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संविधान को मनुस्मृति से खतरे की इस वैचारिक लड़ाई को क्या राहुल गांधी जीत पाएंगे?

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डॉ. रविकांत

बीत रहा साल 2024 राजनीतिक दृष्टिकोण से अभी तक महत्वपूर्ण हुआ है। इस साल 18वीं लोकसभा का चुनाव संपन्न हुआ। चुनाव के नतीजों ने एक बात पर मजबूती से मुहर लगाई कि संविधान बदलने की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लोकसभा चुनाव से लेकर हरियाणा, जम्मू कश्मीर और अब झारखंड, महाराष्ट्र में भी विपक्षी इंडिया गठबंधन और खासकर राहुल गांधी लगातार संविधान के मुद्दे पर मुखर हैं। राहुल गांधी संविधान पर अब एक नया विमर्श खड़ा कर रहे हैं। राहुल गांधी द्वारा संविधान सम्मान सम्मेलन की पिछली दो सभाओं के भाषणों पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट तौर पर नजर आती है कि वह संविधान में निहित ऐतिहासिक विरासत, पूर्व धारणाओं तथा मूल्यों पर जोर दे रहे हैं।

मसलन, बीते 5 अक्टूबर, 2024 को कोल्हापुर, महाराष्ट्र की सभा में उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर संविधान की रक्षा की बात कहते हुए उसमें निहित मूल्यों और परिवर्तनवादी अतीत का जिक्र किया। ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा किये गए छत्रपति शिवाजी महाराज के अपमान की याद दिलाते हुए राहुल गांधी ने कहा कि जिस विचार ने उनका राज्याभिषेक नहीं होने दिया, उसी विचार के लोग आज सत्ता में हैं। सत्ताधारियों ने नई संसद और राम मंदिर के उद्घाटन में आदिवासी राष्ट्रपति को नहीं बुलाकर उनका अपमान किया।

राहुल गांधी ने अपने भाषण में जोतीराव फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज और डॉ. आंबेडकर को भी याद किया। समता, स्वतंत्रता और न्याय के संघर्ष में संत तुकाराम, बासवन्ना, गुरु नानक, सामाजिक क्रांतिधर्मी जोतीराव फुले और डॉ. आंबेडकर का चिंतन भारत के संविधान में निहित है। यही बात राहुल गांधी ने बीते 19 अक्टूबर को झारखंड की राजधानी रांची के संविधान सम्मान सम्मेलन में दोहराई। पूछा जा सकता है कि राहुल गांधी बार-बार इन बातों को क्यों दोहरा रहे हैं?

सर्वविदित है कि 13 दिसंबर, 1946 को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव से शुरू हुआ संविधान निर्माण 25 नवंबर, 1949 को पूरा हुआ। अगले दिन 26 नवंबर को संविधान भारत के लोगों को आत्मार्पित (पारित) किया गया। इसके पहले स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज की आधिकारिक घोषणा को लागू करते हुए पहला स्वाधीनता दिवस मनाया गया था। इस तारीख को यादगार बनाने के लिए संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। लेकिन राहुल गांधी संविधान निर्माण की तीन साल की काल अवधि को भारत की विशाल परंपरा से जोड़ रहे हैं। रांची में उन्होंने भगवान बुद्ध को याद करते हुए उनके मूल्यों को संविधान से संबद्ध किया। आखिर क्या कारण है कि राहुल गांधी संविधान की यात्रा को तथागत बुद्ध तक लेकर जा रहे हैं?

रांची में आयोजित सम्मेलन को संबोधित करते राहुल गांधी

आमतौर पर संविधान को 1857 से लेकर 1947 के बीच 90 साल तक चले स्वाधीनता आंदोलन और विचार-चिंतन का परिणाम माना जाता है। कांग्रेस के विभिन्न अधिवेशनों में पारित प्रस्ताव और अंग्रेजी सरकार द्वारा लागू किए गए नियम तथा अनेक देशों के महत्वपूर्ण प्रावधानों को संविधान में शामिल किया गया।

गौरतलब है कि संविधान पारित होने के तीन दिन बाद ही 30 नवंबर, 1949 को आरएसएस ने संविधान पर हमला बोलते हुए अपने मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ में लिखा था कि “भारतीय संविधान औपनिवेशिक दासता का प्रतीक है। इस पर विदेशी प्रभाव है।” आरएसएस के अनुसार संविधान में “कुछ भी भारतीय नहीं है, क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं।”

आरएसएस को मनुस्मृति के आधार पर संविधान चाहिए था। इसलिए संघ ने डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखे गए संविधान को मानने से इनकार कर दिया। लंबे समय तक संघ संविधान का खुलकर विरोध करता रहा। लेकिन 1990 के दशक में उसने चुप्पी ओढ़ ली। फिर इसी संविधान के बल पर उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा केंद्र की सत्ता में दाखिल हुई। दस साल से केंद्र में स्थापित होने के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव के समय अधिकतर संघी पृष्ठभूमि वाले भाजपा के दर्जनों नेताओं ने संविधान बदलने के लिए 400 सीटें जीतने का ऐलान किया। हालांकि चुनाव में भाजपा के मंसूबे पूरे नहीं हुए। लेकिन यह खतरा अभी टला नहीं है। आरएसएस का अंतिम लक्ष्य डॉ. आंबेडकर के संविधान को हटाकर मनुवादी संविधान लागू करके भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है।

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे आधुनिक विचारों को संघ ही नहीं, भाजपा के नेता भी विदेशी मानते हैं। भारतीयता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देने वाला संघ संविधान को गैर-भारतीय घोषित करना चाहता है। राहुल गांधी अपने भाषणों के जरिए लगातार एक विचार को मजबूत कर रहे हैं कि संविधान में निहित मूल्य भारतीय हैं। हमारा संविधान स्वतंत्रता, समानता और सम्मान की एक पूरी धारा का प्रतिनिधित्व करता है।

ध्यातव्य है कि डॉ. आंबेडकर ने अपनी चर्चित किताब ‘क्रांति प्रति-क्रांति’ में बुद्ध की परंपरा को क्रांतिधर्मी परंपरा कहा है। उनका मानना है कि वैदिक और हिंदुत्व की वर्णवादी व्यवस्था ने शूद्रों और अछूतों को समाज से बहिष्कृत किया। हिंदुत्व के विचार और व्यवस्था में सदियों तक शूद्रों और दलितों का दमन और शोषण किया जाता रहा। स्वयं डॉ. आंबेडकर ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर क्रांतिधर्मी और परिवर्तनवादी आधुनिक मूल्यों को संविधान में समाहित किया। राहुल गांधी ने रांची में बहुत मुखरता से संविधान के बदले संघ की मनुस्मृति लागू करने की मंशा का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि यह संघर्ष सिर्फ तात्कालिक नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी लड़ाई है। मनुस्मृति के जरिए जो अमानवीयता और अन्याय की व्यवस्था खड़ी की गई थी, आज सत्ताधारी उसी व्यवस्था को देश के पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर लादने की कोशिश कर रहे हैं। इस मानसिकता के नए शिकार अल्पसंख्यक हैं। मुसलमानों और ईसाइयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना इसी व्यवस्था का हिस्सा है।

राहुल गांधी ने इस बात को समझ लिया है कि केवल चुनावी राजनीति के जरिए इस लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन में खुलकर मनुस्मृति का महिमामंडन किया गया है। कतिपय नेताओं और राजनीतिक महत्वाकांक्षी बाबाओं ने मनुस्मृति को लागू करने की मांग की।

डॉ. आंबेडकर के बाद भारत की राजनीति में संघियों की मंशा को कांशीराम ने बखूबी समझा था। उन्होंने राजनीति की एक नई भाषा विकसित की। कांशीराम जी द्वारा स्थापित बसपा की राजनीतिक सफलता की कहानी तो कही जाती है, लेकिन उन्होंने जो भाषा और संगठन की शैली विकसित की, उसका विस्तार से विश्लेषण और मूल्यांकन होना अभी बाकी है। बाबासाहेब ने जातिगत शोषणकारी व्यवस्था को ब्राह्मणवाद कहा था। कांशीराम जी ने इसे मनुवाद की संज्ञा दी। डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के लिए अंततः तमाम हिंदू धर्मशास्त्रों को उत्तरदायी ठहराया। इस क्रम में उन्होंने सर्वाधिक खतरनाक मनुस्मृति की प्रतियों को सांकेतिक रूप से 25 दिसंबर, 1927 को आग के हवाले किया। कांशीराम ने मनुस्मृति पर आधारित ब्राह्मणवाद को मनुवाद कहा। उनका पूरा आंदोलन और संघर्ष इस मनुवादी व्यवस्था को मिटाने के लिए था। लेकिन उनके दिवंगत होने के बाद इस राजनीतिक आंदोलन को विराम लग गया। इसके बाद प्रतिक्रियावादी और मनुवादी आरएसएस भाजपा के जरिए सत्ता के केंद्र तक पहुंच गया।

आज मनुवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के लिए संघ बेचैन है। चुनावी लोकतंत्र में सीधे तौर पर संघ इस व्यवस्था को थोपने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। इसलिए उसका मकसद पहले संविधान को हटाकर लोकतंत्र को बेमानी बना देना और उसके बाद हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है। हिंदू राष्ट्र के मायने क्या है? स्त्रियों, दलितों और वंचितों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में विवेकहीन और असहाय गुलाम बनाना। इसलिए आज की सबसे बड़ी लड़ाई संविधान को बचाने की लड़ाई बन गई है। संविधान के प्रति सम्मान ही नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा करना असली दायित्व है।

महत्वपूर्ण यह है कि राहुल गांधी ने इस खतरे को भांपकर अपनी पूरी राजनीति को संविधान पर केंद्रित कर दिया है। राहुल गांधी ने डॉ. आंबेडकर से लेकर भगवान बुद्ध की विरासत का जिक्र करके यह बता दिया है कि उनकी नजर में भारतीयता और भारतीय परंपरा क्या है। यह पूरी विरासत भारत के संविधान में निहित है। मनुस्मृति पर आधारित ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था भारत की विरासत नहीं हो सकती। इसीलिए राहुल गांधी ने रांची में कहा कि संविधान को खतरा मनुस्मृति से है। राहुल गांधी आरएसएस की सोच पर सीधा हमला कर रहे हैं।

अब सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी इस वैचारिक लड़ाई को जीत पाएंगे?

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