पुष्पा गुप्ता (महमूदाबाद)
_क्या कार्य करवाने के बदले में उपहार देना रिश्वत है ? किसी विभाग में ठेकेदार द्वारा अपना टेण्डर पास करवाने के बदले में किसी अधिकारी को दिए जाने वाले लालच रूपी धन या उपहार को अधिकारी द्वारा ठुकराया जाना किस श्रेणी में आता है ? यदि यह ठुकराना कर्तव्यपरायणता या ईमानदारी की निशानी है तो ससुराल में सास-ससुर के द्वारा दिया गया उपहार क्या एक प्रकार की रिश्वत नहीं है ? क्या रात-दिन कसाई द्वारा जीव हत्या किये जाने के बाद भी वह तत्वज्ञानी हो सकता है? उसके द्वारा किया गया कार्य किस श्रेणी में आयेगा ?_
जब भी हम कोई कार्य करते हैं तो कार्य करने से पूर्व कार्य के सम्बन्ध में विचार करते हैं और विचारों से भी पूर्व उस कार्य का भाव मन में पैदा होता है। भाव सबसे सूक्ष्म होता है।
_भाव से स्थूल है विचार और विचार से स्थूल है कर्म। कर्म भाव और विचार का परिणाम है। अब प्रश्न यह है--कौन सा कर्म अच्छा है और कौन सा बुरा। कौनसा कार्य सत्कार्य है और कौनसा कार्य असत्कार्य है ? कौन सा कार्य उपकार है और कौन सा कार्य है अपकार्य ?_
हम मनुष्य होने के नाते सामाजिक प्राणी हैं। मनुष्य समाज की एक इकाई है। मनुष्यों से ही घर, परिवार, समाज, राष्ट्र बनता है। मनुष्य मूल रूप से यदि अच्छे संस्कारों वाला है तो उससे बनने वाला समाज भी संस्कारयुक्त होता है।
_समाज से अच्छा संस्कारवान् राष्ट्र का निर्माण होता है। संस्कार वह तत्व है जो मनुष्य के अंतःकरण में रच-बस कर उसे निरन्तर सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। कुसंस्कार उसके भीतर कुत्सित वृत्तियों को विकसित करने लगता है, फलस्वरूप वह कुमार्ग का अनुसरण करना शुरू कर् देता है।_
कुसंस्कार से बनने वाली वृत्तियाँ दूसरे को सताने, उन्हें कष्ट पहुँचाने में ही संतुष्ट होती हैं।
जो व्यक्ति अपनी कामनाओं, वासनाओं, लोभ, लालच, यश, कीर्ति, धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा आदि सभी की तिलांजलि देकर दूसरे के लिए कार्य करता है, बिना कुछ बदले में प्राप्ति की आशा के वह एक प्रकार से कर्तव्य कहलाता है।
_यही परोपकार की श्रेणी में आता है। हम जो भी कार्य करते हैं, यदि कार्य करते समय यह सोच लें कि यह सब कार्य मेरे माध्यम से ईश्वर् कर् रहा है, मैं नहीं कर रहा हूँ, मैं तो निमित्त मात्र हूँ।_
करने वाला तो वह है। वह कार्य फिर कर्तव्य भी नहीं रहता, उपकार भी नहीं रहता बल्कि वह कार्य सत्कर्म की श्रेणी में आ जाता है। सत्कर्म फिर अकर्म में बदल जाता है जिसका कर्मफल भी मनुष्य को नहीं भोगना पड़ता हैं। अच्छे कार्य के फलस्वरूप मनुष्य को पुण्य मिलता है और बुरे कार्य के फलस्वरूप मनुष्य को पाप का भागी होना पड़ता है जिनका फल नर्क और स्वर्ग या सुख या दुःख होता है।
_जब ईश्वर् को समर्पित करके सारे कार्य किये जाते हैं तो वे सत्कर्म होते हैं और मनुष्य के लिए वे ही अकर्म कहलाते हैं। फिर वह किसी भी प्रकार के फल का भागी नहीं होता है।_
जब किसी व्यक्ति को कोई उपहार आदि दिया जाता है और उसके बदले में उसे कुछ भी पद, प्रतिष्ठा आदि की इच्छा नहीं होती है तो उसे उपहार आदि देने वाले की मन की संतुष्टि होती है।
_इससे उपहार पाने वाले के भीतर यदि निर्भाव की स्थिति रहती है तो वह रिश्वत की श्रेणी में नहीं आती। यदि उपहार लेने से ख़ुशी होती है, मन संतुष्ट होता है तो लेने वाला आत्मिक रूप से उसका ऋणी बन जाता है। और ऋण का भुगतान चुकाने से ही होता है।_
अब यह माँ, बाप, भाई, बन्धु, या किसी रिश्तेदार से ही क्यों न प्राप्त हो रहा हो। जो तुमने दूसरे से लिया है, इच्छा या अनिच्छा से और लेने से ख़ुशी प्राप्त हुई तो वह ख़ुशी तुम्हें ऋणी बना देगी और फिर छुटकारा ऋण चुकाने पर ही मिलता है।
_संसार के नाते-रिश्ते सब आदान-प्रदान के होते हैं, स्वार्थमय होते हैं। हमने पिछले जन्म में जो जो लिया, जिसका जिसका लिया, उसका भुगतान हम इस जन्म में कर् रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।_
*🍃चेतना विकास मिशन*