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माघ-मेला, गंगा-यमुना संगम और कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि!

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प्रिया सिंह

     _विश्वास! विश्वास और अंधविश्वास में ख़ास फ़र्क़ नहीं. जो विश्वास अंध न हो, वह विश्वास कैसा ? और धर्म और विश्वास का चोली-दामन का साथ. संगठित धर्म कोई भी हो, बिना विश्वास के उसका वजूद नहीं…इस मामले में सभी एक-जैसे हैं._

  शुक्र है, धर्म का एक सांस्कृतिक पक्ष भी है, शुद्ध सांस्कृतिक. और संस्कृति के मूल में है सौंदर्य. शायद मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे सौंदर्य की अनुभूति होती है, जो सौंदर्य से आकृष्ट होता है, जिसे सौंदर्य की भूख होती है, जिसके लिए सौंदर्य मूल्यवान है. सौंदर्य-बोध ही उसे अन्य प्राणियों से भिन्न और  विशिष्ट बनाता है. संस्कृति का तानाबाना संभवत: मनुष्य के सौंदर्य-बोध के इर्दगिर्द ही बुना गया है.  

सम्प्रति कुंभ माने गंगा-यमुना का संगम. संगम के पहले यमुना गहन-गम्भीर हैं. जलराशि में गहराई और प्रवाह में गम्भीरता–सखी से मिलकर उन्हीं में समा जाना है, नि:शेष हो जाना है. तो वहाँ उनका जल है नीला. इसके बरअक्स गंगा वहाँ उथली हैं. आवेग से सखी को गले लगाने दौड़ पड़ती हैं. तो उनका पानी हो जाता है सफ़ेद-मटमैला. कतरों-कतरों में नीला पानी सफ़ेद में और सफ़ेद नीले में घुसा हुआ दिखता है. 

       _कालिदास (पहली शताब्दी ई. पू.) ने इस दृश्य का वर्णन ऐसे किया है जैसे हवाई सर्वेक्षण द्वारा ऊपर से देख रहे हों. प्रसंग है मिथकीय पुष्पक विमान द्वारा लंका से अयोध्या लौटते समय राम सीता को दिखाने के ब्याज से नीचे के मार्ग का वर्णन कर रहे हैं. ऊँचाई के कारण दूर से ही दिख गए वटवृक्ष के बाद आता है गंगा-यमुना का संगम. उसी का वर्णन—कालिदास की भाषा और शिल्प की एक बानगी भी._    

*रघुवंशम्‌ के तेरहवें सर्ग के चार श्लोक :*

    1. क्वचित्प्रभालेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा।

अन्यत्र माला सितपंङ्कजानामिन्दीवरैरुत्खचितांतरेव॥54॥

[कहीं लगता है, सफ़ेद मणियों की माला के बीच-बीच चमकीले नीलम पिरो दिए गए हों. अन्यत्र वही माला ऐसे लगती है जैसे श्वेत कमल-पुष्पों के बीच-बीच नीलकमल टँके हों.]

    2. क्वचित्खगानां प्रियमानसानां कादम्बसंसर्गवतीवपंङ्क्ति:।

अन्यत्र कालागुरुदत्तपत्रा भक्तिर्भुवश्चंदनकल्पितेव॥55॥

       [कहीं लगता है, मानसरोवर के श्वेत राजहंसों की उड़ती हुई पंक्ति में सलेटी रंग के हंस घुस आए हों. अन्यत्र लगता है जैसे सफ़ेद चंदन से चित्रित पृथ्वी को बीच-बीच में नीले अगर से टीक दिया गया हो.]

  3. क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनै: शबलीकृतेव। 

अन्यत्र शुभ्रा शरदभ्रलेखा रंध्रेष्विवालक्ष्यनभ: प्रदेशा:॥56॥

     [कहीं लगता है, छायादार वृक्ष के नीचे छनकर आती चाँदनी फैली हो और बीच-बीच में पत्तों की छाया से चित्र-खचित हो गई हो. अन्यत्र लगता है, शरद ऋतु के बिखरे-बिखरे सफ़ेद बादलों के बीच से नीला आकाश झाँक रहा हो.]

   4.  क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य। 

पश्यानवद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गै:॥57॥

   [कहीं लगता है जैसे भभूत का अंगराग लगाए शिव के शरीर पर काले-काले साँप लोट रहे हैं…….. तो सुभगांगी सीते, देखो किस तरह गंगा का भिन्न-वर्णी प्रवाह यमुना की तरंगों से मिलकर शोभायमान हो रहा है.]

  _उपमा के क्षेत्र में कालिदास की विलक्षण प्रतिभा का द्योतक भी है यह. एक ही उपमेय के कई-कई उपमान और सभी इतने सटीक कि उपमेय को दर्पण की तरह आँखों में और उनके ज़रिए भीतर उतार देने में समर्थ._

   [चेतना विकास मिशन)

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