राजेंद्र शर्मा
मोदी सरकार की कश्मीर नीति और नीयत की विध्वंसक विफलता ने, सरकार की आठवीं सालगिरह के जश्नों का रंग जैसे उड़ा ही दिया है। चाहे संयोग ही सही, पर यह बहुत कुछ उजागर करने वाला संयोग था कि जिस दिन मोदी सरकार के आठ साल पूरे होने पर भाजपा के पूरे पखवाड़े भर चलने वाले समारोहों की शुरूआत हुई, ठीक उसी दिन कश्मीर की घाटी में विशेष योजना के तहत तैनात कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के विक्षोभ का ज्वालामुखी फूट पड़ा। विक्षोभ का ज्वालामुखी फूटा, कुलगाम में एक महिला स्कूल शिक्षिका की टार्गेटेड हत्या के बाद। इस घटना के बाद कश्मीरी पंडितों ने, जो विशेष तैनाती वाले कर्मचारियों के बड़े रिहाइशी कैंपों में अपनी सुरक्षा के प्रबंधों पर भारी असंतोष जताते हुए, मई के मध्य से लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, लैफ्टीनेंट गवर्नर के प्रशासन को छत्तीस घंटे का अल्टीमेटम दे दिया कि जब तक सुरक्षा के हालात सुधर नहीं जाते हैं, उन्हें जम्मू शिफ्ट कर दिया जाए।
कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के विक्षोभ के विस्फोट के ताजातरीन चक्र की शुरूआत तब हुई, जब मई के मध्य में एक कश्मीरी पंडित सरकारी कर्मचारी, राहुल की आतंकवादियों ने उसके अपेक्षाकृत सुरक्षा-संपन्न दफ्तर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। बेशक, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा टार्गेटेड हत्या की घटनाएं भले ही पहली बार नहीं हो रहीं हैं, फिर भी जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के खत्म होने तथा उसके सीधे केंद्र के नियंत्रण में आने के बाद से और खासकर पिछले छ: महीनों में ऐसी वारदातें तेजी से बढ़ी हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि ऐसी टार्गेटेड हत्याओं के निशाने पर पहली बार, बाहर से आए कामगार ही नहीं, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के लिए, प्रधानमंत्री के नाम पर शुरू की गयी विशेष योजना के अंतर्गत घाटी में विभिन्न स्थानों पर तैनात किए गए करीब पांच हजार कर्मचारी तथा अन्य हिंदू शिक्षक भी हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसी घटनाओं से गैर-स्थानीय लोगों मेें तथा कश्मीरी पंडितों व अन्य हिंदुओं में दहशत बढ़ती जा रही थी।
लेकिन, इस दहशत ने तब हताशा का रूप ले लिया, जब घाटी में रह रहे इन लोगों को इसका एहसास हुआ कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने, उसका राज्य का दर्जा ही खत्म करने तथा बांटने और सीधे केंद्र के आधीन केंद्र शासित क्षेत्र बनाने तथा दिल्ली से ही राज चलाने और आतंकवाद-अलगाववाद से कथित रूप से ‘गोली की बोली’ में ही बात करने की मोदी सरकार की नीति ने, वास्तव में उनकी पहले ही असुरक्षित स्थिति को और भी असुरक्षित बना दिया है। इसमें एक महत्वपूर्ण तत्व, समग्रता में जम्मू तथा कश्मीर के बीच और हिंदू-मुसलमान के बीच भरोसे के सूत्रों को कमजोर करने का भी है।
इसी पृष्ठभूमि में ‘कश्मीर फाइल्स’ के जरिए शेष देश भर में जगाए गए उन्माद के ज्वार के उतार के बाद, जिस उन्माद को जगाने में प्रधानमंत्री मोदी समेत पूरी सरकार सक्रिय रूप से हिस्सा ले रही थी, इन लोगों ने अब यह देखा कि मौजूदा सरकार की दिलचस्पी सिर्फ शेष देश तथा दुनिया भर के लिए, इसका नैरेटिव बनाने तथा चलाने में है कि धारा-370 हटाने और विशेष दर्जे के उलट जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा ही छीनने के उसके ‘‘साहसिक’’ फैसले के बाद, जम्मू-कश्मीर में अब सब ‘‘सामान्य’’ है। और चूंकि उनकी वेध्य स्थिति की सचाई इस नैरेटिव में फिट नहीं होती है, उसे न सिर्फ उसे नकारा जाना है, बल्कि इस तरह उनकी स्थिति और कमजोर होने का ही रास्ता बनाया जाना है। इस तरह जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों समेत तमाम अल्पसंख्यकों को, सत्ताधारियों के मूलत: झूठे नैरेटिव के लिए, बंधक ही बनाकर रखा जाना है। जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की योजना का यही सार है।
इसलिए, अचरज नहीं कि राहुल की हत्या से शुरू हुए कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के अनवरत प्रदर्शन ने, कुलगाम में महिला शिक्षिका का हत्या के बाद, सुरक्षा तथा सुरक्षित स्थानों पर पोस्टिंग की मांग से आगे जाकर, सीधे जन्मू शिफ्ट किए जाने के तीन दिन के अल्टीमेटम का रूप ले लिया। और इसके बाद, जब इसी इलाके में आतंकवादियों ने राजस्थान से आए इलाकाई देहाती बैंक के मैनेजर की हत्या कर दी और उसी दिन देर शाम कश्मीर के ही एक अन्य हिस्से में दो प्रवासी मजदूरों पर निशाना बनाकर, एक की हत्या कर दी तथा दूसरे को घायल कर दिया, तो आंदोलनकारी कर्मचारी बगावत पर उतर आए। उन्होंने जम्मू के लिए सामूहिक पलायन करने का एलान कर दिया।
बहरहाल, नैरेटिव के प्रबंधन पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली मोदी सरकार ने उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिलाने की कोशिश की जगह, इन कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के रिहाइशी कैंपों के ही दरवाजे, वर्दीधारी बलों से बंद करा दिए, ताकि प्रमुख प्रदर्शन स्थलों पर ज्यादा लोग इकट्ठा न हो सकें और सामूहिक पलायन के किसी भी दृश्य से बचा जा सके। इस तरह, दिल्ली दरबार द्वारा अपने झूठे नैरेटिव को सच कहलवाने के लिए, कश्मीरी पंडितों को बंधक बनाए जाने की बात शब्दश: सामने आ गयी। यह दूसरी बात है कि खबरों के मुताबिक, इस अल्टीमेटम की अवधि पूरी होने तक ही, 500 से ज्यादा कश्मीरी पंडित कर्मचारी परिवार, बिना किसी ज्यादा शोर-शराबे के इसी बीच घाटी से पलायन भी कर चुके थे।
राजनीतिक हलकों में 1990 के दशक की वापसी की बाकायदा चर्चा शुरू हो गयी है, जब कश्मीर की घाटी से बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों का और आतंकवादियों के निशाने पर आए मुसलमानों समेत दूसरे लोगों का भी पलायन शुरू हुआ था, जिसकी सांप्रदायिकता-विकृत कथा का ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के जरिए वर्तमान सत्ताधारियों ने जाहिर है कि अपने सांप्रदायिक एजेंडा के लिए ही, पिछले ही दिनों देश भर में धुंआधार प्रचार किया था। तो क्या मोदी के प्रत्यक्ष राज में जम्मू-कश्मीर में कश्मीर फाइल्स दुहराई जा रही है!
अचरज नहीं कि इस संकट के सामने दिल्ली दरबार और जम्मू-कश्मीर में उसके ताबेदार, एक ही रट लगाए हुए हैं कि कश्मीर भेजे गए पंडित कर्मचारियों की जम्मू वापसी की इजाजत नहीं दी जा सकती है। पंडित कर्मचारियों की ऐसी वापसी की इजाजत देना तो इथनिक क्लीन्सिंग या इथनिक सफाई की इजाजत देना होगा, आदि, आदि। बेशक, यह संकट मोदी राज के जम्मू-कश्मीर में हालात तेजी से सुधर रहे होने तथा सब कुछ सामान्य होने के सारे झूठे दावों के विपरीत, कश्मीरी पंडितों की नजर से भी हालात के पहले से काफी खराब हो जाने को ही दिखाता है।
आखिरकार, करीब पांच हजार कश्मीरी पंडित आंतरिक प्रवासियों को, सरकारी नियुक्तियां देकर कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में दोबारा स्थापित करने की उक्त योजना, कोई मोदी राज में शुरू नहीं हुई थी। लेकिन, मोदी राज के पहले से जारी इस योजना के तहत कश्मीर वापस पहुंचे हजारों पंडित परिवार, उक्त योजना के शुरू से लगाकर, तब तक बिना किसी खास समस्या या खतरे के रह रहे थे, जब तक मौजूदा राज ने अपनी कश्मीर नीति को बाकायदा लागू नहीं किया था। जम्मू-कश्मीर के मामले में मोदी सरकार के कथित ‘‘बड़े फैसलों’’ से पहले, यूपीए सरकार के दस साल के दौरान और उससे पहले के कई वर्षों में भी, कश्मीरी पंडितों या अन्य हिंदुओं या प्रवासी मजदूरों की हत्या की एक भी घटना नहीं हुई थी।
पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति ने सब उल्टा कर दिया है। आखिरकार यह नीति, आतंकवाद के खिलाफ सख्ती तथा आतंकवाद के खात्मे के नाम पर, कश्मीर और कश्मीरियों को ही निर्ममता से दबाने तथा कुचलने और घाटी में ऐसी तमाम राजनीतिक ताकतों को उखाड़ फैंकने की ही नीति है, जो आम तौर पर भारत के साथ खड़ी होती आयी हैं। यह खुला खेल शुरू होने के बाद, जिसमें निगाहें खासतौर पर जम्मू समेत शेष देश भर में बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही हैं, न कि जम्मू-कश्मीर की जनता का विश्वास जीतने तथा उसकी एकता की रक्षा करने पर, न सिर्फ जम्मू-कश्मीर में सांप्रदायिक विभाजन बढ़ रहा है, बल्कि न सिर्फ कश्मीरी अलगाववादियों का बल्कि पाकिस्तान-समर्थक आतंकवादियों का भी काम आसान हो रहा है। यह इसी बात का सबूत है कि मोदी राज में और खासतौर पर मोदी के दूसरे कार्यकाल में, आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में बढ़ती संख्या में आतंकवादियों को मार गिराने के बावजूद, न सिर्फ आतंकवादी कार्रवाइयों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आयी है, बल्कि जानकारों के मुताबिक आतंकवादी कतारों में स्थानीय नौजवानों का अनुपात तेजी से बढ़ता गया है, जबकि सीमा पार के आतंकवादियों का हिस्सा घटता गया है।
अब बाकी देश की आंखों पर तो मोदी राज, मीडिया पर अपने नियंत्रण और मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों पर अपने उन्मत्त राष्ट्रवाद के स्वांग के दबाव के बल पर, पट्टी बांधे रख सकता है, पर जम्मू-कश्मीर के लोग और इसमें कश्मीरी पंडित भी शामिल हैं, बखूबी यह देख-समझ रहे हैं कि मोदीशाही का मौजूदा रास्ता, आतंकवाद समेत उनकी तकलीफें बढ़ाने का ही रास्ता है। और कश्मीरी पंडितों को खासतौर पर इस सनक भरे कुटिल खेल के लिए बंधक बनाकर रख दिया गया है। यही एहसास कश्मीरी पंडितों के उस दिल्ली दरबार विरोधी विक्षोभ के उस विस्फोट के पीछे है, जो पिछले दो-तीन हफ्तों में कश्मीर में टार्गेटेड हत्याओं से भडक़ा है। अब कश्मीरी पंडितों को कैंपों में बंधक बनाकर मोदी राज ने, अपनी नीति के दीवालियापन का खुद ही सारी दुनिया में एलान कर दिया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि कश्मीर में ले जाकर कश्मीरी पंडितों का इस तरह बंधक बनाया जाना, पंडितों की कश्मीर में वापसी का जघन्य विद्रूप है। कश्मीरी पंडितों को इस तरह बंधक बनाने के जरिए और कश्मीर में ही उन्हें कहीं दूसरी सुरक्षित जगह में पोस्टिंग देने के अपने आश्वासनों के जरिए, मोदी राज ने भले ही कश्मीरी पंडितों के दूसरी बार सामूहिक पलायन की तस्वीरें आने की शर्मिंदगी को टाल लिया हो, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी के आठ साल का एक महत्वपूर्ण ‘हासिल’ यह भी है कि कश्मीर से पंडितों का दूसरा पलायन शुरू हो गया है और कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर में नव्बे का दशक लौटा लाया गया है।
बेशक, अब तक के सारे संकेत इसी के हैं कि मोदी सरकार, इससे कुछ भी न सीखते हुए परिसीमन के सांप्रदायिक रूप से पक्षपाती खेल तथा डोमीसाइल के नियमों में तब्दीली करने के जरिए, जम्मू-कश्मीर के जनसांख्यिकीय तथा राजनीतिक प्रातिनिधिक संतुलन को बदलने और दमनचक्र को तेज करने के ही रास्ते पर चलने जा रही है। लेकिन, यह न सिर्फ जम्मू-कश्मीर को, बल्कि उस भारत को भी नष्ट करने का ही रास्ता है, जिसके साथ मुस्लिम बहुल होकर भी जम्मू-कश्मीर ने रहने का निर्णय लिया था और इस्लामी राज्य पाकिस्तान के साथ जाने से न सिर्फ इंकार किया था, बल्कि कश्मीरियों ने अपने इस फैसले की हिफाजत सीमा पार से कबाइली हमले का हथियारों से मुकाबला करने तथा इस लड़ाई में शहादतें देने के जरिए की थी।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*