति गृहं नास्ति तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥१॥
न माता है, न पिता है, न कोई बन्धु सहोदर है (कोई अपना नहीं है)। अर्थ या घर नहीं है (ये क्षणिक हैं), अतः जाग जाओ (सावधान हो जाओ)।
जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः।
संसारसागरं दुःखं तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥२॥
जन्म में कष्ट है, बुढ़ापा दुःख है, पत्नी का दुःख भी बार बार आता है। संसार सागर ही दुःख से भरा है, अतः जाग जाओ।
कामः क्रोधश्च लोभश्च देहे तिष्ठन्ति तस्कराः।
ज्ञानरत्नापहाराय तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥३॥
काम, क्रोध, लोभ- ये देह में तस्कर बैठे हैं जो ज्ञान रत्न को लूटना चाहते हैं। अतः जाग जाओ।
आशया बध्यते जन्तुः कर्मणा बहुचिन्तया।
आयुः क्षीणं न जानाति तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥४॥
जीव आशा से बन्धा रहता है, कर्म की चिन्ता में पता नहीं चलता है कि आयु समाप्त हो रही है। अतः जाग जाओ।
क्षणं वित्तं क्षणं चित्तं क्षणं जीवितमावयोः।।
यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः॥५॥
हमारा वित्त (धन), चित्त तथा जीवन भी क्षणिक (अस्थायी) है। यम को करुणा नहीं होती है, धर्म की तेज गति है (कर्म का फल बिना करुणा तुरन्त मिलता है)।
यावत् कालं भवेत् कर्म तावत् तिष्ठन्ति जन्तवः।
तस्मिन् क्षीणे विनश्यन्ति तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥६॥
जीव तभी तक रहते हैं जब तक कर्म फल रहता है। फल क्षीण होने पर जन्तु नष्ट हो जाते हैं। अतः जागते रहो।
ऋणानुबन्धरूपेण पशुपत्निसुतादयः।
ऋणक्षये क्षयं यान्ति तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥७॥
पशु, पत्नी, सुत (सन्तान) आदि का सम्बन्ध पूर्व ऋण को पूरा करने के बन्धन के कारण है। ऋण पूरा होते ही सम्बन्ध टूट जाता है। अतः जागते रहो।
सम्पदः स्वप्नसङ्काशाः यौवनं कुसुमोपमम्।
विद्युत् चञ्चलं आयुष्यं तस्मात् जाग्रत जाग्रत॥८॥
सम्पत्ति स्वप्न की तरह है, यौवन फूल की तरह है (झड़ जाता है)। आयुष्य (जीवन) विद्युत् की तरह चञ्चल है। अतः जागते रहो।
पक्वानि तरुपर्णानि पतन्ति क्रमशो यथा।
तथैव जन्तवः काले तत्र का परिदेवना॥९॥
जैसे वृक्ष के पत्ते पकने पर क्रमशः झड़ते रहते हैं, उसी तरह जन्तु भी अपना समय आने पर मर जाते हैं। इसमें क्या दुःख करना है?
एकवृक्षसमारूढाः नानाजाति विहङ्गमाः।
प्रभाते क्रमशो यान्ति तत्र का परिदेवना॥१०॥
कई जातियों के पक्षी एक वृक्ष पर बैठे रहते हैं। प्रातः होते ही सभी एक-एक कर चले जाते हैं। इसमें क्या शोक मनाना है?

ऐतरेय उपनिषद के मंत्र :
(३३/७/ ३)
इन्द्र द्वारा रोहित को उपदेश :
नानाश्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा॥१॥ चरैवेति।
हे रोहित! परिश्रम न करने वाले व्यक्ति को श्री नहीं मिलती, ऐसा सुना है। एक ही स्थान पर बैठने वाले को विद्वान् लोग हीन मानते हैं। विचरण में लगे जन का ईश्वर साथी होता है। अतः तुम चलते ही रहो।
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः॥२॥ चरैवेति।
जो व्यक्ति कार्यशील रहता है, उसकी जंघाओं में फूल खिलते हैं (पल्लव जैसी जंघा = पल्लवन्, पह्लव या पहलवान), और शरीर में फल लग जाते हैं। कर्मठ व्यक्ति के मार्ग की सारी बाधायें नष्ट हो जाती हैं। अतः तुम चलते ही रहो।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः॥३॥ चरैवेति।
जो बैठा रहता है, उसका भाग्य (भग = ऐश्वर्य) भी रुका रहता है। जो उठ खड़ा होता है, उसका भाग्य भी उसी प्रकार उठता है। जो सोया रहता है, उसका भाग्य भी सो जाता है। जो विचरण करता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है। अतः तुम चलते ही रहो।
कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति, कृतं सम्पद्यते चरन्॥४॥ चरैवेति।
जो सो रहा है, वह कलियुग में है, निद्रा से उठने वाला द्वापर युग में है। उठ कर खड़ा होने वाला त्रेता युग में है और श्रम करने वाला सत्य युग में है। अतः तुम चलते रहो।

  यह ४ वर्ष का युग भी बताता है, जिसमें ग्रेगरी कैलेण्डर की तरह १ लीप ईयर प्रति ४ वर्ष में होता है। युगों का नाम १ से ४ तक इसी पर आधारित है। प्रथम वर्ष (कलि = गणना का आरम्भ) की गोधूलि वेला यदि १ जनवरी सन्ध्या ६ बजे से हो, तो वह द्वितीय वर्ष १ जनवरी को रात्रि १२ बजे पूरा होगा।
  अतः कलि को सोया हुआ कहते हैं (इसकी पूर्णता के समय अर्द्ध रात्रि)। द्वितीय या द्वापर वर्ष तीसरे वर्ष २ जनवरी को प्रातः ६ बजे होगा जब लोग उठने लगेंगे। अतः द्वापर को सञ्जिहान (जागने का समय) कहते हैं। 
 तृतीय वर्ष त्रेता ४ थे वर्ष २ जनवरी दिन १२ बजे पूरा होगा जब लोग खड़े होंगे (या सूर्य ऊपर खड़ा होगा)। चौथा वर्ष कृत (पूर्ण) २ जनवरी सन्ध्या ५ बजे समाप्त होगा जब लोग घर लौटते होंगे। इन ४ वर्षों में १ लीप ईयर होगा जिसमें १ दिन अधिक होगा।
 अतः ४ वर्ष का युग उसी दिन १ जनवरी को पूर्ण होगा।

चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम्।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्॥५॥ चरैवेति।
चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो जो नित्य चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। अतः तुम चलते ही रहो।

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