भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी पॉडकास्टर लेक्स फ्रीडमैन को दिए इंटरव्यू में अपनी विदेश नीति को समझाते हुए कहा है कि हिन्दुस्तान न आँख झुकाकर बात करेगा, न आँख उठाकर बात करेगा लेकिन अब हिन्दुस्तान आँख में आँख मिलाकर बात करेगा.इसके पहले पीएम मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर निशाना साधते हुए कहा था कि चीन से आँख लाल करके बात करनी चाहिए थी, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ऐसा नहीं कर रहे हैं.
लेकिन डिप्लोमेसी में या विदेश नीति में ‘आँख से आँख मिलाकर बात करने’ का मतलब क्या होता है? क्या मोदी सरकार वाक़ई दुनिया के देशों से आँख के आँख मिलाकर बात कर रही है?
यही सवाल यूएई और मिस्र में भारत के राजदूत रहे नवदीप सिंह सूरी से पूछा तो उन्होंने कहा, ”आँख से आँख मिलाकर बात करने का मतलब है कि बराबरी से बात करना. किसी के सामने झुकना नहीं और अपने हितों की रक्षा करना. हम दूसरे देश को इज़्ज़त देते हैं तो इज़्ज़त की अपेक्षा भी रखते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत पहले आँख से आँख मिलाकर बात नहीं करता था.”
”भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही इसकी बुनियाद रख दी थी और बाक़ी के नेताओं ने इसे फॉलो किया. हम कैसे कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी आँख से आँख मिलाकर बात नहीं करतीं थीं. हमने हमेशा से आत्मसम्मान के साथ बात की है.”
नवदीप सूरी कहते हैं, ”इंदिरा गांधी की आँख से आँख मिलाकर बात करने की कई कहानियां हैं. पाकिस्तान का विभाजन इंदिरा गांधी ने किया और अमेरिका के न चाहते हुए किया. आँख से आँख मिलाकर बात करने की हमारी विदेश नीति की एक परंपरा है और इसी परंपरा का पालन भारत के हर प्रधानमंत्री ने कमोबेश किया है.”

इंदिरा गांधी जब भारत की प्रधानमंत्री थीं तो पाकिस्तान का विभाजन हुआ था और बांग्लादेश अलग हुआ था
भारत की विदेश नीति की बुनियाद
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में दबाव डाला था कि ईरान से तेल आयात भारत बंद करे. भारत ने दबाव में ईरान से तेल ख़रीदना बंद कर दिया था. लेकिन रूस के मामले में भारत ने अमेरिकी दबाव को स्वीकार नहीं किया. तो क्या भारत ने ईरान के मामले में अमेरिका के सामने आँखें झुका लीं?
नवदीप सूरी कहते हैं, ”ऐसा नहीं है. आँख से आँख मिलाकर बात करने का मतलब ये नहीं है कि आप अपने हितों पर चोट करें. हम मूल्यांकन करते हैं कि कहां हमारे हित ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं और कहाँ कम. हम झगड़ा नहीं करना चाहते हैं. पिछले दो दशकों से अमेरिका के साथ संबंधों में एक निरंतरता है. जहाँ इतने अलग-अलग मोर्चों पर संबंध होंगे तो ज़ाहिर है कि कहीं मतभेद होगा तो कहीं सहमति होगी. हितों का संतुलन देखना होगा. हम उनकी (अमेरिका की) कई बातें मानते हैं और कई बातें नहीं मानते हैं.”
अगर भारत आँख से आँख मिलाकर बात कर रहा है तो सरहद पर आक्रामकता के मामले में चीन को भी पाकिस्तान की तरह जवाब क्यों नहीं देता है?
इसके जवाब में नवदीप सूरी कहते हैं, ”अगर हम हर देश को एक ही तराजू पर रखेंगे तो ये हमारी मूर्खता होगी. हम पाकिस्तान और चीन को एक तरीक़े से डील नहीं कर सकते हैं. हमारे हित अलग हैं, स्थितियां अलग हैं. आँख से आँख मिलाकर बात करने का मतलब कल्पनाओं में रहना नहीं है. आँख मूंद लेना नहीं है बल्कि यथार्थवादी होना है.”
नेहरू ने रखी बुनियाद

जब भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ तो उससे कुछ पहले ही दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म हुआ था. दूसरे विश्व युद्ध के ख़त्म होते ही दुनिया दो ध्रुवों में बँट गई थी. एक का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था और दूसरे का सोवियत संघ. भारत के लिए इतना आसान नहीं था कि किसी गुट में शामिल हो जाए. लेकिन नेहरू ने गुटनिरपेक्ष रहना चुना था.
विदेश नीति को समझने वाले ज़्यादातर विश्लेषक नेहरू के गुटनिरपेक्ष रहने के फ़ैसले को समझदारी भरा कदम मानते हैं. किसी गुट में किसी के मातहत रहकर आँख से आँख मिलाकर बात संभव नहीं थी. ऐसे में नेहरू ने इसे ख़ारिज किया और भारत की राह गुटनिरपेक्षता में देखी.
हंगरी में सोवियत यूनियन के हस्तक्षेप के एक साल बाद 1957 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में बताया था कि भारत ने क्यों इस मामले में यूएसएसआर की निंदा नहीं की.
नेहरू ने कहा था, ”दुनिया में साल दर साल और दिन ब दिन कई चीज़ें घटित होती रहती हैं, जिन्हें हम व्यापक रूप से नापसंद करते हैं. लेकिन हमने इनकी निंदा नहीं की है क्योंकि जब कोई समस्या का समाधान खोज रहा होता है तो उसमें निंदा से कोई मदद नहीं मिलती है.”
नेहरू की यह नीति भारत को टकराव की स्थिति में राह दिखाती रही है. ख़ासकर तब जब टकराव भारत के साझेदारों के बीच होता है.सोवियत यूनियन का चाहे 1956 में हंगरी में हस्तक्षेप हो या 1968 में चेकोस्लोवाकिया में या फिर 1979 में अफ़ग़ानिस्तान में सब में भारत की लाइन कमोबेश यही रही है.
2003 में जब अमेरिका ने इराक़ पर हमला किया तब भी भारत का रुख़ इसी तरह का था. 2014 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर क्राइमिया को अपने में मिला लिया तब भी भारत का रुख़ ऐसा ही था. यूक्रेन पर हमले में रूस की निंदा नहीं करना और संयुक्त राष्ट्र के निंदा प्रस्ताव में वोटिंग से बाहर रहना मौलिक रूप से भारत के तटस्थता वाले ऐतिहासिक रुख़ से अलग नहीं है.यूक्रेन पर रूस के हमले के मामले में भारत ने अमेरिकी बात तब नहीं सुनी जब दुनिया के कई देशों ने ऐसा ही किया.

ट्रंप के मामले में आँख से आँख मिला पा रहा है भारत?
दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में सेंटर फोर वेस्ट एशियन स्टडीज में प्रोफ़ेसर सुजाता ऐश्वर्या से पूछा कि क्या ट्रंप के मामले में पीएम मोदी आँख से आँख मिलाकर बात कर रहे हैं?
प्रोफ़ेसर सुजाता ऐश्वर्या कहती हैं, ”अगर भारत आँख से आँख मिलाकर बात करता तो ट्रंप के टैरिफ के जवाब में भारत भी टैरिफ लगाने की घोषणा करता. जैसे यूरोपियन यूनियन के देश कर रहे हैं. जैसे कनाडा कर रहा है. पीएम मोदी व्हाइट हाउस में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की तरह खुलकर जवाब देते. आँख से आँख मिलाकर आप तभी बात कर सकते हैं, जब आप दुनिया के बड़े आर्थिक पावर बन जाएं. हम पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं, लेकिन प्रति व्यक्ति आय में इराक़ और ईरान से भी पीछे हैं.”
प्रोफ़ेसर सुजाता ऐश्वर्या कहती हैं, ”अगर हमारे पास ताक़त होगी तो ज़रूर आँख से आँख मिलाकर बात कर पाएंगे नहीं तो ये सारी बातों का अर्थ हम नारों में खोजते रह जाएंगे. मुझे तो कई बार चिंता होती है कि भारत दक्षिण एशिया में अलग-थलग होता दिख रहा है.”
जयशंकर भारत के रुख़ पर पश्चिम के सवालों का जवाब बहुत ही आक्रामक तरीक़े से देते रहे हैं. 2022 में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ”यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है.”
लेकिन 1948 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा में नेहरू कुछ ऐसा ही भाषण दिया था.नेहरू ने कहा था, ”यूरोप की समस्याओं के समाधान में मैं भी समान रूप से दिलचस्पी रखता हूँ. लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दुनिया यूरोप के आगे भी है. आप इस सोच के साथ अपनी समस्या नहीं सुलझा सकते हैं कि यूरोप की समस्या ही मुख्य रूप से दुनिया की समस्या है. समस्याओं पर बात संपूर्णता में होनी चाहिए. अगर आप दुनिया की किसी एक भी समस्या की उपेक्षा करते हैं तो आप समस्या को ठीक से नहीं समझते हैं. मैं एशिया के एक प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहा हूँ और एशिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है.”
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