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बैंगन का भरता बनाम लोकतंत्र?

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शशिकांत गुप्ते

आज सुबह सीतारामजी ने मुझे मेरे एक व्यंग्य लेख का स्मरण कराया। सीतारामजी स्वयं भी व्यंग्यकार है।
मैने सीतारामजी से कहा, मुझे प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद।
सीतारामजी ने कहा प्रोत्साहित नहीं कर रहा हूँ। याद रखना व्यंग्यकार को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए, उसे उकसाना चाहिए। प्रोत्साहन की जरूरत उसे होती है,जो साहसिक नहीं होता है। व्यंग्य लिखना तो साहस का काम है।
सीतारामजी, मुझे, मेरा व्यंग्य पढ़कर सुनाते जा रहे थे, और मैं लिख रहा था।
(26 दिसंबर 2019 को लिखा यह व्यंग्य है)

इनदिनों मै परेशान हूँ।परेशानी का कारण,मेरी सहज और साधारण असहमति को आपत्तिजनक समझा जारहा है।
यह आपत्तिजनक समझने वाले सभी मेरे अपने है।
मेरा सिर्फ इतना कहना है,मुझे बैंगन का भरता भाता नहीं है।
यह तो मैं कह सकता हूँ। इतना हक़ तो मुझे मिलना ही चाहिए।मिलना क्या चाहिए? इतना हक़ है मुझे।
मै यह भी बता दूं कि मुझे बैंगन का भरता क्यों नहीं भाता है।
मेरे पास इसके ठोस कारण है।मुझे बैंगन का भरता बनाने की विधि से ही मैं परेशान हूँ।
यह विधि ही मुझे बैंगन का भरता खाने से रोकती है।
सर्व प्रथम पूरे बैंगन के उपर तेल लगाया जाता है। तेल लगाने जैसे शब्द से ही मुझे नफ़रत है। बहरहाल तेल लगाने के बाद बैंगन को गर्म आंच पर सेंका जाता है, मतलब बैंगन को जीते जी जलाया जाता है। अच्छे से सेंकने के बाद उसका भरता बनाया जाता है। भरता बनाना मतलब बैंगन का कचूमर निकालना होता है। यह सारी प्रक्रिया मुझे अमानवीयता के साथ अलोकतांत्रिक भी लगती है।
मैने हिम्मत जुटाई और साफ कह दिया,मुझे नहीं खाना बैंगन का भरता।
जब मैने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरजोर तरीके से बहुत ही साहस के साथ इजहार किया।
मुझ पर तुरन्त असहिष्णुता का आरोप थोप दिया गया।
मैने कहा असहमति तो लोकतंत्र की बुनियाद है। ऐसा करते हैं, इस पर तार्किक बहस कर लेते है।
मुझे जवाब मिला, बहस वैगेराह कुछ नहीं सुनना,आपको बैंगन भरता खाना ही पड़ेगा।
हाँ यह बैंगन का भरता आपको सिर्फ खाना ही नहीं पड़ेगा। आप को चुपचाप खाना है। आप बैंगन के भरतें में कोई नुक्ताचीनी नहीं कर सकते हो।
मैने पूछा नुक्ताचीनी का मतलब?
जवाब मिला इनदिनों सवाल करना भी आपत्तिजनक हो सकता है?
आप भरता खाते समय कोई भी
नखरे नहीं कर सकते हैं।
कोई कमीबेशी निकाल नहीं सकते,जैसे इसमें नमक कम है।मिर्ची ज्यादा है। प्याज नहीं है।बघार ठीक से नहीं लगी आदि आदि।
आपको बस चुपचाप खाना है।
नहीं तो आप पर आपत्तिजनक बयान देने के जुर्म में कानूनी कार्यवाही हो सकती है।
मुझे सन 1975 के जून माह 25 तारीख़ का स्मरण हुआ।
यह स्मरण क्यों किस सन्दर्भ में हुआ,यह सब मै नहीं बता सकता हूँ। कहने को मेरे पास बहुत कुछ है,मगर कह नहीं सकता हूँ,लेकिन मै चुप भी रह नहीं सकता।
मेरे मानस में चल रहे इन विचारों को पूर्ण विराम तब लग गया,जब अचानक मेरी नींद खुली।
गृहलक्ष्मी की आवाज थी।
अजी सुनते हो,चलो खाना तैयार है।
मैने पूछा खाने में आज क्या बनाया है।जवाब मिला बैंगन का भरता।
सीतारामजी ने कहा समझमें आया, व्यंग्यकार स्वप्न में भी व्यंग्य की ही कल्पना करता है।
मेरा हौसला अफजाई करने के लिए सीतारामजी ने प्रख्यात शायर स्व. दुष्यन्त कुमारजी की एक ग़ज़ल का शेर सुनाया।
मै बे-पनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मै इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

मैने सीतारामजी को पुनः धन्यवाद देतें हुए। दो पंक्तियां सुनाकर कलम को विराम दिया।
वादों से मुकरना माफ है,
सवाल करना पाप है?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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