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चुनाव हारना मंज़ूर है , पर यह जंग हारना नहीं

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भारत जैन
फ़ेसबुक पर एक पोस्ट थी गुजरात के किसी भाजपा विरोधी की। सलाह दी गई है कि राहुल को गुजरात के आगामी चुनाव में हिंदू –  मुसलमान की बात नहीं करनी ।  मंदिर –  मस्जिद की बात नहीं करनी ।बेरोजगारी , महंगाई , शिक्षा और सुरक्षा पर बोलें । पेंशन और दूसरे प्रलोभन दें लोगों को ।
यह आम धारणा है और ज्यादातर राजनीतिक दल ऐसा कर भी रहे हैं। जयपुर में राहुल ने महंगाई के विरुद्ध रैली में हिंदू और हिंदुत्व पर बात की। लोगों ने मज़ाक उड़ाया और उन्हें नासमझ कहा। सच यही है कि देश में जो कुछ भी बुरा हो रहा है उसके पीछे हिंदू –  मुस्लिम का ही मुद्दा है। भाजपा के पास और क्या  है इसके अलावा ? इस पर बात किए बिना चुनाव तो जीता जा सकता है , देश को बचाने की जंग नहीं जीती जाएगी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ही अंग्रेजों ने चाल चली थी हिंदू – मुसलमानों को बांटने की। 1885 में कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज ने की थी एक डिबेटिंग सोसायटी बनाने के लिए और फिर कांग्रेस के उग्र होते रूप को देख उसे कमज़ोर करने के लिए 1906 में मुस्लिम लीग भी उन्होंने ही बनवाई थी। इस आग में घी डालने का काम जाने – अनजाने में किया तिलक जैसे नेताओं ने , लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय ने।
गांधी ही अलग खड़े हुए थे। गांधी ने कहा था कि मेरे जाने के बाद जवाहरलाल मेरी ही भाषा बोलेगा। सच यही था। कांग्रेस के नेताओं में शायद वास्तविक धर्मनिरपेक्ष नेहरू ही थे। इसीलिए गांधी और नेहरू ही सदा संघ के निशाने पर रहे हैं। बाकी सब स्वीकार हो जाएंगे संघ को –  पटेल , सुभाष , राजेंद्र बाबू और शास्त्री –  पर गांधी और नेहरू नहीं , इंदिरा गांधी भी नहीं क्योंकि इंदिरा गांधी में कई दोष थे – तानाशाह थी, अवसरवादी थी –  पर थी पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष। धर्मनिरपेक्षता के कारण ही मार्क्सवादियों से संघवादियों का मेल नहीं हो पाता ।
यदि देश को सही रास्ते पर ले जाना है तो हर जगह पर हिंदू – मुसलमान के आपसी अविश्वास पर वार करना ही पड़ेगा। चुनाव जितने मर्ज़ी हारें पर इस जंग को जीतना ही पड़ेगा। वरना कोई भविष्य नहीं है देश का। कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा चुनाव जीतने – हारने से।

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