अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

*इस सरकार ने देश को जो जख्म दिए हैं, अब वे मवाद बनकर फूटने लगे हैं!*

Share

*( महेंद्र मिश्र)*

संविधान ही नहीं, अब समय देश बचाने का है। पिछले दस सालों में इस सरकार ने देश को जो जख्म दिए हैं, अब वे मवाद बनकर फूटने लगे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस शेखर यादव की घटना उसी का एक रूप है। न्याय की वेदी पर बैठा एक शख्स, जिसके लिए हर नागरिक न केवल बराबर है, बल्कि समान न्याय का हकदार है, वह खुले आम एक जमात को गाली दे रहा है। वह उन्हें उन शब्दों से नवाज रहा है, जिसको कोई अनपढ़ और अशिक्षित शख्स भी किसी सार्वजनिक स्थान पर बोलने से परहेज करेगा। वह खुलेआम मुसलमानों को कठमुल्ला बोलता है। 

और जो बात इस देश की सरकार भी अभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है कि यह देश बहुसंख्यकों यानि हिंदुओं के नेतृत्व और उसके इशारे पर चलेगा, उसको वह शख्स बेधड़क कह रहा है। जिस जज को इन सारे मसलों पर सरकार से सवाल पूछना था, वह उस काम को छोड़कर, खुद सरकार के पाले में खड़ा हो गया है। और उससे भी चार कदम आगे बढ़कर हिंदुत्व की अगुवाई कर रहा है। जज से ज्यादा बजरंगदली दिखने की यह फितरत जज महोदय के अपने किसी महत्वाकांक्षी कैरियरवादी गेम प्लान का हिस्सा हो सकता है। लेकिन अपनी हरकतों से उन्होंने न केवल संविधान, बल्कि उसकी पूरी गरिमा को तार-तार कर दिया है। 

उन्हें जस्टिस जैसे शब्द से भी संबोधित करना उस शब्द का अपमान है। वैसे भी उनके भीतर उसका रत्ती भर भी अंश मौजूद नहीं है। न ही वह न्याय का क ख ग जानते हैं और न ही उससे उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता है। अनायास नहीं अपने भीतर जमी वर्षों की घृणा को वह एक ही सांस में बाहर निकाल देते हैं। एक ही मंच पर, एक ही भाषण में उन्होंने वह सब कुछ उगल दिया, जिसके बारे में कोई नफ़रती नेता भी बच-बच कर बोलने का प्रयास करता है। दिलचस्प बात यह है कि वह मंच भी उसी न्यायिक परिसर में स्थित था, जिसमें वह न्याय की कुर्सी संभालते हैं। और इसी मंच से उन्होंने मुसलमानों को कठमुल्ला बोलने से लेकर कॉमन सिविल कोड लागू कराने और हिंदुत्व के बहुमत के मुताबिक पूरे देश को संचालित करने के सारे संघी एजेंडे को सामने रख दिया।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने यह बात पहली बार कही है। केवल बाहर मंच पर ही नहीं, अपने न्यायिक फैसलों और टिप्पणियों में भी वह अपनी इसी घृणा को प्रदर्शित करते रहे हैं। इसके पहले भी उन्होंने अपनी एक न्यायिक टिप्पणी में गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही थी और उसकी रक्षा को हिंदुओं का बुनियादी अधिकार बताया था। उनका कहना था कि जब देश की संस्कृति और आस्था पर चोट पहुंचती है, तो देश कमजोर होता है। यह सज्जन कोर्ट की कार्यवाहियों में संविधान, उसकी धाराओं और अनुच्छेदों से ज्यादा मनुस्मृति, वेदों और उसकी ऋचाओं का उल्लेख करते हैं। इससे समझा जा सकता है कि वह किस जेहनियत के शख्स हैं और उनके दिमाग में कोई आधुनिक वैज्ञानिक सेकुलर चेतना नहीं, बल्कि गाय का गोबर भरा हुआ है, जिससे वह राष्ट्र के मानस ही नहीं, बल्कि उसके पूरे भविष्य को ही लीप देना चाहते हैं।

उससे भी ज्यादा अचरज की बात यह है कि वह उस कोर्ट तक पहुंच कैसे गए? एक ऐसा शख्स जो इतने घृणित विचारों के साथ पल रहा हो, क्या उसे देश की उच्च न्यायपालिका में स्थान दिया जा सकता है? वह उस कुर्सी के लायक है, जिसे विक्रमादित्य की पीठ के बराबर का दर्जा हासिल है। कहने को तो सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम पूरी छान-बीन के बाद ही किसी जज की नियुक्ति का फैसला लेती है। इनके केस में फिर क्या हुआ? ऐसा नहीं है कि इस छान-बीन में उनकी शख्सियत और उनके विचारों के बारे में पता न चला हो। ज्यादा संभावना इसी बात की है कि सब कुछ जानते हुए ही यह मक्खी निगली गयी है। और इसको निगलवाने में भी सरकार का ही बहुत बड़ा हाथ रहा होगा। 

पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व में बनायी गयी कोलेजियम ने इनकी नियुक्ति की हरी झंडी दी थी। और रिटायरमेंट के बाद रंजन गोगोई किस नाले में जाकर गिरे, यह पूरा देश न केवल जानता है, बल्कि उसने अपनी नंगी आंखों से उसको देखा है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकार जिस तरह से सीधे हस्तक्षेप कर रही है, इतिहास में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। सत्य, न्याय और सेकुलरिज्म के रास्ते पर चलने वाले जजों की संस्तुति वाली फाइलों को दबा दिया जा रहा है और जस्टिस शेखर जैसे लोगों की ऐन-केन प्रकारेण नियुक्तियां करायी जा रही हैं। यही मौजूदा दौर का सच है और यही इस निजाम की नीति है। 

इन सज्जन के न केवल काम पर तत्काल रोक लगायी जानी चाहिए, बल्कि इनके अब तक के दिए गए सारे फैसलों की फिर से समीक्षा की जानी चाहिए। और उसके साथ ही इनके खिलाफ महाभियोग लाकर इन्हें पूरी न्यायपालिका से अलग कर दिया जाना चाहिए। जिससे इस तरह के लोगों को सबक मिल सके कि जो इस तरह के विचार रखते हैं, उनके लिए न्यायपालिका में कोई स्थान नहीं है। इस घटना से यह बात समझ में आती है कि न्यायपालिकाओं में इस तरह के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और संख्या और विचार के स्तर पर यह वर्चस्व का रूप लेती जा रही है, वरना कोई इस तरह की हिम्मत नहीं कर पाता। समाज में भी कमोबेश इस तरह के घृणित विचारों की स्वीकारोक्ति है। उसी का नतीजा है कि वह खुली सभा में इस तरह की बातों को बोलने की हिम्मत कर सके।  

जगह-जगह संस्थाओं में अपने आदमियों यानी अपनी विचारधारा के लोगों को बैठाना संघ का पुराना एजेंडा रहा है। और अब जब कि सरकार अपनी है, तो वह शिक्षण संस्थाओं से लेकर न्यायपालिकाओं और नौकरशाही से लेकर निचली दूसरी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर पूरी तरह से कब्जा कर लेना चाहती है, जिससे अपने हाइड्रा रूपी इस विस्तार के साथ पूरी व्यवस्था को ही अपनी गिरफ्त में लिया जा सके, जिसका आखिरी नतीजा यह होगा कि विरोध में उठने वाली हर आवाज को अभी तो दबाया जा रहा है, आने वाले दिनों में ऐसा करने वालों की जबान काट ली जाएगी। ऐसे में देश में स्वतंत्रता और आज़ादी का जो मतलब आम नागरिकों के लिए था, वह इतिहास हो जाएगा। इस तरह से देश में गुलामों की नई पौध और पीढ़ी तैयार होगी, जिसे चलने और काम करने के लिए महज एक इशारा ही काफी होगा।

देश में बहिष्करण का जो पूरा अभियान चलाया जा रहा है, वह बेहद खतरनाक है। अभी किसी को लग सकता है कि यह केवल मुसलमानों के खिलाफ केंद्रित है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और सारे वंचित तबकों के भी खिलाफ है। यहां तक कि यह मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से को भी उसके दायरे से बाहर कर देगा। और अंत में केवल पांच फीसदी के पक्ष में होगा, जिसमें कॉरपोरेट, उच्च मध्य वर्ग और सवर्ण शामिल होंगे। ब्राह्मणवादी हिंदुत्व और कॉरपोरेट की यह जुगलबंदी पूरे देश पर भारी पड़ने जा रही है।

*(महेंद्र मिश्र ‘जनचौक’ के संपादक हैं।)*

Add comment

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें