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परिवारवाद के विरोधी डॉ. राम मनोहर लोहिया

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रामरतन चूड़ीवाला

रा  जनीति में वैचारिकता के लगातार बढ़ते ह्रासके दौर में आने वाले दौर के लोग हैरत करेंगे कि दुनिया में एक ऐसा फक्कड़ राजनेता भी पैदा हुआ था, जिनकी वैचारिकता की परिधि में समाज, धर्म, राजनीति और अर्थ नीति जैसे तमाम विषय शामिल हैं। निधन के लंबे बाद भी लोहिया के विचार का प्रासंगिक बने रहना अहम है। लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमोंऔर क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षधर थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वह इन क्रांतियों केबारे में बताते हैं कि सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं।

अपने देशमें भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ मेंआयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग होजाये कि आज का इन्सान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये। उन्होंने सदियों से दबाये एवं शोषित किये गये दलित एवं पिछड़े वर्ग को ज्यादा अधिकार देने की बात की। समाजवाद समतामूलक समाज की स्थापना के लिए व्यवस्था व संस्कार के बुनियादी ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन की वकालत करता है।

डॉ0 राम मनोहर लोहिया इसी रास्ते के वह फकीर थे जिनके पग चिन्हों को तलाशते हुए। भारत के अनेक सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्त्ता व्यवस्था परिवर्तन से सत्ता परिवर्तन की राह केपथिक बने। वे राजनीति में एकाधिकार, परिवादवाद के कट्टर विरोधी थे। परिवर्तन को लेकर उनका स्पष्ट मानना था कि जिस तरह तवे पर रोटी एक तरफ रहने के कारण जल जाती है या कच्ची रह जाती है, उसी तरह उलटफेर लोकतंत्र में जरूरी है। लोग शिक्षित होंगे तथा जागरूक होंगें। महात्मागाँधी के बाद लोहिया ही ऐसे भारतीय वैश्विक चिन्तक हुए जिन्होंने दुनिया कीराजनीतिक विचारधारा को प्रभावित किया और भारत से बाहर सत्याग्रह कर गिरफ्तारी देकर मानवीय विभेद को चुनौती दी। ऐसे में जब लोकतंत्र में लोक की बजाय तंत्र तथा राजनीति में नीति के सापेक्ष राजतत्व ज्यादा मजबूत हो रहा हो, लोहिया के विचार पहले से अधिक प्रासंगिक है। उनका चिंतन आज की कई समस्याओं का हल सुझा सकती है और उनके आधार पर भावी भारत के कई सुनहरे सपनों को पूरा भी किया जा सकता है। खुदको कुजात गांधीवादी बताने वाले डॉ. लोहिया उस सरकारी गांधीवादी के नजदीकी रहे थे, जिनकी नीतियों का आजाद भारत में उन्होंने हर मोर्चे पर विरोध किया। नेहरू उन्हें एक दौर में छोटा भाई मानते थे। लेकिन आजाद भारत में नेहरू की नीतियों की आलोचना करने का उन्होंने एक भी अवसर नहीं छोड़ा।

चाहे तिब्बत का सवाल हो, चाहे चीन की विस्तारवादी नीति की अनदेखी के साथचीन की ओर बढ़ते दोस्ती का हाथ हो या फिर आम लोगों की दुश्वारी का सवाल हो, वे नेहरूवादी नीतियों को तार्किक ढंग सेजिम्मेदार ठहराने से नहीं चूके। लोहिया की सोच सरकार का मूक समर्थन करने के बजाएउसकी गलत नीतियों के विरोध पर ज्यादा थी। चीनके हाथों 1962 की करारी हार के बाद लोहिया को लगा कि बिना कांग्रेस से मुक्ति के आजादी के दौरान देश को लेकर देखे गए सपनों को पूरा करना संभव नहीं होगा, इसलिए उन्होंने गैर कांग्रेसवाद का दर्शन दिया। इस गैर कांग्रेसवाद की परिधि में ही उन्होंने कट्टरवादी हिन्दू संगठन, वामदलों सहित अनेक विचारधाराओं को जोड़ा। 1963 में गैर कांग्रेसवाद की जो नींव लोहिया ने दीनदयाल उपाध्याय के साथ रखी थी, उस नींव ने अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस की राजनीतिक नींव को हिलाकर रख दिया। 1963 के उपचुनावों में बेशक उत्तर प्रदेश के जौनपुर से दीनदयाल उपाध्याय चुनाव नहीं जीत पाए, हालांकि इसकी वजह उनकी कट्टर सिद्धांतवादिता रही, लेकिन फरूखाबाद से खुद लोहिया, अमरोहा से आचार्य जेबी कृपलानी व राजकोट से जीतकर मीनू मसानी लोकसभा पहुंचे और लोकसभा की सूरत ही बदल गई। लोकसभा की प्रखरवैचारिक बहसों ने देश को हिलाकर रख दिया और इसके साथ ही जो माहौल बना, उस माहौल में 1967 के चुनावों में नौ राज्यों में विपक्षी दलों की संविद सरकारें बनीं, जिसमें लोहिया के अनुयायियों की बड़ी भूमिका थी।

इसी दौरान डॉ. लोहिया का असामयिक निधन हो गया और समाजवादियों का अंतर्विरोध चरमपर जा पहुंचा। डॉ.लोहिया का जोर ज्यादातर वैचारिक आंदोलनों पर रहा, उन्होंने अपनी प्रखरता से अपने सिद्धांत केनए-नए सोपान तय किए। लोहिया के लिए विचार कितना महत्वपूर्ण था, इसका अंदाजा उनके उस बयान से ही लगाया जा सकता है, जिसमेंउन्होंने कहा था कि बदलो या टूट जाओ। इसके लिए उन्होंने पांच कारण गिनाए थे-स्त्री, जाति, संपत्ति, ईश्वर और राष्ट्रीयता। उन्होंने जाति तोड़ो और जनेउ तोड़ो जैसा नारा दिया। लोहिया का कहना था कि भारतीय समाज स्त्री और पुरुष केप्रति एकनिष्ठ व्यवहार का हामी है और किसी भी कीमत पर इसमें विचलन बर्दाश्त नहीं करेगा। इसके साथ ही उन्होंने जाति को एक कटु सच्चाई भी माना था। भारतीय समाज कोअपनी-अपनी हैसियत में संपत्ति बनाने की पूरी आजादी है और वह ईश्वर के प्रति असीम भरोसा रखता है। लोहिया मानते थे कि भारतीय भूमि के निवासियों के लिए राष्ट्रीयता तमाम विचारों से कहीं ऊपर है। लोहिया राष्ट्रवादी तो थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना भी देखते थे।

वे आधुनिकतम विद्रोही और क्रांतिकारी थे, लेकिनशांति व अहिंसा के भी अनूठे उपासक थे। इतना नहीं, लोहिया मानते थे कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधीहोकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इसलिए इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दिला सकताहै। डॉ.लोहिया समाजवाद को प्रजातंत्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातंत्रऔर समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लोहिया की नजर में समाजवाद और प्रजातंत्र एक-दूसरे के बिना अधूरे तथा बेमतलब हैं। उनके जाति तोड़ो व परिवारवाद के विरोधी विचार को किनारे कर रखा है। बावजूद इसके अगर नए भारत की राह की खोज की जाती है, तो उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं। 

                                                                                              (लेखक समाजवादी आंदोलन से जुड़े समाजकर्मी हैं)-

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