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काकोरी से लेकर नक्सलबाड़ी तक

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डा नवीन

काकोरी से लेकर नक्सलबाड़ी तक भारतीय ही नहीं आधे एशिया का क्रांति का दस्तावेज यह पुस्तक है। जिसमें आप इतिहास के महान नायकों से रूबरू होते जाएंगे। जहाँ लेखक कामरेड शिव कुमार मिश्रा स्वयं तो नायक हैं ही उस नायकत्व को गढने वाले महान सेनानी भी उनकी स्मृति से उनके जीवन पटल पर आ जमे जिन्होंने कामरेड मिश्र को वह बनाया जो वो होना चाहते थे। हालांकि उससे भी आगे वो होना चाहते थें। खैर…  इन नायको में अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद थे जो शिव कुमार मिश्र को पहली बार माउजर लोड करना सीखाते हैं।

ऐसे महान नायक के साथ शिव कुमार को मिलना अपने में महानतम व्यक्तव्य है। वहीं वे आधुनिक कम्युनिस्ट पार्टी के अनेकों लोगों के साथ काम करते दिखते हैं तो महान क्रांतिकारी चारू मजूमदार जैसे महान क्रांति नायक को अपने साथ खडा पाते हैं। जिनकी आभा के साथ नक्सलबाड़ी और काकोरी की घटना के तार ऐतिहासिक रूप से जोड दिए। कामरेड चारू मजूमदार और कान्हू सान्याल और सरोज दत्त जैसे शहीदों के साथ मंच पर दहाडते  भी हम उनको देखते हैं। नक्सलबाड़ी से तेलंगाना का विपल्व उनके सामने इतिहास बन रहा था। उनकी नजर हर घटना पर बहुत बारीक से निहार रही थी ऐसा वर्णन पुस्तक में मिलता है। लेखक ने अपने निजी महत्व को कम करके आंका है फिर भी पुस्तक की आत्मा स्वयं उनके महान व्यक्तित्व को निखार कर सामने लाने ही देती है। ऐसे महान नायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शिव कुमार मिश्र जी को हम इस किताब में देखते हैं। देखते हैं कि वे कैसे गुलाम भारत में जेल में रहे और आजाद भारत में भी उसी तरह जेल में रहे। आजादी का मतलब आजाद भारत कभी नहीं जान पाया यह दुख आज भी भारत सह रहा है। 

एक ओर जहाँ व्यवहार की बात थी तो दुसरी ओर सिद्धांत की, दोनों जगह शिव कुमार मिश्र ने बहुत शानदार ढंग से अपना कर्तव्य निभाया  सीपीआई से सीपीएम और फिर माले तक का सफर बहुत शानदार तरीके से मतभेदों और पार्टी लाइन की बहसों से वे निकाल कर लाए। यह सब, किताब हमें साक्ष्यों सहित अभिहित करवाती है। साथ ही सिद्धांत के साथ साथ भारत के अंदर चल रहे 1923 से लेकर 1947 तक किसान आंदोलन  से लेकर कानपुर षड्यंत्र या लाहौर केस हो या शहीदे आजम भगत सिंह को फांसी पर एक एक नारे पर उनके एतिहासिक हस्ताक्षर उनके आजादी के समय में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध उगलता देश भक्ति का उफान दिखता है। उन्होंने वे नारे भी लगाए जिनमें भगतसिंह की रिहाई को लोग सडकों पर थे…. 

“”गर भगतसिंह फांसी पर चढाए चढ़ाए जाएंगे

तो ये गोरे बमों से उड़ाए जाएंगे””

चाहे नक्सलबाड़ी में लगते प्रसिद्ध नारे हों… 

“”जन का राज नहीं बनता है

हिजड़ों के सुर ताल से

राज शक्ति निकला करती है

बंदूकों की नाल से””….. 

उन दोनों ही नारों के सामाजिक राजनीति उद्देश्य भले भिन्न हों लेकिन क्रांति के रास्ते एक थे। उस समय की सारी जलती चिंगारी और फिर राजसत्ता के दमन और कूटनीति से दफन होती क्रांति सब कुछ किताब में लिखा है। आज जहाँ कम्युनिस्टो को देश द्रोही कहा जा रहा है टूकड़े गैंग जैसे अपशब्दों से देश का प्रधानमंत्री नवाज रहा है ऐसे वक्त में आप कम्युनिस्ट पार्टी का यह इतिहास पढिए पढाइए दुनिया को समझाइए कि कैसे कैसे पाश्विक अत्याचार सहे कम्युनिस्टों ने ऐसे तो कांग्रेस तथाकथित गाँधी वादियो ने भी नहीं सहे, एक जगह इतना दुर्दांत वाक्या लिखा है कि मानवता भी कांप जाए…. कम्युनिस्ट जब अंग्रेजी शासन के हाथ लगते तो ऐसे जगह बंद किया जाता कि साक्षात नरक हो जहाँ मल बहता रहता और ऊपर से अंधेरा ऐसी जगह भयंकर यातना दी जाती कभी कभी मुंह में मल भर दिया जाता…. ऐसे ऐसे अत्याचार देश की आज़ादी के लिए सहने वाले कम्युनिस्ट आज देश द्रोही हो गए???? सवाल वक्त पूछता है जबाव वक्त जरूर देगा। वही आज अस्मिता वादी दलित चिंतक कम्युनिस्टों पर आरोप लगाने लगते हैं लाल रंग के जनेऊ वाले कम्युनिस्ट… न जाने क्या क्या.. उस समय की जेल डायरी और इतिहास को पढ लीजिए जिसका कुछ अंश शिव कुमार मिश्र जी दे रहे हैं… एक जगह वे लिखते हैं कि नैनीताल के ज्ञतराई भाबर में जब आंदोलन चल रहा था उस समय वहा के दलितों पर आए दिन सामंतो का अत्याचार होता था एक बार एक दलित जिसने लाल झंडे वालों के बारे में सुना था पार्टी आफिस आया और कहने लगा मेरे बेटे को पार्टी में रख लो  मुझे पता है तुम लोग ही हमारे अपने हो कोई भेद नहीं करते हो दलित डोम चाहे कोई हो…. उस समय से ही पार्टी में कोई भेद था ही नहीं वे तो सब कम्युनिस्ट ठैरे भगवान ही को नहीं मानते तो कैसा भेदभाव। इसी का नतीजा था कि आने वाले समय में जितना भी भेदभाव मिटा वह सिर्फ और सिर्फ कम्युनिस्ट लोगों के कारण ही मिटा, भले बाद के कुछ बर्षो में यह अस्मिता वादी दलों ने सब गुड गोबर कर दिया जाति के नाम पर पार्टी बना कर। वही हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए भी कम्युनिस्ट पार्टी ने ही सबसे बड़ा काम किया गाँधीजी तक इस मामले में कम्युनिस्टों पर पूरा विश्वास करते थे। 

ऐसे ही अनेक प्रसंगों के साथ इतिहास का सुंदर चित्रण शिव कुमार मिश्र जी ने किया है। कम्युनिस्टों की एकता बिखराव और तमाम बहसों को बारिकियो से उन्होंने जगह दी है जो पढने के लिए बहुत जरूरी है। इस समीक्षा की जरूरत इसलिए नही कि इतिहास के सम्मोहन में घुला जाए न ही दक्षिण पंथी भटाव में अपना गौरव तलाशा जाए, यह इतिहास इसलिए उकेरा है ताकि हम जो भूल कर आए हैं उनसे सबक लिया जाए। सारी जरुरी बहसों को शिव कुमार मिश्र जी ने काफी तसल्ली से उकेरा है। हर कम्युनिस्ट पार्टी को चाहिए कि ऐसी एतिहासिक ग्रन्थों से सबक शिक्षा ली जाए। अपनी न ए कतारों को, कामरेडों को इससे सिखाया जाए। नया लडाका अपना इतिहास जाने और गलती से सीखें यह सब इस पुस्तक में है। ऐसी ही पुस्तकों का निर्माण किया जाए और उनको पढ कर आंदोलनों के दौर में समझा जाए आखिर गलती कहा हो रही है। कैडर को कैसे जोडा जाए। वामपंथी एकता को कैसे अक्षुण रखा जाए। यही इस समीक्षा का उद्देश्य है। इस पुस्तक को हर कम्युनिस्ट को पढना ही चाहिए। पढाना चाहिए बहसों को आगे बढाना चाहिए और जन आंदोलनों में टैक्टिस के तौर पर गलतियों को सुधारने की कोशिश करना चाहिए। 

 

*डा नवीन*

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