मनोज अभिज्ञान
पूंजीपतियों ने सामंती और पारंपरिक व्यवस्था को तोड़ते हुए एक नई औद्योगिक व्यवस्था की स्थापना की। इस प्रक्रिया में उन्होंने उत्पादन के साधनों को संगठित किया और वैश्विक व्यापार तथा संचार को बढ़ावा दिया। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक संरचनाओं में गहरा बदलाव आया।
हालांकि, इसके साथ ही पूंजीवाद ने शोषण के नए रूपों को जन्म दिया। यह पूंजीवादी व्यवस्था की एक जटिल सच्चाई को उजागर करता है-कि पूंजीपति उत्पादन में योगदान देते हैं, लेकिन इस योगदान का आधार शोषण पर टिका है। उत्पादन के साधनों पर उनका नियंत्रण उन्हें श्रमिक वर्ग पर आर्थिक प्रभुत्व प्रदान करता है।
पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पादन और श्रम के संबंधों को समझना आवश्यक है। उत्पादन और वितरण के बीच जो असमानता है, वह शोषण का मूल आधार है। शोषण का मतलब यह नहीं है कि व्यापारी या पूंजीपति अपने काम से कोई योगदान नहीं देते, बल्कि यह है कि उत्पादन के वास्तविक श्रम का मूल्य कम करके उसे अपने लाभ में बदलते हैं।
कार्ल मार्क्स के अनुसार, किसी वस्तु की कीमत उस श्रम पर आधारित होती है, जो उसे बनाने में लगाया गया है। श्रमिक वस्तु के उत्पादन के दौरान अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा खर्च करता है और “सरप्लस वैल्यू” यानी अधिशेष मूल्य का निर्माण करता है।
यह अधिशेष मूल्य ही पूंजीपति का मुनाफा बनता है। इसलिए, पूंजीपति का लाभ श्रमिक की उत्पादकता से उत्पन्न होता है, न कि पूंजीपति के स्वयं के कार्य से।
उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिक का श्रम सबसे महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वही वास्तविक उत्पादन को जन्म देता है। दूसरी ओर, व्यापार या वस्तु को बाजार में बेचना इस व्यवस्था में एक आवश्यक प्रक्रिया है, लेकिन इसे श्रम के समान स्तर का काम नहीं माना जा सकता।
व्यापार, उत्पादन की प्रक्रिया का केवल विस्तार है, मूल्य के निर्माण का हिस्सा नहीं। जब कोई व्यापारी वस्तु को बेचता है, वह नए मूल्य का निर्माण नहीं कर रहा होता, बल्कि पहले से निर्मित मूल्य का पुनर्वितरण कर रहा होता है। इस प्रकार, व्यापार को महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद श्रमिक के समान स्तर का काम नहीं माना जा सकता।
पूंजीवादी व्यवस्था में बेचना महत्वपूर्ण हो सकता है, खासकर जब बाजार में मांग और आपूर्ति के असंतुलन जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लेकिन यह समस्या भी पूंजीवाद की ही देन है, जहां वस्तुओं की बहुतायत होती है और उनके वितरण के लिए बाजार की जटिलताएं उत्पन्न होती हैं।
इस प्रक्रिया में, व्यापारी को मुनाफा तो होता है, लेकिन यह मुनाफा उत्पादन के श्रमिक द्वारा पैदा किए गए अधिशेष मूल्य से आता है, न कि बेचने की प्रक्रिया से। बाजार में प्रतिस्पर्धा के चलते मूल्य घटाने और छूट जैसी नीतियां पूंजीपति वर्ग के लाभ को बढ़ाने का प्रयास होती हैं, जबकि यह अक्सर छोटे उत्पादकों और श्रमिक वर्ग को नुकसान पहुंचाती है।
21वीं सदी में, सूचना क्रांति और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) ने उत्पादन प्रक्रिया में एक नया बदलाव लाया है। अब केवल मशीनें ही नहीं, बल्कि AI और एल्गोरिदम श्रमिकों के काम की जगह ले रहे हैं। इससे पूंजीपतियों को और अधिक नियंत्रण मिल रहा है, क्योंकि उन्हें अब श्रमिकों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
AI के आने से उत्पादन की प्रक्रिया में स्वचालन बढ़ गया है, जिससे श्रमिकों की भूमिका घटती जा रही है। इससे नए प्रकार का शोषण उभर रहा है-जैसे कि डिजिटल श्रम, जो इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहा है। फ्रीलांसर, गिग इकॉनमी में काम करने वाले लोग, और सोशल मीडिया पर कार्यरत इंफ्लुएंसर नए प्रकार के डिजिटल श्रमिक हैं।
वे नियमित श्रमिकों की तरह सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा और स्थायित्व जैसी सुविधाओं से वंचित रहते हैं, और उनके पास नौकरी की कोई गारंटी नहीं होती। यह डिजिटल युग में श्रमिक शोषण का एक नया रूप है, जिसे अब ‘गिग इकॉनमी’ के रूप में पहचाना जाता है।
आज की सूचना क्रांति के साथ-साथ डेटा भी एक नया संसाधन बन गया है। पूंजीपति वर्ग डेटा को “नए तेल” के रूप में देखता है। बड़ी टेक कंपनियां जैसे गूगल, फेसबुक और अमेज़ॉन न केवल श्रमिकों को नियंत्रित करती हैं, बल्कि वे उपयोगकर्ताओं का डेटा भी एकत्रित करती हैं, जिसका उपयोग वे अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए करती हैं।
डेटा के इस शोषण का सीधा उदाहरण सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। यहां लोग “मुफ्त” सेवाओं का उपयोग करते हुए अपने डेटा का व्यापार कर रहे होते हैं, जबकि कंपनियां इस डेटा का उपयोग विज्ञापनों के माध्यम से अरबों का मुनाफा कमाती हैं।
सोशल मीडिया पूंजीवाद के एक नए मंच के रूप में उभरकर आया है। यहां उपयोगकर्ताओं को एक “उपभोक्ता” के रूप में देखा जाता है, जबकि वास्तविकता में वे स्वयं एक “उत्पाद” होते हैं। जब उपयोगकर्ता सोशल मीडिया पर समय बिताते हैं, पोस्ट करते हैं या इंटरैक्शन करते हैं, तो वे अनजाने में उन कंपनियों के लिए श्रम कर रहे होते हैं।
सोशल मीडिया कंपनियां उपयोगकर्ता डेटा एकत्रित करती हैं और इसका उपयोग विज्ञापनदाताओं को बेचने में करती हैं। यह प्रक्रिया पूंजीवाद में शोषण के एक नए रूप की तरह काम करती है, जहां उपयोगकर्ता बिना किसी वित्तीय लाभ के अपने समय और जानकारी का योगदान देते हैं, जबकि कंपनियां मुनाफा कमा रही होती हैं।
AI और रोबोटिक्स की बढ़ती ताकत से, उत्पादन की प्रक्रिया में इंसानी श्रम का योगदान घटता जा रहा है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि पूंजीपतियों का उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण और भी मजबूत हो जाए और श्रमिक वर्ग और अधिक हाशिए पर चला जाए।
इसके साथ ही, जो श्रमिक नौकरी में बने रहते हैं, वे अधिक दबाव और अस्थिरता का सामना करेंगे क्योंकि तकनीकी विकास श्रमिकों की आवश्यकता को लगातार कम करता जा रहा है। भविष्य में, यह असमानता और बढ़ सकती है, क्योंकि केवल कुशल श्रमिकों की मांग रह जाएगी और बाकी श्रमिक वर्ग बेरोजगारी और आर्थिक अस्थिरता का सामना कर सकता है।
इस जटिल व्यवस्था से निकलने के लिए एक नये आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है, जो मानवीय श्रम के सम्मान और तकनीकी विकास के बीच संतुलन बनाए रख सके। सबसे पहले, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कानूनों की आवश्यकता है, खासकर उन उद्योगों में जहां स्वचालन और AI का व्यापक रूप से उपयोग हो रहा है।
साथ ही, डिजिटल श्रम और डेटा शोषण को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीतियों को बेहतर बनाने की भी आवश्यकता है।
(लेखक साइबर व कॉरपोरेट मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता हैं)