अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

कुछ देश क्यों अमीर हो गये और अनेक किसलिये ग़रीब

Share

पलाश सुरजन

विश्व का सबसे सम्मानित कहा जाने वाला नोबेल पुरस्कार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में तीन शोधकर्ताओं डारोन एसिमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स ए. रॉबिन्सन को दिया गया है। उन्होंने इस बात का पता किया है कि आखिर वे कौन से तथ्य हैं जिनके चलते विभिन्न देशों के बीच अमीरी-ग़रीबी का फ़र्क पैदा होता है। उन्होंने इसे दूर करने के कुछ उपाय बताये हैं जिन पर अमल कर वैश्विक गैरबराबरी को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। देखना यह होगा कि जिन देशों के पास दुनियावी बदलाव करने की ताकत है, वे इस पर कितना अमल करते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसा कर वे स्वयं अपने रुतबे तथा दबदबे को खत्म करेंगे। इस रिसर्च को तो उन राष्ट्राध्यक्षों को ध्यान से पढ़ने, समझने और उसे क्रियान्वित करने की ज़रूरत है जो अपने देश के नागरिकों को खुशहाल बनाना चाहते हैं। यहां सवाल विश्व के सम्पन्न देशों की सूची में आना मात्र नहीं है वरन अपने नागरिकों के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा करना और उन्हें एक गरिमामय जीवन प्रदान करना भी है। एसिमोग्लू,  जॉनसन और  रॉबिन्सन ने अपने सामूहिक अध्ययन एवं विशद विश्लेषण से स्पष्ट किया है कि कुछ देश क्यों अमीर हो गये और अनेक किसलिये ग़रीब हैं। इसके लिये उन्होंने कुछ इलाकों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं जिनके कुछ क्षेत्र एक देश में हैं तो कुछ दूसरे देश में।

रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेस ने सोमवार को इन अर्थशास्ति्रयों को संयुक्त रूप से यह प्रतिष्ठित पुरस्कार देने का ऐलान करते हुए उनके काम की महत्ता को रेखांकित किया। 5 क्षेत्रों में दिये जाने वाला नोबेल आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाले को ‘स्वेरिग्स रिक्सबैंक पुरस्कार’ कहलाता है। समिति ने कहा कि पुरस्कार के लिये चयनित अर्थशास्त्रियों ने पहली बार सामाजिक संस्थाओं के महत्व को प्रतिपादित करते हुए देशों की समृद्धि में उनके योगदान की वैज्ञानिक तरीके से मीमांसा की है। अपने शोध से उन्होंने यह भी बतलाया कि कैसे लोकतंत्र एवं समावेशी सामाजिक संस्थानों के जरिये राष्ट्र का विकास सम्भव है। एसिमोग्लू, जॉनसन तथा रॉबिन्सन के इस शोध ने बताया है कि ख़राब कानून व्यवस्था तथा नागरिकों का शोषण करने वाली संस्थाएं या देश सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकते। पुरस्कार समिति का यह कहना कि, ‘देशों के बीच आय के अंतर को खत्म करना वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती है’, ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के दुष्प्रभावों की ओर छिपा संकेत है जिसके माध्यम से कई देशों की राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं को बर्बाद कर उन्हें पिछड़ा बना दिया गया है।

उपरोक्त अर्थशास्त्रियों ने यूरोपीय उपनिवेशों द्वारा प्रवर्तित विभिन्न राजनीतिक व आर्थिक प्रणालियों का विशेलेषण कर संस्थाओं एवं सम्पन्नता के अंतर्संबंधों का पता किया है। उन्होंने इसके उपाय भी बताये हैं कि कैसे इन संस्थाओं को सक्षम कर विकास में उनका सहयोग लिया जा सकता है। इसके कारण यह शोध विश्व भर के उन देशों के लिये मददगार हो सकता हैं जो गरीबी से छुटकारा पाना चाहते हैं। उनकी शोध बतलाती है कि कैसे दुनिया के सर्वाधिक सम्पन्न 20 प्रतिशत देश अब विश्व के सबसे गरीब 20 फीसदी देशों से 30 गुना अमीर हैं। कई विपन्न देश समृद्ध तो हुए हैं लेकिन वे अमीर देशों की तुलना में अब भी कई गुना कम सम्पन्न हो सके हैं। इसका कारण उन्होंने भौगोलिक या सांस्कृतिक फ़र्क नहीं, सामाजिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली में अंतर को जिम्मेदार बतलाया है। अपनी बात को विस्तार देते हुए तीनों ने बताया है कि उनके मॉडल के तीन हिस्से हैं। पहला तो यह देखना होगा कि संसाधनों का आवंटन कैसे हुआ है; तथा निर्णय लेने की शक्ति किस समूह के पास है। दूसरा यह कि कभी-कभार जनता को सत्तारुढ़ अभिजात वर्ग को संगठित कर सत्ता का इस्तेमाल करने का जब अवसर मिलता है तो समाज में निर्णय लेने की शक्ति कहीं अधिक हो जाती है। तीसरी है प्रतिबद्धता। सत्तारुढ़ अभिजात वर्ग के लिये एकमात्र विकल्प जनता को निर्णय लेने की शक्ति सौंपना है।

इन निष्कर्षों को यदि गौर से देखा जाये तो बात अंततः स्वच्छ लोकतांत्रिक प्रणाली एवं ईमानदार संवैधानिक संस्थाओं की आवश्यकता पर जाकर ठहरेगी। किसी भी देश में चाहे जिस विचारधारा की सरकार हो उसके सही या ग़लत होने का पैमाना यही होगा कि वह इन संस्थाओं को कितनी स्वंतत्रतापूर्वक काम करने देती है। सरकारों का केवल लोकतांत्रिक प्रणाली के जरिये चुना जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से शासन करना भी उतना ही ज़रूरी है। साथ ही आवश्यक है लोकतांत्रिक संस्थाओं को सम्प्रभुता प्रदान करना। भारत समेत अनेक देशों के ही उदाहरण देखें तो शासकों की प्रवृत्ति शक्तियों के केन्द्रीकरण में है। हमारे ही देश में संस्थाएं कमजोर होती गयी हैं और राज्य शक्तिशाली। बड़ी दिक्कत यह है कि लोगों की समझ को इस प्रकार से भोथरा कर दिया गया है कि शक्तिशाली सरकारों वाले देश ही सम्पन्न हो सकते हैं।

नोबेल पुरस्कृत इन अर्थशास्त्रियों ने अध्ययन का दायरा देशों की आर्थिक व्यवस्था तक ही सीमित रखा है, लेकिन इसे समझने के लिये अपनी सोच को विस्तार दिया जाये तो यह भी साफ़ होता जायेगा कि संस्थाओं की जिस मजबूती की बात की गयी है, उसके अभाव में किसी भी देश में न केवल आर्थिक अव्यवस्था हो जायेगी वरन सामाजिक एवं राजनीतिक अराजकता फैलने में भी देर नहीं लगेगी। यह आशंका तीसरी दुनिया कहे जाने वाले एशियाई, अफ्रीकी तथा लैटिन अमेरिकी उन देशों को लेकर अधिक है जो अविकसित तथा विकासशील राष्ट्रों की श्रेणी में आते हैं। भारत के पड़ोसी देशों- श्रीलंका एवं बांग्लादेश में ऐसा होता हुआ दिख चुका हैं। भारत को इस शोध पर गम्भीर मनन करना चाहिये।

देशबन्धु से साभार

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें