पूरी दुनिया अमेरिका को विश्व के सबसे शक्तिशाली,सामर्थ्यवान व सभ्य देश के रूप में जानती है। यहां की लोकत्रांतिक व्यवस्था तथा अमेरिकी विदेश नीतियों पर भी दुनिया की नज़र रहती है। कुछ देशों को छोड़कर दुनिया के अधिकांश देश अमेरिका से अपने मधुर संबंध बनाने के लिए लालायित रहते हैं। यहाँ होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव तथा सत्ता हस्तानांतरण को भी दुनिया में बहुत ग़ौर से देखा जाता है। परन्तु पिछले दिनों राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा अमेरिकी सत्ता के केंद्रीय भवन कैपिटल बिल्डिंग में हिंसा उत्पात तथा उपद्रव का जो दृश्य पेश किया गया उसने अमेरिका की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया है। ट्रंप अपने पूरे शासनकाल में एक अति विवादित व अगंभीर राष्ट्रपति के रूप में देखे गए। उन्हें झूठे,सनकी तथा बिना सोचे समझे ऐसे वक्तव्य देने वाले राष्ट्रपति के रूप में देखा गया जिसके शासनकाल में अमेरिका की छवि धूमिल हुई और जिसने इतने बड़े पद पर बैठते हुए अपने निजी लाभ हेतु अनेक अनैतिक निर्णय लिए। यह ट्रंप ही थे जिन्होंने राष्ट्रपति चुनाव से पहले ही यह इशारा कर दिया था कि वे आसानी से सत्ता छोड़ने वाले नहीं हैं। सत्ता में बने रहने की ऐसी ललक पहले किसी राष्ट्रपति द्वारा नहीं दिखाई गयी। ट्रंप ने अपने शासनकाल में लगभग 30 हज़ार बार झूठ बोला जिसे वहां के मीडिया द्वारा संकलित किया गया है। गोया वे अमेरिकी इतिहास के अब तक के सबसे झूठे राष्ट्रपति भी साबित हो चुके हैं। और निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति पद को अपनी बपौती समझने तथा आकंठ भ्रष्टाचार में संलिप्त होने के भय ने ही ट्रंप को अमेरिका में गृहयुद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा करने के लिए मजबूर किया जिससे क्या अमेरिकी रिपब्लिकन तो क्या डेमोक्रेट सभी आहत हुए। अपने हज़ारों अतिवादी व रंग भेद समर्थकों को चुनावोपरांत हार के बावजूद उन्हें कैपिटल बिल्डिंग में हिंसा के लिए आमंत्रित कर ट्रंप ने विश्व को यह सोचने के लिए भी मजबूर कर दिया कि क्या एक सनकी,भ्रष्ट,अलोकतांत्रिक सोच रखने वाले,ज़िद्दी,रंग-भेद व धर्म-जाति का भेद भाव रखने वाले किसी देश के राजनेता के हाथों सत्ता सौंपी जानी चाहिए ?
किसी भी देश का शासक चुनना बेशक वहां की जनता का ही निर्णय होता है। अनेक देश ऐसे भी हैं जहाँ राजशाही अर्थात राजतन्त्र है जबकि कई देशों पर विद्रोहियों या तानाशाहों द्वारा सत्ता पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जाता है। इस स्थिति में वहां की जनता असहाय व मूकदर्शक बनी रहकर अपने तानाशाह शासक या राजा के कार्य करने के तरीक़ों व उसके फ़ैसलों को केवल देखती रहती है तथा उसके अच्छे या बुरे परिणामों को पूरा देश भुगतता रहता है। दुनिया के कई ऐसे देश भी हैं जो इसी तरह के सनकी,सत्ता के लालची,कट्टरपंथी,भ्रष्ट,व हिंसक मानसिकता रखने वाले शासकों के हाथों में पड़कर या तो तबाह व बर्बाद हो गए या आर्थिक रूप से इतने पिछड़ गए या इतने बदनाम हो गए कि उनका मौजूदा हालात में उस कलंक को मिटा पाना भी असंभव सा प्रतीत होता है। मिसाल के तौर पर जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर की गिनती दुनिया के क्रूरतम तानाशाहों में होती है क्योंकि उसने कई लाख यहुदियों को गैस चैंबर में ज़िंदा जलवा दिया था। उसने जर्मनवासियों में यहूदियों के प्रति नफ़रत का ज़हर भरा। उन्हें झूठे व फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया। और यही ‘फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद’ उसकी लोकप्रियता का आधार था। परन्तु जब उसके क्रूरतम कार्यकलापों के लिए पूरी दुनिया उसपर लानत भेजने लगी तथा उसके द्वारा किये गए यहूदी नरसंहार की वजह से ही उसका नाम आज क्रूरता व तानाशाही के उदाहरण के रूप में लिया जाने लगा तब जर्मनवासियों को इस बात का एहसास हुआ कि किस तरह एक क्रूर व सत्ताभोगी मानसिकता वाले शासक के चंगुल में फँस कर पूरे जर्मनी को ‘हिटलर के जर्मन ‘ के रूप में जाना जाने लगा।आज भी जर्मन का नागरिक हिटलर के नाम से बचने व उस कलंक को मिटने के प्रयासों में लगा रहता है।
इसी तरह इराक़ जो पूरी दुनिया में कच्चे तेल के उत्पादन के साथ साथ अपनी संस्कृति,कला व प्राचीन ऐतिहासिक संपदाओं का केंद्र समझा जाता था तथा अरब जगत के मज़बूत देशों में गिना जाता था वह इराक़ सद्दाम हुसैन के सत्ता में आने के बाद आज लगभग खंडहर सा बन चुका है। इसका ज़िम्मेदार सिर्फ़ सद्दाम हुसैन रुपी सनकी व सांप्रदायिक सोच रखने वाला ऐसा शासक ही था जिसने सत्ता से चिपके रहने के लिए हर वह काम किये जो इराक़,वहां के लोगों व वहां की अर्थव्यवस्था को चौपट करने वाले थे। सद्दाम के स्वभाव व उसकी महत्वाकांक्षाओं को अमेरिका भांप चुका था। वह समझ गया था कि यह मोटी बुद्धि का शासक आसानी से हमारी चालों का शिकार हो सकेगा। तभी अमेरिका ने पहले इराक़ से दोस्ती का ढोंग कर उसे 1980 से 1988 तक गोया आठ वर्षों तक ईरान के विरुद्ध युद्ध में झोंके रखा। अमेरिका, ईरान व इराक़ दोनों को ही युद्ध के द्वारा कमज़ोर करना चाह रहा था। फिर अमेरिका ने ही सद्दाम को बड़ी साज़िश में उलझाकर कुवैत पर आक्रमण करवाया। उसके बाद अमेरिका के ही सामूहिक विनाश के हथियार रखने जैसे झूठे दुष्प्रचार में उलझकर न केवल ख़ुद फांसी के फंदे तक पहुंचा बल्कि अपने पूरे परिवार से भी हाथ धोया। यहां तक कि पूरे देश को भी गृहयुद्ध व बर्बादी तक पहुंचा दिया। इसी तरह 1971 से लेकर 1979 तक युगांडा में शासन करने वाला तानाशाह इदी अमीन जिसपर अपने ही देश के लगभग 6 लाख लोगों की हत्या का आरोप था। ईदी अमीन ने भी स्वयं को यूगांडा का ‘हिज एक्सीलेंसी’ और ‘प्रेजीडेंट फॉर लाइफ’ स्वयं ही घोषित कर लिया था।उसे अपनी आँखों के सामने तड़पती लाशें देख बहुत ख़ुशी मिलती थी ।
पाकिस्तान में 1977 में निर्वाचित प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का तख़्ता पलटकर तथा उन्हें फांसी के फंदे तक पहुँचाने वाले कट्टरपंथी तानाशाह ज़ियाउलहक़ का 1988 तक शासन रहा। इसी दौरान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म बढ़े,इसी दौर में पाकिस्तान में कट्टरपंथियों का जो बोलबाला होना शुरू हुआ वह आज तक पाकिस्तान को तबाही की ओर धकेलता जा रहा है। उसी दौर में ईश निंदा क़ानून बना जिसके ज़रिये अब भी बेगुनाह लोग इस क़ानून का शिकार होते रहते हैं। इसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी प्रमुख मुल्ला उमर, लीबिया में तानाशाह मुअम्मार गद्दाफ़ी आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिनकी तानाशाही,क्रूरता,सनक व सत्ता से चिपके रहने की उनकी इच्छाओं ने पूरे देश को तबाह व बर्बाद तथा देशवासियों को रुस्वा व बदनाम कर दिया। प्रत्येक देश के नागरिकों को विशेषकर लोकतान्त्रिक देशों की जनता को इस बात पर ख़ास नज़र रखनी चाहिए कि उसका नेता कैसी प्रवृति व स्वभाव का स्वामी है। देश की सत्ता सांप्रदायिक,जातिवादी,रंग भेद की नीतियों को बढ़ावा देने वाले,सत्ता से चिपके रहने की लालसा रखने वाले,भ्रष्ट,’पूंजीपतियों के शुभचिंतक परन्तु ग़रीबों के दुशमन’ जैसी सोच रखने वाले नेताओं के हाथों में कभी नहीं सौंपनी चाहिए। अन्यथा ऐसा शासक देश व देशवासियों सभी के लिए बेहद घातक साबित हो सकता है।