अग्नि आलोक
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कहानी : चरित्रहीन कोई नहीं

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(मेरी सहेली के जीवन की घटना, उसी के शब्दों में)
~ आरती शर्मा

  _दूसरे दिन पापा घर आ गए। उनके आते ही मम्मी ने मायके जाने का मन बना लिया। वह मुझे भी अपने साथ ले जाएगी, यह सोचकर मैं मन ही मन खुश हो रही थी। लेकिन वह मुझे अपने साथ नहीं ले गई। मम्मी पापा से यह बोलकर अकेली ही चली गई कि मैं मायके जा रही हूं। मां की तबियत खराब है। मैं दो दिन के बाद खुद ही आ जाऊंगी।_
   पापा यह सुनकर बहुत ही खुश हुए। उनका रिश्ता भी अजीब था। मम्मी घर पर होती तो पापा बाहर होते और पापा घर पर होते तो मम्मी बाहर होती। मुझ पर क्या बीत रही है, इससे उन दोनों को कोई मतलब नहीं था। वैसे मैं भी इसकी आदी हो गई थी. अपने आप को समझा लिया था।
     हां, इतना तो जरूर था कि मेरी नजरों में पापा की छवि मम्मी की छवि से कुछ अच्छी थी। अच्छी क्या, पापा के बारे में मैं कुछ जानती ही नहीं थी।   
  _पति-पत्नी के बीच की बढ़ती दूरियां बच्चों के लिए कितनी खतरनाक होती हैं, इसका अहसास मुझे अब हो रहा था। मैं एकदम ही अकेली पड़ गई थी।_

आज मैं दोपहर में ही स्कूल से घर लौट आई। दरवाजा खुला हुआ ही था। हाथ में फाइल लिए मैं बरामदे में आई तो जनानी आवाज सुनकर चौंक गई। अगले पल ही मैं इस सोच में पड़ गई-‘मम्मी आज मायके सुबह ही चली गई। यह पापा के बेडरूम में कौन औरत है?’ मैं यह सोचती हुई बेडरूम की ओर बढ़ गई। खिड़की का दरवाजा बन्द था।
दरवाजे में कुंडी लगी हुई थी। मम्मी-पापा का बेडरूम एक ही था। मुझे ज्यादा सोचना नहीं पड़ा कि अन्दर का नजारा कैसे देखू। दरवाजे के उस छोटे से छेद से होकर एक आंख बंद कर दूसरी आंख से मैं अन्दर झांकने लगी। पापा एकदम निर्वस्त्र थे। और वह महिला, जिसे मैं कुछ-कुछ पहचानती थी नाइटी-गाउन में थी। वह पापा के साथ एक-दो बार घर पर आ चुकी थी।
मैंने दिमाग पर जोर दिया तो उसका नाम भी याद हो आया। उसका नाम रवीना था। रवीना यही कोई बाइस-तेइस की छरहरी देह वाली खूबसूरत महिला थी। वह मम्मी से अधिक सुन्दर भी नहीं थी तो कुरूप भी नहीं थी। मैं हैरान थी, जिस पापा को मम्मी पसन्द नहीं करती है, उस पापा को एक उससे कम उम्र वाली युवती पसन्द करती है। यह ईश्वर की कैसी लीला है?

इतने में ही रवीना ने नाइटी-गाउन उतार कर एक तरफ रख दिया। मेरे तो पैरों तले से जमीन ही निकल गई। मैं यह सब देखकर हैरान हो रही थी- कमाल है, बातचीत से इतनी सभ्य और सौम्य दिखने वाली रवीना कितनी चालू है। मेरी मां भी तो रवीना की तरह ही सौम्य और सीधी-सादी लगती है लेकिन इस मामले में कितनी शातिर है। मैं तो एक शातिर और बदचलन स्त्री-पुरुष की संतान हूँ, मेरा भविष्य कैसा होगा?’

तभी रवीना ने पापा की दायीं जांघ पर कसकर चिकोटी काट दी। लेकिन वह जरा-सा भी गुस्सा नहीं हुए बल्कि उसे और प्यार से अपनी गोद में बिठा लिया। मुझे आज भी याद था, एक बार मैंने पापा को गुदगुदी कर दी थी तो उन्होंने मेरे गाल पर एक थप्पड़ धर दिया था-‘मुझे बदतमीजी पसन्द नहीं।’

मैं गाल सहलाती ही रह गई थी। और आज पापा रवीना की बदतमीजियों पर कोई ध्यान न दे रहे थे। मैं अगले पल ही बुदबुदा पड़ी- क्या व्यक्ति ऐसे नाजुक क्षणों में इतना संवेदनशून्य और सुन्न-सा पड़ जाता है कि दांतों और नाखूनों के वार को भी महसूस नहीं कर पाता है?’ यहीं से मेरे मन के किसी कोने में सैक्स को भोगने की इच्छा ने करवट लेनी शुरू कर दी। मैं सैक्स के इस अलौकिक और आश्चर्यजनक पहलू को पकड़ने की कोशिश करने लगी पीछे चला गया।

इसी बीच पापा ने रवीना को घूरते हुए कहा-‘तुम सचमुच ही मुझे बहुत ही आनंद देती हो। मेरी पत्नी तो मुझे पसन्द ही नहीं करती है। वह कहती है कि तुम तीन-तीन दिन तक दाढ़ी ही नहीं बनाते हो। तुझसे बात कौन करेगा। तुम्हारी दाढ़ी कांटों की तरह मेरे गालों पर चुभती है। रवीना, दाढ़ी तो मेरी आज भी बढ़ी हुई है। क्या तुम भी मेरी दाढ़ी से परहेज करती हो?’

पापा के यह कहते ही रवीना हंसने लगी-‘डार्लिंग, तुम्हारी पत्नी औरत है या कोई मोम की गुड़िया…? भला पुरुष की दाढ़ी की चुभन भी कहीं स्त्री को पीड़ा पहुँचाती है! स्त्री को पीड़ा तो तब पहुंचती है, जब पुरुष बीच में ही साथ छोड़ जाता है।
क्या तुम्हें नहीं पता, सैक्स में नोंच-खरोच का कितना महत्व है? दाढ़ी नोंच-खरोच का ही तो काम करती है। ईश्वर ने कुछ सोच-समझकर ही पुरुष को दाढ़ी दी है। सच तो यह है कि मैं तुम्हें तुम्हारी दाढ़ी से ही पसन्द करती हूं। यह कहते-कहते रवीना ने पापा को बाहों में समेट लिया और अपने चिकने और मुलायम गाल उनके दाढ़ीदार गाल पर रखकर रगड़ने लगी।

यह मेरे लिए एक नया ही अनुभव था। मैं आश्चर्यचकित होकर सोच रही थी-‘यहां तो कोई भी किसी से प्यार नहीं कर ठे रहा…यहां तो केवल सहवास की ही प्रधानता है। रवीना पापा को इसलिए पसन्द करती है, क्योंकि उसे पुरुष की दाढ़ी की चुभन अच्छी लगती है और मम्मी वेदान्त अंकल पर इस लिए मुग्ध है क्योंकि वह सहवास कला में निपुण हैं और साथ ही चिकने गालों वाले हैं। ये दोनों स्त्रियां ही हैं, लेकिन इन की पसन्द अलग-अलग है।

शायद यही वजह है कि स्त्री-पुरुष अपने जीवन साथी को छोड़कर कहीं बहक जाते हैं। बहक क्या जाते हैं, अपने मनपसंद किसी सुयोग्य साथी की तलाश कर लेते हैं। मैं भी तो एक स्त्री ही हूं। क्या मेरी पसन्द अपने विचारों के अनुकूल पुरुष की नहीं है? क्या अपनी पसन्द की चीज को ढूंढना या पाना गलत है? नहीं, पापा, मम्मी, वेदान्त अंकल, रवीना आदि सब बहके या भटके नहीं हैं, इन्होंने तो अपनी-अपनी पसंद को हासिल किया है।

इसी मध्यांतर मैंने देखा, पापा रवीना की देह पर झुकते जा रहे हैं और उनके होंठ रवीना के होंठों को चूमने के लिए मचल रहे हैं। मैंने अगले पल ही अपनी दोनों हथेलियों से आंखें ढक ली और मन ही मन सोचने भी लगी-‘यह कैसी आग है, जो स्त्री को पुरुष-दर-पुरुष और पुरुष को स्त्री-दर-स्त्री भटकने पर मजबूर कर देती है।

पुरुष की बांहों का पहला पहला स्पर्श कैसा होता होगा? पुरुष के संसर्ग में कभी नहीं आने वाली एक स्त्री पुरुष की बांहों के स्पर्श मात्र से ही कितनी रोमांचित हो उठती होगी।’ मैं यह जानने की कोशिश करते-करते पसीने से तरबतर हो गई।
मैंने देखा, मेरे हाथ के पसीने से फाइल भीग गई है और मेरे स्तनों से फूट आये पसीने ने मेरे बनियान को भिगो दिया है। मेरे हाथ अनायास ही मेरी जांघों पर चले गये। मेरी चड्डी भी पसीने से भीग गई थी। मुझे लगा, मेरे भीतर भी कुछ-कुछ हो रहा है। मैं वहां से सीधे अपने कमरे में चली आई। मुझे अच्छे-बुरे का ज्ञान हो गया था।

मेरे होंठों से अनायास ही बोल फट पड़े-‘अब स्थिति मेरे सामने बिलकुल ही स्पष्ट है। न तो मम्मी दोषी है और न ही पापा दोषी हैं। चरित्रहीन कोई नहीं है। एक-दूसरे के प्रति अरूचि, नापसंदगी और परिस्थितिजन्य लाचारी ने ही दूसरे से संबंध बनाने के लिए मजबूर किया है।

जो लोग इन बातों को नहीं समझते, वे ही ऐसे संबंधों को गलत मानते हैं। मैं मम्मी को भी जानती हूं और पापा को भी जानती हूं। मुझे अच्छी तरह से याद है, मम्मी पहले ऐसी नहीं थी। देह बेचना उसका धन्धा नहीं है। वेदान्त अंकल से वह पैसे नहीं ऐंठती है। उसे तो यौनानंद का सुख चाहिए, जो पापा नहीं दे सकते क्योंकि पापा तो रवीना पर मुग्ध हैं।

जब प्रकृति के सारे कार्य समय से होते हैं तो फिर मनुष्य किसी का इंतजार कब तक करेगा। मम्मी जवान है, उसे इंद्रिय-सुख चाहिए ही चाहिए। किसी को बदचलन या चरित्रहीन कहना जितना आसान है, उसको समझना उतना ही कठिन है।

एक पुरुष की बांहों से दूसरे पुरुष की बांहों में जाने का सफर कितना दुष्कर होता है। भले ही सहवास के सुखों में वृद्धि हो जाती हो पर क्या शुरू-शुरू में दूसरे पुरुष तक पहुंचने में तकलीफ नहीं होती होगी? कितना अपमानित होना पड़ता होगा।

मम्मी पापा को नजरअंदाज शुरू से ही करती आ रही है। आखिर कब तक वह अपने प्रति उसकी उदासीनता को ओढ़े रहते? कभी न कभी तो किसी न किसी से तो उन्हें जुड़ना ही था। मैं रवीना की शुक्रगुजार हूं कि उसने पापा को समझा है और मैं वेदान्त अंकल की भी शुक्रगुजार हूं, जिसने मम्मी की पीड़ा को और बढ़ने नहीं दिया है।

अगर पापा के जीवन में रवीना नहीं आई होती और मम्मी के जीवन में वेदान्त अंकल नहीं आए होते तो क्या ये दोनों दिमागी रूप से पागल नहीं हो गये होते? इन अवैध संबंधों ने ही तो उन्हें यौनरोगी होने से बचाया है।’

इतने में ही मेरे विचारों की श्रृंखला टूट गई। पापा दरवाजे में खड़े थे और रवीना उनके पीछे खड़ी थी। मेरे बोलने से पहले ही दोनों मेरे नजदीक आकर बैठ गये। मैंने देखा, दोनों के ही चेहरों पर गजब की ताजगी और आत्मसंतुष्टि थी। मेरे मन में पापा के प्रति कोई मैल भाव नहीं था। मैं रवीना को भी एक बदचलन औरत नहीं मानती थी। मम्मी के लिए भी मेरे मन में कोई बैर भाव नहीं था।
परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थीं कि सब घालमेल हो गया था। ऐसा कभी मेरे साथ भी हो सकता था या किसी दूसरे के साथ भी। मेरी तरह विचारधारा शुरू-शुरू में इन लोगों की भी होगी। जब परिस्थितियां इनके प्रतिकूल होती गई तो इनके विचारों में भी बदलाव आता चला गया।
मेरे भीतर एक गजब का आत्ममंथन चल ही रहा था कि पापा ने मुझे टोक दिया-‘काजोल बेटी, क्या सोच रही हो? तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’

‘ठीक चल रही है, पापा।’ मैंने यह कहते हुए पापा की ओर देखा तो वह मुझसे आंखें मिला न सके। मैं बोली-‘पापा, मैं तो तुम्हारी बेटी हूं। तुम मम्मी के लिए या दुनिया के लिए जैसे भी हो लेकिन मेरे लिए तो सिर्फ मेरे पापा ही हो और मम्मी भी तुम्हारे लिए कैसी भी क्यों न हो पर मेरे लिए तो मेरी मम्मी है।’
जानता हूं, बेटी।’ यह कहते-कहते पापा ने मुझे अपने गले से लगा लिया।

मैंने महसूस किया, पापा कुछ-कुछ यह जान गए थे कि मुझे मालूम हो गया है, रवीना से उनके क्या संबंध हैं। इतने में ही रवीना ने अपने पर्स से टाफियों के दो-तीन पैकेट मेरे आगे रख दिये-‘तुम्हें ये टाफियां पसंद हैं न? मैं तुम्हारे लिए ही लाई हूं।’ रवीना यह कहकर हंसने लगी।

मैं सोच रही थी-‘अब मैं इस प्यार और लगाव को क्या कहूं? कैसे यह कह दूं, कि रवीना बदचलन है या वेदान्त अंकल चरित्रहीन हैं? मुझे एक साथ इतने सारे लोग प्यार करने वाले मिले हैं। मेरे लिए तो सभी अच्छे हैं। बुरे तो तब होते जब वे एक-दूसरे को ब्लैकमेल करते या ठगते-लूटते।

वे तो जिन्दगी को जी रहे हैं। वह भी बड़े ही सलीके से। मम्मी पापा के साथ रह भी रही है और अपने तरीके से जी भी रही है। पापा भी मम्मी के साथ रह रहे हैं और अपना जीवन भी जी रहे हैं। घाटे में कोई है तो वह मैं हूं। मुझे मम्मी-पापा की दोहरी जिन्दगी के साथ आये दिन समझौता करना पड़ता है।
मुझे डर है कहीं मैं भी दोहरी जिन्दगी जीने की आदी न बन जाऊं। इतने सारे लोगों का प्यार किसी दिन मेरे लिए धीमा जहर भी बन सकता है।’ मैं अभी और सोचती इतने में पापा बोल पडे-‘बेटी, तुम अपनी पढाई करो। मैं रवीना को बस स्टैण्ड तक छोड़ कर आता हूं।’
‘यस पापा।’ मैं यह कहकर एक किताब रैक से खींचकर पलटने लगी।
(चेतना विकास मिशन)

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