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 भारत में खडा हो गया है 5 करोड़ मुकदमों का पहाड़

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 मुनेश त्यागी 

     10 जुलाई के हिंदुस्तान की खबर के अनुसार केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री किरण रिजिजू ने बताया है कि देश में इस समय 5 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इस समय सुप्रीम कोर्ट में 70,154 मुकदमों से अधिक, भारत के 25 उच्च न्यायालयों में 58, 94, 060 से ज्यादा  मुकदमे और निचली अदालतों में 4 करोड़ 15 लाख 47, 976 से ज्यादा मुकदमे पेंडिंग हैं।

    कोरोना के समय पिछले साल भारतवर्ष में  4 करोड़ 60 लाख मुकदमे  पेंडिंग थे। कोरोना काल में मुकदमों की संख्या बढ़ गई है। केस बढ़ने का एक मुख्य कारण न्याय व्यवस्था में ई-फाइलिंग का नहीं होना है यानी की न्याय व्यवस्था आधुनिक तकनीक का सही प्रयोग करने में नाकाम रही है। न्यायपालिका तीनों स्तरों पर इन तकनीकों का फायदा नहीं उठा रही है जिसमें केस फाइलिंग करना, कोर्ट फीस दाखिल करना और पक्षकारों को समन भेजना शामिल हैं। इसका मुख्य कारण वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ब्रॉडबैंड, हाई स्पीड इंटरनेट और पूरा कंप्यूटरकरण न होना भी है। अधिकांश अदालतें इस आधुनिकतम तकनीक का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और पुराने तौर-तरीकों से ही चिपकी हुई है। जिस कारण वादों की समय से सुनवाई नहीं होती और वादों का निपटारा लंबा होता चला जाता है।

     अदालतों में केस निस्तारण का समय से निस्तारण न होने का मुख्य कारण है न्यायालयों में मुकदमों के अनुपात में जजों का ना होना। हमारी 25 हाई कोर्ट में लगभग 40 परसेंट और लोअर ज्यूडिशरी में लगभग 30 परसेंट जजिज के पद पिछले बीस पच्चीस साल से खाली पड़े हुए हैं, वर्षों से खाली पड़े  पदों को समय से भरने की सरकार कोई जरूरत नहीं समझती और लगातार मांग करने पर भी उन्हें नहीं भरा जा रहा है।

     अदालतों में पर्याप्त संख्या में स्टेनो, क्लर्क और प्रक्षिशित स्टाफ नहीं है। अदालत के कार्यालयों में अस्थाई बाबू और क्लर्क नहीं है इनके स्थान पर “अजीर” काम कर रहे हैं जिनकी संख्या लाखों में हैं। इसकी शिकायत बार कौंसिल को, जुडिशरी के इंसपेंक्टिंग जजिस को, कई बार की जा चुकी है मगर वे इस शिकायत को दूर नहीं करते और इस मांग को पूरा नहीं करते और इस ओर से आंखें बंद कर लेते हैं जिस कारण कई बार जरूरी फाइलें आवश्यक निस्तारण के लिए अदालत में पेश नहीं हो पाती। अगर इन अजीरों को हटा दिया जाए तो हमारी न्याय व्यवस्था भरभरा कर गिर जाएगी। अदालतों में वर्षों से बाबुओं की कमी मौजूद है जिस कारण न्यायिक अधिकारी गण मुकदमों का समय से निस्तारण नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो यह देखा गया है की जज वर्षों तक काम करते रहते हैं मगर उनके पास स्टेनो नहीं हैं और इस प्रकार वे मुकदमों का निस्तारण नहीं कर पाते और पक्षकार न्याय की उम्मीद करते करते करते हार जाते हैं और अपने को बिल्कुल असहाय स्थिति में पाते हैं।

     भारत का संविधान सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय का उद्घघोष करता है मगर सरकार की नीतियों के कारण यह नारा खोखला ही बना हुआ है। आज भी वादकारियों को जिला स्थान से हाई कोर्ट जाने में 600 मील से भी दूर जाना पड़ता है जो जनता द्वारा वहनीय नहीं है और सरकार वादकारिर्यों और वकीलों द्वारा आंदोलन करने पर भी इस और ध्यान नहीं देती, उसे अनसुना कर देती है।

     भारत का संविधान भी जनता को सस्ते और सुलभ न्याय की वकालत करता है मगर हमारी सरकारें जिन्होंने न्याय विरोधी रुख अपना रखा है वह संविधान के मैंडेट को भी सुनना और लागू करना नहीं चाहती और जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय नहीं देना चाहती। इस मामले में अधिकांश सरकारों ने न्याय विरोधी और संविधान विरोधी रुख अपना रखा है।

     इस मामले में लगभग सभी सरकारें दोषी हैं। चाहे सरकार बीजेपी की है, कांग्रेस की रही है, चाहे बीएसपी की रही है,या समाजवादी पार्टी की रही है। वे सब जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय देने के पक्ष में नहीं रही हैं। यह मुद्दा कभी उनके एजेंडे में ही नहीं रहा है। न्यायपालिका का बजट लगातार कम किया जा रहा है जो वर्तमान में .०२ परसेंट है जबकि वास्तव में यह कम से कम जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए।

      हम लोग यूएसए, यूके, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों की बात करते हैं मगर उनसे कुछ सीखना नहीं चाहते। यूएसए में और यूके में जीडीपी का 3 परसेंट न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है और वहां जनता को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराया जाता है लोगों को वर्षों न्याय पाने का इंतजार नहीं करना पड़ता।

    कई लोग कहते सुने गए हैं और कभी-कभी सरकार भी वकीलों पर आरोप लगाती है कि वकीलों द्वारा मुकदमों में ज्यादा स्थगन दिए जाने के कारण मुकदमों की पेंडेंसी बढ़ी हुई है मगर यह आरोप बेबुनियाद है। यदि मुकदमों के अनुपात में जजों की और स्टाफ की नियुक्ति हो जाए और पर्याप्त संख्या में न्यायालय उपलब्ध करा दिया जाएं, तो मुकदमों का निस्तारण समय से हो जाएगा। ऐसा होने पर वकील मुकदमे को ज्यादा दिन तक लंबित नहीं रख सकते और इसके लिए भी सरकार कानून बना सकती है। एक मुकदमे को निर्णित करने के लिए समय सीमा निश्चित कर देनी चाहिए। समय सीमा में मुकदमा निर्णित न होने पर दोषी पक्ष के ऊपर कठोर जुर्माना लगाया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में  न्याय भी जल्दी मिलेगा और  पक्षकार जल्दी से जल्दी मामले को निपटाने की कोशिश करेंगे। मगर सरकार ऐसा भी नहीं चाहती क्योंकि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। ऐसी स्थिति के रहते, वकीलों को, मुकदमों के निपटारे में होने वाली देरी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और इसके लिए केवल और केवल सरकार ही जिम्मेदार है जिस कारण वाद कार्यों को समय से न्याय नहीं मिल पा रहा है।

    उपरोक्त विवरण से यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में न्याय व्यवस्था नहीं है। वह जनता को समय से सस्ता, सरल और शीघ्र न्याय उपलब्ध नहीं कराना चाहती, वह मुकदमों के अनुपात में जज और स्टाफ की नियुक्ति नहीं करना चाहती, वह बजट का समुचित परसेंट जो लगभग 3 परसेंट हो सकता है, न्याय व्यवस्था पर खर्च नहीं करना चाहती और न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। इसके लिए किसी दूसरे पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए वकीलों या जनता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता को सस्ता, सुलभ और शीघ्र न्याय न देने के लिए केवल और केवल सरकारें जिम्मेदार हैं। सरकार की जनता को सस्ता और सुलभ न्याय न कराने की नीति की वजह से हमारे देश में मुकदमों का पहाड़ खड़ा हो गया है। इस समय हमारे देश में 5 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमे न्यायालय में लंबित हैं।

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