अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

कबीर में प्रतिरोध की है, जबरदस्त अनुगूंज

Share

सुसंस्कृति परिहार

कबीर दास जी के बारे में कई तरह की विचारधाराएं यूं तो समाज में परिव्याप्त हैं किंतु प्रगतिशील चेतना से युक्त क्रांतिकारी दर्शन और प्रतिरोध की जबरदस्त अनुगूंज उनमें स्पष्ट रुप से मौजूद है। कुछ उन्हें समाज सुधारक संत कबीर मानकर उनकी पूजा भी करते हैं तो कोई उन्हें विद्रोही कवि मानता है।वास्तव में उनके जीवन का ताना-बाना बिल्कुल अलहदा था।वे एक साधारण जुलाहा परिवार में जन्मे।जन्म से ही समाज में उन्होंने जिस तरह अपमान के घूंट पिए। धर्म और समाजिक क्षेत्र में व्याप्त पाखंड कुरीतियों ,रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों को देखा उससे उनका मन विद्रोही ,फक्कड़ और निडर हो गया जो आगे चलकर एक दमदार प्रतिरोध का सबब बना।

चूंकि सामाजिक संरचना में पिछड़ा और शूद्र समाज में जन्म लेना अभिशाप से कम नहीं था इसलिए लोग भले इन पाखंडियों से टक्कर लेने की ताकत नहीं जुटा पाए किंतु कबीर के सत्य को वे मन ही मन स्वीकार करने लगे।उनकी सुनने लगे और उनके दोहे और भजन गांव के गलियारों में गूंजने लगे।यह परम्परा आज भी कबीर के अनुयायियों में परिव्याप्त है ।वे ऐसे कवि हैं जिन्हें देश की लगभग सभी आंचलिक भाषाओं में गाया जाता है। रचनाएं भी ऐसी कि गायक उनमें अपनी समझ का पुट भी जोड़ देते हैं लेकिन वह कबीर के नाम पर सुनी और सराही जाती हैं।वे साधारण भजन मंडली से लेकर शास्त्रीय संगीत के उस्तादों द्वाराभी गाए जाते हैं।उनके लोकप्रियता अपार है।

उन्होंने धर्म का सम्बन्ध सत्य से जोड़कर समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्परा का खण्डन किया है। कबीर ने मानव जाति को सर्वश्रैष्ठ बताया है । कबीर ने वर्ग और वर्ण व्यवस्था का विरोध कर सभी मानवों को समान मानकर भक्ति करने से वंचित शूद्र जाति को भी भक्ति करने की मान्यता दी।कबीरदास के अनुसार किसी भी साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उसके कर्म और अच्छे व्यवहार के बारे में पूछना चाहिए। इसीलिए कबीर कहते है –“जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।”

          कबीर के जीवन काल में समाज हर तरह के बुराइयों से घिरा हुआ था उन्हें खत्म करने के लिए उन्हें जो ठीक लगा उसे कहने में कबीर ने कोई संकोच नहीं किया वस्तुत: वे जन्म से विद्रोही प्रकृति के तो थे ही। उनमें समाज सुधारक एवं हृदय में लोकल्याण की भावना प्रबलता से थी।  वे उपदेशक भी  नज़र आते हैं ।मानव मात्र को सत्य ,अहिंसा, प्रेम ,करुणा ,दया क्षमा संतोष ,उदारता जैसे गुणों को धारण करने का उपदेश देते हैं  कबीर वैसे तो पढ़े-लिखे न थे किंतु उनमें अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति का खरापन  अंदर बखूबी भरपूर था।  इसलिए  वे शास्त्र के पंडित को भी चुनौती देते हुए कहते है-

तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी।

मैं कहता सुरझावन हारी, तू राखा उरझोय रे।।

कबीर ने केवल हिंदू धर्म के ठेकेदारों का ही विरोध नहीं किया बल्कि मुसलमानों के मुल्ला और मौलवियों को भी कडे़ शब्दों में फटकारा है। मुस्लिम धर्म में भी पाँच बार नमाज पढ़ना, रोजा रखना, जपमाला जपना,हज यात्रा, सुन्नत करना आदी बातें धर्म के अभिन्न अंग थे। संत कबीर ने धर्म के नाम पर होनेवाली हिंसा का भी कडा़ विरोध किया। कबीर कहते है –
“कांकर पाथर जोरी के मस्जिद लेई चुनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा होय खुदाय”।

कबीर किसी अपराधी को क्षमा कर सकते हैं, किन्तु मिथ्याचार को नहीं। ये उसके पीछे पड़ते हैं, उसे नष्ट करने का भरकस प्रयत्न करते हैं और इसी प्रयत्न में मुल्ला, पांडे और काजी को खरी खरी बातें सुननी पड़ती हैं. पांडे वेद पढ़ता है, किन्तु उस पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता. यह देखकर कबीर क्षुब्ध हो उठते हैं-
”पांडे कौन कुमति तोहि लागी,

तूं राम न जपहि अभागी.

वेद पढ़यां का यह फल पांडे,

सब घटि देखें रामां’

”जीव बधत अरु धरम कहत है, अधरम कहां है भाई।

  निरर्थक आचार विचार एवं रूढ़ियों से उन्हें बेहद चिढ़ थी। कबीर अपनी राह पर चलते थे। उनकी राह न हिन्दू की थी, न मुसलमान की। यथा   -   

मोकों कहाँ ढूंढे़ बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना मंदिर में ना, मस्जिद में, ना कावे कैलाश में।।
कबीर ने हिन्दू मुसलमानों दोनों के पाखण्डों का खण्डन किया तथा उन्हें सच्चे मानवधर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दोनों को कसकर फटकारा। हिन्दुओं से कहा कि तुम अपने को श्रेष्ठ मानते हो अपना घड़ा किसी को छूने नहीं देते, किन्तु तब तुम्हारी उच्चता कहाँ चली जाती है जब वैश्यागमन करते हो? छुआ-छूत का विरोध करते वे कहते हैंः

हि न्दु अपनी करे बड़ाई, गागरि छुअन न देई।

वेश्या के पायन तर सोवें ,यह देखा हिंदुआई

कबीर अद्वैतवादी होने के कारण ही संसार के मिथ्या तत्व की बात करते है। उनके लिए यह संसार ‘काँचा घट’ है जिसका टूटना तय है। यह संसार ‘कागद की पुड़िया’ के समान है, बूंद पड़ते ही जिसका गल जाना तय है।

ऐसा यहु संसार है, जैसा सेमल फूल।

दिन दस के व्यवहार मे, झूठे रंग न भूल।।

यह प्रतिरोध मुक्त सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से उपजता है। भोगवाद विशिष्टतावाद है। कबीर दास जी ने ईमान और ज़मीर को बचाए रखने के लिए सामान्य जीवन जीने और सहजता को अपनाने की सीख दी है।

खूब बना खिचड़ी, जा में अमृत लोण।

फेरा रोटी कारने, सीस कटावे कोण।।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर के बारे लिखते हुए कहा था” मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊंचे से ऊंचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।” यह भक्ति वास्तव में मानव-कल्याण को समर्पित थी।

यह बात महत्त्वपूर्ण है कि कबीर का मानवतावादी दृष्टिकोण आज भी दुनिया के लिए ज़रुरी और प्रासंगिक है।जब तक दुनियां में इंसानियत के प्रति नफ़रत का भाव है तब तक कबीर याद आयेंगे।इप्टा के सौजन्य से पिछले दिनों ढाई आखर प्रेम यात्रा के ज़रिए कबीर के इस मूल मंत्र को पहुंचाने का जो प्रयास हुआ वह श्लाघनीय है। उन्होंने अपने दोहों और गीतों के ज़रिए हमें जो प्रतिरोध की ताकत अता की है उनका आज के दौर में उनका भरसक इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें