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तालिबान से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी ?

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अनुराग मिश्र

अपने देश में एक कहावत है बदमाशों से दूर ही रहते हैं। उनकी न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी। ‘बदमाशों’ की जगह अपने-अपने इलाके में नई कहावतें गढ़ ली गई हैं, वो दूसरी बात है। फिलहाल बात बदमाशों की ही करते हैं। ऐसे ही कुछ बदमाश भारत के पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में सत्तासीन हो चुके हैं। भारत (पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर बॉर्डर से) करीब 106 किमी की सीमा अफगानिस्तान से साझा करता है। तकनीकी लिहाज से देखें, तो उस देश में बदलते घटनाक्रम से भारत के अलर्ट रहने की यह एक बड़ी वजह है। इतना ही नहीं, भारत की लुक ईस्ट नीति हो या लुक वेस्ट, हमने हमेशा अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते चाहे हैं, वो बात अलग है कि पाकिस्तान और चीन जैसे दो देशों ने कई बार पीठ में छुरा घोपने का काम किया है। पर, सर्वे भवन्तु सुखिन: का पाठ करने वाले भारतीयों की संस्कृति हमें सब के कल्याण की ही शिक्षा देती है। ऐसे में अफगानिस्तान में जब आतंकियों ने सरकार बना ली है, भारत करे तो क्या करे?

तालिबान के लड़ाके (जैसा कि कुछ लोग कहते हैं), जिहादी (ऐसा लगता है बड़े पाक मिशन पर निकले हों) जैसे शब्दों से अपना दामन छिपाने वाले इन खूंखार आंतिकयों को आतंकी न कहा जाए तो क्या कहें। जो किसी महिला के पुरुष से बात करने पर सजा दें, बच्चियों को पढ़ने न दें, पढ़ने की कोशिश पर गोली मार दें, खुलेआम कत्लेआम करे, महिलाओं का शोषण और दरिंदगी की हदें पार करें, ऐसे अशांति पसंद खूंखार लोगों से कैसे बरताव किया जाए। यह सवाल पाकिस्तान और कुछ हद तक चीन को छोड़कर पूरी दुनिया के सामने है। जैसे किसी लोकतांत्रिक देश में शीर्ष पद होते हैं नाम तो वैसे तालिबान सरकार में भी रखे गए हैं, बस बैठने वालों के हाथ खून से सने हैं। पश्तो जबान में छात्रों को तालिबान कहते हैं। पर वहां जो सरकार बनी है उसमें पीएम, गृह मंत्री भी वैश्विक आतंकवादी हैं।

पाकिस्तान, कतर, तुर्की जैसे इस्लामिक देशों से अलग-अलग तरह की मदद पा रहे तालिबान की लीडरशिप बंदूक के दम पर राज चलाएगी या दुनिया में अपनी सरकार को मान्यता दिलाने के लिए आतंकवाद से तौबा करेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल रवैया तो सुधार की तरफ नहीं दिख रहा है। कितना भी 2.0 की बात की जाए पर, बीते एक महीने में अलग-अलग घटनाओं से यही साबित हुआ कि तालिबान तरीका भले बदल ले पर उसकी नीयत नहीं बदलने वाली।

अपने देश में भी खबरों और ट्वीट में तालिबान चर्चा में है। ओवैसी अपना पुराना वीडियो दिखाकर कह रहे हैं कि मैंने पहले ही कहा था कि सरकार तालिबान से बात करे, अब देखो वो सरकार बना बैठे हैं। पूर्व राजनयिकों की राय है कि फिलहाल तालिबान और दूसरे मित्र देशों के कदमों का इंतजार करना चाहिए। हालांकि भारत कितना वेट करेगा? करीब 23 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का वहां निवेश है, क्या उसे भुला दिया जाए? भारत ने वहां की संसद बनवाई, उसे टूटने दिया जाए। अगर हमने तालिबान से दूरी बनाई और उनसे मुंह मोड़ लिया तो इस बात की पूरी आशंका है कि पाकिस्तान और चीन भारत के खिलाफ उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

तालिबान ने इस्लामिक शरीयत पर सरकार चलाने का ऐलान किया है। ऐसे में धर्म के नाम पर उकसाना, बरगलाना ज्यादा आसान होगा। वैसे भी तालिबान की टॉप लीडरशिप मतलब बड़े आतंकियों की ओर से कई बार कहा जा चुका है कि मुसलमान होने के नाते कश्मीर पर बोलने का उनका हक है। मतलब साफ है तालिबान मुस्लिम हितैषी बताकर दुनियाभर के मुसलमानों को बरगलाने की कोशिश कर सकता है। वे तो यही चाहेंगे कि दुनियाभर में खासतौर से आसपास के देशों में शरिया ही चले।

ट्रेलर देख लीजिए, तालिबान में आतंकी सरकार बनी, वहां की संसद में जनप्रतिनिधियों की सीट पर ऑटोमैटिक हथियार लिए आतंकियों की तस्वीरें मीडिया में आईं, तो भारत में कुछ हमदर्दों का दिल बाग-बाग हो गया। वे कहने लगे कि तालिबान बदल गया है, कुछ ने तो इसे भारत की आजादी के क्रांतिकारियों से जोड़ दिया। कुछ नेताओं को समझ में नहीं आया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ = तालिबान का फॉर्म्युला समझाने लगे। मतलब ऐसे गिने-चुने लोग माहौल खराब करने लगे हैं और पूरी संभावना है कि आगे भी तालिबान के फैसलों पर ये गुणगान करके गंध फैला सकते हैं।

सवाल फिर वही, भारत करे तो क्या करे? अब तक भारत वेट एंड वॉच की मुद्रा में है। भारत सरकार पीएम, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, विदेश मंत्री, सचिव अलग-अलग स्तरों पर अपने मित्र देशों से संपर्क में हैं और अफगानिस्तान के हालात पर मंत्रणा चल रही है। कट्टरपंथी और खूंखार आतंकी पीएम या दूसरे मंत्रियों से कैसे वार्ता की जाए, कैसे उन्हें बुलाया जाएगा, या अगर वे न्योता देते हैं तो वहां जाया जाए। यह सवाल भारतीय लीडरशिप में कौंध रहा होगा। 1996 में भले ही हमने उनकी सरकार को मान्यता नहीं दी थी, पर अब 2021 में हालात काफी बदल चुके हैं।

दुनिया से अलग कटकर रहते हुए प्रतिबंधों के कारण आतंकियों के लिए मुश्किलें तमाम होंगी। वे दूसरे देशों की यात्रा नहीं कर सकते, इनके नाम से कोई देश वीजा नहीं दे सकता, न हथियार खरीद और बेच सकते हैं। न प्लेन न शिप का इस्तेमाल होगा…. पर यह भी तो समझिए कि ये आतंकी हैं इनके शब्दकोष में वैध और कानूनी जैसे शब्द नहीं हैं।

श्रीनगर से 500 किमी की हवाई दूरी पर बसे काबुल में तालिबान का राज आते ही अपने घरों में बैठकर गुणा-गणित लगा रहे कश्मीर के सियासतदान फौरन उम्मीद और सच्ची शरिया की बातें करने लगे हैं। दरअसल, धर्म के आधार पर भारत और पाकिस्तान के बंटवारे ने कई तरह की दूरियां पैदा कर दीं, जिसे या तो भरने नहीं दिया गया या बनाए रखा गया क्योंकि सियासी लोगों का फायदा इसी में था। शायद यही वजह है कि इंसानियत या भारतीयता के नाम पर एकजुटता कम और धर्म के नाम एकजुटता ज्यादा असर करती है। कश्मीर को फिलहाल इससे बचाए रखना होगा।

वैसे भी 370 के खत्म होने के बाद कश्मीर के सियासी लोगों के पास मुद्दे खत्म हो गए हैं और उनकी पहुंच सीमित हो गई है। वे यह जरूर चाहेंगे कि कश्मीर की दुनिया में चर्चा हो, आतंकी कश्मीरी मुसलमानों की बात करें जिससे वे अपने समीकरण साध सकें। फिलहाल, आतंकवाद पर नियंत्रण है और सेना को हालात से निपटने के लिए खुली छूट है। ऐसे में सियासी साजिश से संभलकर रहना होगा। अबतक कश्मीर को सुलगाने की साजिशें पाकिस्तान से होती रही हैं, अगर काबुल में भी लश्कर-जैश-हक्कानी की चली तो नई टेंशन खड़ी हो सकती है।

इसकी वजह भी है। दरअसल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बड़े कट्टरपंथियों के स्कूल एक ही हैं। आतंकियों वाली सरकार बनी तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया में एक बार फिर यह स्कूल चर्चा में है। इसका नाम है जामिया दारुल उलूम हक्कानिया। जानकार कहते हैं कि यह तालिबान की एक ऐसी यूनिवर्सिटी है, जहां से पढ़ने वाले छात्र पाकिस्तान और अफगानिस्तान में धार्मिक, राजनीतिक और सैन्य आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे हैं। तालिबान की नई सरकार में कई मंत्री यहीं से पढ़कर निकले हैं।

इसकी बुनियाद पाकिस्तान बनने के एक महीने बाद रखी गई थी और यह पेशावर के पास स्थित है। साफ है कि दीन-दुनिया की जो बातें यहां बताई गई हैं वही पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कट्टरपंथियों के दिलोदिमाग में घुसी हैं। फिर उनसे प्रगतिशील विचारधारा की उम्मीद ही क्या कर सकते हैं, जैसा कि अपने देश में कुछ हमदर्द अलाप रहे हैं।

तालिबान ने कश्मीर के मुसलमानों की चर्चा कर मंशा साफ कर दी है। भारत सरकार और एजेंसियां अलर्ट हैं। वहां ‘आतंकी सरकार’ बनने के दो दिन बाद ही गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, उपराज्यपाल, खुफिया एजेंसियों के चीफ्स के साथ बैठक की।

हालांकि, वेट एंड वॉच की मुद्रा से एक समय भारत को बाहर निकलना ही होगा और फिर दुनिया के देश अपने-अपने हिसाब से कदम उठाएंगे। भारत ऐसी जटिल परिस्थिति में उसी कहावत ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ पर आगे की योजना बना सकता है। भारत के लिए एक अच्छा और सुरक्षित विकल्प यही हो सकता है कि हम तालिबान के साथ अपने हितों के मुताबिक बातचीत शुरू करें, जिससे पाकिस्तान या चीन को उसके कान भरने या भारत के खिलाफ नापाक मंसूबों के कामयाब होने का मौका न मिले। हां, ये अलग बात है कि लोकतांत्रिक सरकारों से अलग हमें आतंकी सरकार मानकर ही उनसे संवाद बनाना होगा। यहां प्यार की झप्पी वाली बात नहीं होगी।

अभी तो कई मुस्लिम देशों की खैरात पर तालिबान सरकार चला रहा है, पर कब तक? एक समय उसे भी अर्थव्यवस्था को समझना होगा और अपने फायदे के लिए दुनिया के देशों से संबंध बनाने होंगे। हम पड़ोसी नहीं बदल सकते, पाकिस्तान और चीन से पहले ही तनातनी चलती रहती है, अगर अफगानिस्तान में भारत के खिलाफ ‘शून्य’ बनने दिया गया तो एक नया मोर्चा तैयार हो जाएगा, जो हमारे हित में नहीं होगा।

एक कहावत और फिलहाल के लिए विराम

‘वक्त पड़े बांका तो गधे को कहै काका’।

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