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कहानी : लिव-टु-गैदर की माया

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 आरती शर्मा

    _हर सुख से क्यों वंचित थी सपना? लिव टुगैदर के मायाजाल में फंसी सपना सदा अपने अहम में ही जीती रही. पुरुषत्व से न हारने की मनशा ने उसे नारीत्व के सुख से भी वंचित कर दिया था. आखिर ऐसा क्या हुआ था कि सब तरह की सहूलत होने के बावजूद भी वह हर सुख से वंचित थी? जानिए इस रचना से._

       सामने महेश खड़ा था. आंखों से झरझर आंसू बहाता हुआ, अपमानित सा, ठगा हुआ, पिटा हुआ सा, अपने प्रेम की यह हालत देखते हुए… स्वयं को लुटा हुआ महसूस कर, हिचकियों के साथ रो रहा था. मैं उसे सामने देख कर अवाक् थी. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरी वीरान जिंदगी में अब कोई आया है.

‘‘सपना…’’ रुंधे गले से महेश मुश्किल से बोल पाया. किसी गहरे कुएं से आती मरियल सी आवाज…आज मुझे मेरे उन सब उद्बोधनों से ज्यादा भारी और अपनी महसूस हुई, जो मैं पिछले 10-12 साल से सुनती चली आ रही थी.

‘‘सपना स्वीटहार्ट… सपना डियर… सपना डार्लिंग…’’ की आवाजों का खोखलापन, जो मैं पिछले 2-3 बरस से महसूस कर रही थी, आज और ज्यादा खोखली लगने लगीं. मेरे चारों तरफ मेरा अपना बनाया, अपना रचाया हुआ संसार खड़ा था. मलिन और निस्तेज पड़े हुए मेरे शरीर के चारों ओर शानदार चीजों से सजा हुआ मेरा बंगला अभिमान के साथ आसमान से बातें कर रहा था. उसी अभिमान के रथ पर कभी मैं भी सवार हो कर सपने संजोया करती थी…

‘‘सपना…एक बार मुझे खबर तो कर दी होती अपनी बीमारी की…’’ मेरे निशक्त शरीर को देखते हुए महेश के गले से दबीदबी सी आवाज निकली. महेश के दिल में मेरे लिए… टिमटिमा कर जलता हुआ दीपक… मेरे मन के अंधेरे में एक किरण सी चमकी. अकेलापन, अवसाद और उदासी भरे मन में, महेश की उपस्थिति की दस्तक से एक नई तरह की आशा का संचार हुआ.

महेश ने ढूंढ़ कर कमरे की लाइट जलाई. कमरा एक बार फिर से रोशन हो गया. चारों तरफ गर्द ही गर्द जमा हो गया था. महंगामहंगा आधुनिक सामान धूल से अटा पड़ा था. कमरे की सजावट जहां अपने अतीत की आलीशानता बयान कर रही थी, वहीं उस पर जमी धूल की परत वर्तमान की बेजान तसवीर पेश कर रही थी.

स्पर्श सुख की अनुभूति पिछले कई महीने से उस ने महसूस नहीं की थी. मेरी अवसादग्रस्त जिंदगी की चिड़चिड़ाहट और चिल्लाहट से त्रस्त हो कर, नौकरनौकरानियां काम छोड़ कर चली गई थीं. महीनों से साफसफाई नहीं हुई थी. पैसे से श्रम खरीदा जा सकता है, अपनापन नहीं, इस का प्रत्यक्ष दर्शन मुझे हो रहा था. दीवार पर लगे विशाल आईने पर निगाह पड़ते ही मैं चौंक गई. लेटेलेटे ही अपना प्रतिबिंब देख कर मुझे रोना आ गया. एक बार को तो मैं खुद को ही नहीं पहचान पाई.

मेरे पर हमेशा हंसतेखिलखिलाते रहने वाला विशाल आईना, गंदला हो कर मायूसी प्रकट कर रहा था. रोशनी से मेरी हालत का जायजा ले कर महेश और भी ज्यादा द्रवित हो गया. ‘‘सपना… कम से कम एक फोन तो कर दिया होता. इतनी बीमार पड़ी थीं. एकदम पीली पड़ गई हो,’’ महेश अपराधबोध से ग्रस्त हो कर अपनी ही रौ में कहे जा रहा था. मैं महेश की हालत समझ रही थी. एकएक बीती बात मुझे याद आ रही थी.

जब शरीर था तब विचार नहीं थे, अब शरीर नहीं रहा तो विचार डेरा डालने लगे. अकेलेपन और अवसाद से महेश की सहानुभूति मुझे कुछ हद तक उबार रही थी. मैं उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी. ‘महेश मेरा इतना लंबा इंतजार करता रहा. मेरे लिए… अभी तक इंतजार या फिर यों ही आया है अचानक.’

यादों के खंजर दिमाग में ठकठक कर रहे थे. महेश मेरा सहपाठी था. कालेज के वे दिन हवा में उड़ने के थे… आसमान से बातें करने के. यौवन पूरे निखार पर था. मैं तितलियों की तरह इधरउधर मंडराती रहती. कलियां खिलेंगी तो मधुप मंडराएंगे ही और फिर यह तो समय होता है युवाओं को आकर्षित करने का… लोगों की फिसलती निगाहें पकड़ कर आह्लादित होने का.

हरदम सजनासंवरना, इधरउधर इतराते हुए फिरते रहना, न कोई चिंता थी, न ही कोई परवा. बस उड़ते ही जाना, लोगों की निगाहों में चढ़ते जाना. उन की कानाफूसियां सुन कर उल्लासित होना और उन की प्यासी निगाहें ताड़ कर उन्हें और तड़पाना. उन की अतृप्तता भरी मनुहार सुन कर स्वयं को तृप्त महूसस करना. चिंता नहीं थी तो चिंतन भी नहीं था… महेश न जाने कब मुझ से दिल लगा बैठा था. भावुक महेश मेरे रूपयौवन के मोहजाल में फंस गया था. हरदम वह बिन पानी की मछली की तरह तड़पता रहता था.

पुरुष बेचारा, पहले प्यार को अपने दिल पर लगा लेता है… मेरे लिए पुरुषों की तड़प मेरी आत्मसंतुष्टि थी. अनादि काल से चली आई परंपरा नारी की तड़प से पुरुषों की आत्मसंतुष्टि को तोड़ना मेरे अहं को तुष्ट करती थी.

मैं 20वीं सदी की नारी थी. मेरे विचारों में खुला आसमान था. मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है. मैं भी पुरुष की तरह एक इकाई हूं. प्रेम, प्यार एक अलग बात है. लेकिन शादी, बच्चे का बंधन मुझे नागवार लगता था. कालेज के दिन फुरफुर कर उड़ गए. महेश की मासूम याचना मेरे मस्तिष्क पर सामान्य सी ठकठक थी. अपनी अलग पहचान बनाने की लौ मन में निरंतर जलती रहती. मैं भावुकता में न बह कर पूर्ण व्यावसायिक हो गई थी.

बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी, ऊंचा ओहदा, भरपूर पगार… सारी सुखसुविधाएं मेरे कदमों को चूम रही थीं. मैं स्वतंत्र, आर्थिक रूप से मजबूत, अच्छी प्रतिष्ठा वाली, फिर क्यों किसी पुरुष के अधीन रहूं. परिवार के बंधनों में बंधूं. पैसे से हर चीज हासिल की जा सकती है. अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए एक अदद पुरुष भी.

जब पदप्रतिष्ठा पा कर पुरुष बौरा सकता है तो स्त्री क्यों नहीं. मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र थी, मुझ में खुद के अहम की बू कुछ ज्यादा ही आ गई थी. औफिस में ही कमल से मेलमिलाप बढ़ा. हर मुद्दे पर हमारी बौद्धिक बहसें होतीं. राजनीतिक, सामाजिक विचारविमर्श होता. हर विषय पर हम लोग खुले विचार रखते, यहां तक कि प्रेम और सैक्स पर भी.

मेरी मानसिक भूख के साथसाथ शारीरिक भूख भी जोर मारने लगी थी. समान बौद्धिक स्तर वाले कमल के साथ काफी तार्किक विचारविमर्श के बाद हम दोनों एकसाथ रहने लगे, बिना किसी वैवाहिक बंधन के. लिव टुगैदर, हम 2 स्वतंत्र इकाई, 2 शरीर थे. एक छत के नीचे हो कर भी हमारी साझी छत नहीं थी. पहले तो अड़ोसपड़ोस में हमारे साथसाथ रहने पर कानाफूसियां हुईं, ‘छिनाल’, ‘वेश्या’ और न जाने किनकिन संबोधनों से मुझे नवाजा गया, लेकिन मैं तो उड़ान पर थी. इन सब बातों से मैं कहां डरने वाली थी. हवा में उड़ने वाले परिंदे जमीन पर बिछे जाल से कहां डरते हैं.

          महल्ले के युवकयुवतियों को मेरे घर के आसपास फटकने की सख्त मनाही हो गई थी. मेरे घर के चारों तरफ अघोषित एलओसी बन गई थी, जिसे पार करना सफेदपोश शरीफों के बस की बात नहीं थी. इक्कादुक्का कभी मेरे मकान की तरफ लोलुप निगाहें ले कर बढ़ते पर मेरी हैसियत से डर कर पीछे हो जाते.

जब शरीर बोलता है, तो विचार चुप रहते हैं. एलओसी के घेरे में मैं कब अकेली पड़ती गई इस का मुझे भान तक नहीं हुआ. शरीर था कि खिलता ही जा रहा था. मैं शरीर के रथ पर सवार हो कर अभिमान के आसमान में उड़ रही थी.

कमल के साथ रहते हुए भी हमारा साझा कुछ नहीं था. मैं जब चाहती कमल के शरीर का भरपूर उपभोग करती. कमल को हमेशा उस की सीमारेखा दिखाती रहती. पुरुष हो कर भी कमल का पुरुषत्व मेरे सामने बौना रहता. अपना फ्रैंड सर्कल मुझे खुशनुमा महसूस होता. लिव टुगैदर में पतिपत्नी के बीच की लाज और लिहाज, सामाजिक दबाव और बच्चे होने का मानसिक दबाव नहीं था. बस, उच्छृंखल व्यवहार, शरीर का विभिन्न तरह से भरपूर उपभोग, परम आनंद प्रदान करता.

देखते ही देखते कमल के साथ का मौखिक अनुबंध पूरा हो चला. साथ रहते कमल के मन में घर बसाने की चाहत घुल रही थी. कमल बहुत भावुक हो उठा था. अलगाव से उसे बेचैनी हो रही थी. वह शादी कर घर बसाने के लिए मिन्नतें करने लगा. लेकिन मैं तो मन और तन के उफान पर थी. तन अभी भी भरपूर बोल रहा था. भाव तो मन में थे ही नहीं. भाव होते तो मन कमजोर पड़ जाता. मैं नारी की गुलामी की पक्षधर बिलकुल नहीं थी. शादी… यानी नारी की गुलामी के दौर की शुरुआत… मैं ने एक झटके में कमल को बाहर का रास्ता दिखा दिया.

मुझ में शारीरिक आकर्षण अभी भी उफान पर था. मर्दों की लाइन लगने को तैयार थी. प्रेम, प्यार बेवकूफों का शगल. बेकार में अपनी ऊर्जा जलाओ. तनमन को तरसाओ. मेरा सिद्धांत था, खाओपियो और मौज करो. मांबाप के बीच की यदाकदा की खिंचन की पैठ मेरे मन में इतनी गहरी समाई हुई थी कि पारिवारिक स्नेह का तानाबाना पकड़ने में मैं कभी सफल नहीं हो पाई.

फिर बदलाव के धरातल पर पैर रख कर कभी महसूस करने और समझने की कोशिश ही नहीं की. भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मेरी प्राथमिकता रही थी. उन की पूर्ति के लिए मेरे पास संसाधनों की किसी तरह कोई कमी नहीं थी. बस पैसा फेंको, सभी सुविधाएं हाजिर हो जाएंगी.

आलीशान बंगला होने के कारण कभी घर की ऊष्मा महसूस करने की कोशिश ही नहीं की. आधुनिकता के जनून में मेरा स्व ही मुझ पर सवार था.

कमल के बाद अब सैक्स पूर्ति के लिए सुरेश टकरा गया था. उस का भरापूरा शरीर था, छुट्टे सांड़ जैसा मस्तमस्त. मेरे साथ लिव टुगैदर उस के लिए बहुत अच्छा औफर था. हम दोनों साथसाथ रहने लगे, बिना किसी साझी छत के. फिर से वही शारीरिक आनंद की सुनहरी गुफा में विचरण. मन की स्वतंत्र उड़ान में मैं कभी अपने को हारी हुई महसूस नहीं करती. ऐसा लगता कि मैं ने सुरेश के पौरुष के साथसाथ मर्दों के पौरुष को हरा दिया है.

समय कब गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. देह के कोणों का तीखापन कम होने लगा था. मन के कोण कुछ तीखे हो कर अधूरापन महसूस करने लगे थे. हर माह मेरे वजूद में अंडा तैयार होता. निषेचित हो कर मुझे नारी का पूर्णत्व प्रदान करने के लिए आतुर रहता, पर शुरुआत में मैं पुरुष से बिलकुल हार मानने वाली नहीं थी. कमल और सुरेश के लाखों शुक्राणु बिना संगम के बह चुके थे. पर अब मेरा मन करता कि मैं हार जाऊं और मेरा मातृत्व जीते. नारी के अधूरेपन का एहसास मुझे महसूस होने लगा था. मन में कचोट सी उठने लगी थी.

मेरी चाहत सुन कर सुरेश एकदम से बिफर गया, ‘हमारे लिव टुगैदर के अनुबंध में बच्चा नहीं था.’ अब मुझे यह समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं सुरेश को यूज कर रही हूं कि सुरेश मेरा इस्तेमाल कर रहा है. अपनेअपने अहं की जीत में हम दोनों ही हार रहे थे. हालांकि सब से ज्यादा शारीरिक और मानसिक नुकसान नारी को ही उठाना पड़ता है. पुरुष तो हमेशा हार कर भी जीतता है और जीत कर तो जीतता ही है.

अब मेरा शरीर ढलान पर था तो विचार उठने लगे. सामाजिक तानेबाने की कमी महसूस होने लगी. समाज में प्रतिष्ठा, पद, पैसा पा कर भी मैं सामाजिक कार्यक्रमों में अछूत जैसी स्थिति में रहती. इंटरनैट, फेसबुक, ट्विटर, औरकुट, ब्लैकबेरी मैसेंजर से सारी दुनिया हमारी थी, लेकिन हमारा पड़ोसी, हमारा नहीं था. मेरा अभिमान चकनाचूर हो कर मिटने के लिए तैयार था, पर सुरेश बिलकुल झुकने के लिए तैयार नहीं था.

अब मेरी मिन्नतों के बाद भी वह अपने स्पर्म मेरी कोख में डालने के लिए तैयार नहीं था. मेरी हालत ‘जल बिन मछली’ जैसी हो रही थी. मेरा मन बच्चे के कोमल स्पर्श को बेचैन होता. कोमलकोमल हाथों की छुअन को महसूस करने के लिए मेरा मन व्यग्र होता, कंपित होता. सामाजिक अकेलापन, अधूरा नारीत्व मुझे अवसादग्रस्त करने लगा था. सुरेश का ज्वार, उस का हारा हुआ चेहरा, अब मुझे आह्लादित नहीं करता था. उस का सपना डियर, सपना डार्लिंग… कहना मेरे मन को चिड़चिड़ा बना रहा था.

लिव टुगैदर मुझे इंद्रधनुषी मायाजाल सा महसूस होने लगा था. मेरा सबकुछ लुट कर भी मेरा अपना कुछ नहीं था. अनुबंध का समय पूरा हो गया. सुरेश एक झटके के साथ मुझे छोड़ गया. मेरी लाख मिन्नतों के बाद भी वह एक पल भी रुकने को तैयार नहीं हुआ. मेरे जज्बातों से उस को कोई लगाव नहीं था. जैसे एक झटके में मैं ने कमल को छोड़ दिया था, वैसे ही सुरेश ने मुझे छोड़ दिया. आलीशान घर, महंगा विदेशी सामान मेरे चारों तरफ अभिमान के साथ सजा हुआ था, लेकिन मेरा अभिमान छंट रहा था. अकेलापन भयावह हो रहा था. परिवार के आपसी तानेबाने की कमी महसूस होने लगी थी.

समाज की नजरों में, अपने बौद्धिक विचारों में तो मैं नारी की जीत का आदर्श मौडल बन ही चुकी थी, पर वास्तविकता में मैं अपने अंदर जो रीतापन महसूस कर रही थी, वह मुझे सालता. निराशा और अकेलापन मुझे दिवास्वप्नों में खोने लगा था. परिणामत: चिड़चिड़ापन और गुस्सा मुझ पर हरदम हावी रहने लगा था. औफिस में, घर में, मैं हरदम झुंझलाती, चिड़चिड़ाती रहती.

कभी मुझे लगता मेरा भी प्यारा सा परिवार है. पति है, छोटा सा बच्चा है, जो अपने नाजुक मसूड़ों से मेरे स्तन चूस रहा है. गीलेगीले होंठों से मुझे चूम रहा है. उस की सूसू की गरमाहट मुझे राहत दे रही है.

कभी लगता, मेरा अभिमान अट्टहास कर रहा है. मुझे चिढ़ा रहा है. मैं एकदम से अकेली पड़ गई हूं. चारों तरफ डरावनीडरावनी सूरतें घिर आई हैं. घबराहट में मेरी एकदम से चीख निकल जाती. तंद्रा टूटती तो अकेला घर सांयसांय करता मिलता. नौकरनौकरानियां अपनी ड्यूटी निभातीं. मुझे खाना खाने के लिए जोर डालतीं, तो मैं उन पर ही चिल्ला पड़ती.

कुछ दिन मुझे झेलने के बाद वे भी मुझे छोड़ कर चली गईं. अकेलापन और घिर आया. घर के चारों तरफ खिंची लक्ष्मण रेखा पार करने का साहस किसी में नहीं था. लिव टुगैदर के फंडे ने समाज से टुगैदरनैस होने ही नहीं दिया. मैं अवसादग्रस्त होती जा रही थी.

मन में घोर निराशा थी तो तन भी बीमार रहने लगा. न किसी काम में मन लगता न कुछ करने, खानेपीने की इच्छा होती. हरदम अकेलापन सालता, काटने को दौड़ता रहता, अकेलेपन का एहसास भी मुझे भयभीत करता रहता. अब मैं क्या करूं? मेरे विचार कुंद पड़ते जा रहे थे. नातेरिश्तेदारों की परवा मैं ने कभी की ही नहीं थी, तो अब कौन साथ देता.

अवसादग्रस्त हो कर मैं ने नौकरी भी छोड़ दी थी. अकेली घर में पड़ी रहती. न खाने की सुध, न कोई बनाने वाला, न कोई मनाने वाला. मम्मीपापा के बीच की मनुहार मुझे अब बारबार याद आती. भाइयों और बहनों के बीच की तकरार, लड़ाईझगड़ा याद आता.

अजीब हालत हो गई थी. शरीर सूख कर कांटा होता जा रहा था. न दिन का पता रहता न रात का. दीवाली पर हरदम रोशन रहने वाला मेरा बंगला और मेरा मन अंधेरे में घिरा रहता. परिवार की अवधारणा को ताड़ कर लिव टुगैदर का मायाजाल, असीम सुख, अब समझ आ रहा था.

     _‘‘सपना… डाक्टर को बुला लाता हूं…’’ महेश कह रहा था. मैं बेसुध सी पड़ी उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी._

     {चेतना विकास मिशन}

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