राजेन्द्र शर्मा
हिन्दी साहित्य की दुनिया में लघु पत्रिकाओं का अपना विशिष्ट स्थान है। हिन्दी के समकालीन तमाम लब्ध प्रतिष्ठित कवि, कथाकार, लेखकों की पहली रचनाएं इन्हीं लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। लघु पत्रिकाओं के साहित्य में अवदान पर जब-जब चर्चा होगी, लखनऊ से 1967 में प्रकाशित लघु पत्रिका ‘आरंभ’ का जिक्र जरूर होगा। ‘आरंभ’ के कुल छह अंक ही निकले, जिनमें कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, मलयज, वीरेन डंगवाल, अशोक वाजपेयी, विनोद शुक्ल, नरेश सक्सेना, मृणाल पांडे, लीलाधर जगूड़ी, गिरधर राठी, दूधनाथ सिंह, अजय सिंह, प्रयाग शुक्ल, महेंद्र भल्ला, पुष्पेश पंत, राजकमल, कृष्ण नारायण कक्कड़, कमलेश जैसे बड़े रचनाकारों की रचनाएं छपीं। जिसके कारण उस समय ‘आरंभ’ को बड़े लेखकों की छोटी पत्रिका कहा गया। बिना किसी संसाधन के लगभग अठारह वर्ष के एक युवक की दीवानगी में प्रकाशित इस छोटी-सी पत्रिका ‘आरंभ’ का इतना दबदबा था कि उस समय सारिका जैसी बड़ी पत्रिका के बड़े कथाकार, संपादक कमलेश्वर को अनिल कुमार घई के छद्म नाम से ‘आरंभ’ के खिलाफ एक लेख लिखना पड़ा था।
‘आरंभ’ के प्रकाशन के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के स्नातक के छात्र अठारह वर्ष के युवा विनोद भारद्वाज की दीवानगी थी, जिन्हें आज प्रतिष्ठित कवि, कथाकार, उपन्यासकार, संपादक, फ़िल्मकार और घर बेचकर दुनियाभर में यायावरी करने वाले के रूप में जाना जाता है। कविता के लिए प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित विनोद भारद्वाज के पुरखे अखंड भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान से आकर शरणार्थी के रूप में लखनऊ में बस गए थे। लखनऊ के सिंगार नगर में रहने वाले स्टेट बैंक में कैशियर के पुत्र विनोद भारद्वाज के परिवार में कला और साहित्य से कोई सरोकार नहीं था।
ग्यारहवीं क्लास में पढ़ते हुए विनोद भारद्वाज ने उन्मेष नाम से एक पत्रिका निकाली। साल 1964 में ‘उन्मेष’ का पहला अंक प्रकाशित होते ही उत्साहित विनोद भारद्वाज ने उस समय प्रतिष्ठित कवि राजकमल को पोस्टकार्ड भेजकर उन्मेष के लिए कविता भेजने का आग्रह किया। कवि राजकमल ने तुरन्त गहरे गुलाबी कागज पर अपनी हस्तलिपि में तीन कविताएं भेज दीं। इनमें से दो कविताएं ‘उन्मेष’ के तीसरे और अंतिम अंक में छपीं। उस समय कॉलेज के ही एक अन्य सहपाठी द्वारा ‘उन्मेष’ नाम से अपनी पत्रिका प्रकाशित करने के बाद ही विनोद भारद्वाज ने ‘उन्मेष’ का प्रकाशन बंद कर दिया।
इंटरमीडिएट के बाद स्नातक के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय पहुंचने तक विनोद भारद्वाज की अपने उम्र से लगभग आठ साल बड़े प्रतिभाशाली प्रिंटमेकर जयकृष्ण अग्रवाल और ख्यात कवि नरेश सक्सेना से दोस्ती हो गई। तीनों ने मिलकर ‘आरंभ’ के प्रकाशन की योजना बनाई। कवि नरेश सक्सेना पेशे से इंजीनियर थे और सरकारी नौकरी में थे, जबकि जयकृष्ण अग्रवाल कला महाविद्यालय में प्रिंट सेक्शन के प्रमुख थे। लिहाजा ‘आरंभ’ के स्वामित्व, संपादक के रूप में विनोद भारद्वाज तथा पत्रिका के कार्यालय के रूप में विनोद भारद्वाज के घर का पता 10ए, सिंगार नगर, लखनऊ जोड़ा गया।
पेंटर गोगी सरोज पाल भी ‘आरंभ’ की संपादकीय टीम से जुड़ी थीं। प्रिंटमेकर जयकृष्ण अग्रवाल ने पहले अंक से ‘आरंभ’ के कला पक्ष को नायाब बना दिया। उस समय के नामी कलाकारों के रेखांकन कविताओं के साथ छपे। दूसरे अंक का कवर तो अद्भुत था। लोग हैरत में थे कि कैसे एक लघु-पत्रिका का कवर इतने रंगों में हो सकता है। लखनऊ के शिवाजी मार्ग पर स्थित साथी प्रेस में पत्रिका छप जाने पर विनोद भारद्वाज ढाई सौ प्रतियां साइकिल के पीछे बांधकर अपने घर लाते और उसका वितरण करते।
साहित्यिक जगत में ‘आरंभ’ की चर्चा देशव्यापी हुई। काफलपानी से उन्नीस साल के संघर्षशील युवा और कवि मंगलेश डबराल ने संपादक विनोद भारद्वाज को बड़ी उम्र का संपादक समझते हुए, बतौर पाठक एक पोस्टकार्ड भेजा, जिसमें लिखा कि ‘मैं उन्नीस साल का संघर्षशील लड़का हूं, जबकि संपादक विनोद भारद्वाज उम्र में मुझसे थोड़ा छोटे ही थे।’ कवि रघुवीर सहाय की कविता- जानना था जानना था। मुझे कुछ और करना था, कुछ और कर रहा हूं… सबसे पहले ‘आरंभ’ में ही छपी, जो उन्होंने अपनी हस्तलिपि में संपादक विनोद भारद्वाज को दी थी। कविता के अग्रिम माने जाने वाले कवि धूमिल की चर्चित कविता मोची राम भी ‘आरंभ’ में छपी थी।
हालांकि, आरंभ के केवल छह अंक ही प्रकाशित हुए, लेकिन 1967-1968 के उस दौर में नामचीन साहित्यकारों ने संपादक को जो पत्र लिखे, वह साहित्य की धरोहर हैं।
लगभग 58 साल पहले की स्मृतियां याद आते ही संपादक विनोद भारद्वाज की आंखें चमक उठती हैं। अपनी स्मृतियों को याद करते हुए वह विनम्रता से बताते हैं कि ‘नरेश और जय के बिना ‘आरंभ’ का कोई अस्तित्व न होता।’
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