शशिकांत गुप्ते
प्रत्येक मनुष्य चाहता है,उसे जीवन की स्थिरता प्राप्त हो। जीवन की स्थिरता मतलब मनुष्य को उसके जीवन के सम्बंधित सभी पहलुओं से संतोष जीवन परिणाम प्राप्त हो।
मनुष्य, व्यक्तिगत, व्यापार व्यवसाय,परिवारक, वैवाहिक, आर्थिक, सामाजिक, और शारीरिक सभी पहलुओं से सुदृढ़
होगा तो वह पूर्ण रूप से संतोष जनक जीवन व्यतीत करेगा।
इसे कहतें हैं जीवन की स्थिरता।
किसी मनुष्य के पास धन प्रचुर मात्रा हो,तो इसका मतलब कतई नहीं कि वह स्थिर है।
यह तो मनुष्य के जीवन की स्थिरता का मुख्य कारण हैं।
सरकार की स्थिरता का मतलब बहुमत प्राप्त सरकार से कतई नहीं होता है।
सत्ता साधन हो सकती है। साध्य नहीं। राजनीतिशास्त्र की व्यापकता जो नहीं समझतें हैं।
वे किसी भी बहुमत के आधार पर प्राप्त सरकार को स्थिर सरकार समझने की भूल करतें हैं।
सिर्फ बहुमत यदि स्थिरता का मापदंड होगा तो कोई भी दल धनबल, बाहुबल और अन्य स्वायत्त संस्थाओं का दुरुपयोग कर सत्ता प्राप्त कर लेगा। व्यवहारिक धरातल पर ऐसा हो भी रहा है। ऐसा दल बहुमत के दम्भ पर निश्चित कार्यकाल तक सत्ता में जमा रहेगा।
ऐसी सरकार लोकतंत्र की पक्षधर रहेगी इसमें संदेह है।
लोकतंत्र में विपक्ष का बहुत महत्व होता है। विपक्ष की संख्या कितनी है यह महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण तो यह है कि विपक्ष नीतिगत विरोध कितने सशक्त तरीके करता है। वर्तमान में कुछ प्रचार माध्यमों ने विवक्ष को कमजोर दर्शातें हुए, आमजन में एक भ्रम फैला दिया है कि मौजूदा सत्ता का कोई विकल्प है ही नहीं।
विकल्प सिर्फ कोई राजनैतिक दल नहीं होता है। लोकतंत्र वह हरएक व्यक्ति, और माध्यम विपक्ष होता है जो सत्ता की गलत नीतियों का विरोध करता है। इसतरह जागरूक लोग ही विकल्प तैयार करतें हैं।
लोकतंत्र में राजनैतिक दल का वर्चस्व सरकार पर होना चाहिए और सरकार का वर्चस्व प्रशासन पर होना चाहिए और इन सभी पर जनता का अंकुश होना चाहिए। व्यवहार में उल्टी गंगा बह रही है।
प्रशासन का वर्चस्व सरकार पर है और सरकार का वर्चस्व संगठन पर होता है। इसका मुख्य कारण है। सत्ता को सिर्फ साधन समझने वालों के पास प्रशासनिक अनुभवहीनता।
आज बहुत से निर्णयों के क्रियावरण में जो विलंब हो रहा है और बहुत सी योजना विफल होने का कारण ही प्रशासनिक व्यवस्था पर सत्ता की पकड़ ढीली होना है।
वर्तमान में हर किसी धूर्त व्यक्ति को चाणक्य की उपाधि से सुशोभित कर देतें हैं।
आचार्य चाणक्य धूर्त नहीं था वह नीति को मानने वाला व्यक्ति था। नीति पर वही साहस के साथ चल सकता है,जिसके आचरण में नैतिकता हो।
आचार्य चाणक्य को गहराई से समझेंगे तो चाणक्य का एक महत्वपूर्ण उपदेश समझ में आएगा। आचार्य चाणक्य ने जो उपदेशात्मक संदेश दिया है कि, आचार्य मतलब शिक्षक होता है। शिक्षक का वर्चस्व सत्ता पर होना चाहिए। शिक्षक मार्ग दर्शक होता है। उसे सत्ता के मातहत नहीं होना चाहिए। चाणक्य ने शासक पर अपना वर्चस्व रखते हुए अप्रत्यक्ष रूप से यह स्पष्ट संदेश दिया है कि, आचार्य को सत्ता का वैतनिक कर्मी नहीं होना चाहिए।
आचार्य चाणक्य की तुलना किसी ऐरे-गैर-नत्थू-खैर से करना आचार्य चाणक्य के व्यक्तिव के साथ नाइंसाफी है और चाणक्य का अपमान भी है।
बहरहाल मुद्दा है स्थिर सरकार का?
पूर्व में भी वर्षो तक बहुमत के प्राप्त सरकारें स्थिर रही है। क्या उन सरकारों में कोई घोटाले नहीं हुए? यह अंतर जरूर है कि तात्कालिक सरकारें जांच करवाती थी। आज विपक्ष कितने भी आरोप लगाए जांच की ही नहीं जाएगी?
उपर्युक्त तमाम मुद्दों पर गम्भीरता से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है।
लोकतंत्र में सत्ता नहीं देश की जनता का जीवन स्थिर होना चाहिए। आमजन के जीवन में स्थिरता कैसी होनी चाहिए,यह शुरुआत में कह दिया है।
बहुमत का दम्भ लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है।
फिर भी उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि कालचक्र कभी भी रुकता नहीं है।
सन 1969 में प्रदर्शित फ़िल्म चंदा और बिजली के इस गीत की कुछ पंक्तियां उक्त मुद्दों पर एकदम प्रासंगिक है। इस गीत के गीतकार है स्व. नीरजजी
काल का पहियां घूमे रे भैया
कर्म अगर अच्छा है तेरा
क़िस्मत तेरी दासी है
दिल है तेरा साफ़ तो प्यारे
घर में मथुरा काशी है
सच्चाई की राह चलो रे
जब तक जीवन प्राण चले
शशिकांत गुप्ते इंदौर