बिहार के सत्ता ढांचे में ऐसी हेरफेर की उम्मीद हाल तक शायद ही किसी ने की होगी। पिछले सत्रह वर्षों से वहां सरकार की धुरी नीतीश कुमार ही बने हुए हैं लिहाजा एक छोर से देखने पर इसमें कोई बदलाव नहीं दिखता। लेकिन बीजेपी जिस तरह पूरे देश में वन-पार्टी सिस्टम बनाने की ओर बढ़ रही है, उसका इस बदलाव में किनारे पड़ जाना किसी ऑफ-बीट खबर जैसा लगता है। बिहार की राजनीति पर नजदीकी से नजर रखने वाले बताते हैं कि इसके संकेत काफी पहले से मिल रहे थे। जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन 2020 में हुए विधानसभा चुनाव के समय से ही असहज स्थिति में था। लगभग बराबर के सीट बंटवारे वाले इस गठबंधन में जेडीयू को 25 सीटें एक अन्य एनडीए लोक जनशक्ति पार्टी के चलते गंवानी पड़ीं, जिसके नेता चिराग पासवान उस चुनाव में जितने उत्साह से बीजेपी को अपना समर्थन दे रहे थे, उतने ही आक्रोश के साथ जेडीयू को हराने में जुटे थे।
कहां खटकते थे नीतीश
बीच में दो-ढाई साल का एक वक्फा छोड़ दें तो नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू लगभग चौथाई सदी से बीजेपी के गठबंधन सहयोगी हैं। इसके बावजूद दोनों के रिश्तों में एक स्तर पर टकराव भी देखा जाता रहा है।
- नीतीश ने मंदिर आंदोलन को कभी अपना समर्थन नहीं दिया, न ही ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे मुसलमानों में उनके प्रति या उनकी सरकार को लेकर कटुता पैदा हो।
- नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और जाति जनगणना भी नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच स्थायी टकराव के मुद्दे रहे हैं, जिसको लेकर बीजेपी नेतृत्व काफी असुविधा महसूस करता रहा है।
वैसे भी, 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के 43 के मुकाबले 77 सीटें लेकर आई बीजेपी बीते डेढ़ साल में अपनी धमक दिखाने का कोई मौका नहीं चूकती थी। विधानसभा में स्पीकर विजय कुमार सिन्हा (बीजेपी) और नीतीश कुमार के कटु संवाद का विडियो देश भर में इसके प्रमाण की तरह देखा गया। ऊंट की पीठ का आखिरी तिनका साबित हुआ जेडीयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह का मामला, जो केंद्र में इस पार्टी के अकेले मंत्री थे। राज्यसभा में कार्यकाल का विस्तार न मिलने से उन्हें यह पद छोड़ना पड़ा। जेडीयू के लोगों का कहना है कि बीजेपी उन्हें आगे करके जेडीयू को तोड़ने की कोशिश ठीक उसी तरह कर रही थी, जैसे महाराष्ट्र में हाल ही में शिवसेना के साथ की गई है।
बहरहाल, वह गठबंधन टूट चुका है और वह सरकार भी जा चुकी है। नीतीश कुमार अब गठबंधन नहीं, ‘महागठबंधन’ के मुख्यमंत्री हैं, जिसमें सात पार्टियां- जेडीयू और लालू यादव की पार्टी आरजेडी के अलावा कांग्रेस, तीनों वामदल और जीतनराम मांझी की ‘हम’ के साथ-साथ एक निर्दलीय विधायक भी शामिल हैं। इस गठबंधन के पास विधानसभा में दो तिहाई बहुमत है और इसकी जमीनी शक्ति भी काफी है, लेकिन इतने घटकों को समायोजित करना कठिन है और जेडीयू की छोटी ताकत इस बार भी समस्या बनी रहेगी।
विधानसभा चुनाव के बाद कार्यकाल पूरा करना तो दूर, इसके दो साल बीतने से पहले ही अपना चुनावी गठबंधन तोड़कर विरोधी विचार वाले दल के साथ नया गठबंधन बना लेने का मामला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ दूसरी बार हुआ है। इसका एक पहलू राजनीतिक नैतिकता का है तो दूसरा इस राजनेता की प्रशासनिक अपरिहार्यता का है। नीतीश कुमार का अपनी कुर्मी जाति के अलावा भी एक अच्छा-खासा जनाधार है। अति पिछड़ी जातियों, पिछड़े मुसलमानों, छोटे व्यापारियों और बड़े दायरे में महिलाओं के वोट उन्हें मिलते हैं। राजकाज को लेकर इस तरह का कामकाजी भरोसा बिहार की दोनों बड़ी पार्टियां आरजेडी और बीजेपी लोगों में नहीं जगा पातीं। ऐसे में नीतीश कुमार को ‘पलटूराम’ बताकर कोसते रहना अलग बात है लेकिन दोनों ही उनके साथ रिश्ते बनाकर चलती हैं।
पिछली बार नीतीश ने आरजेडी का साथ छोड़कर बीजेपी का पल्लू पकड़ा था तो इसकी वजह लालू प्रसाद के दोनों बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप का भ्रष्टाचार बताया था, जो उनके वरिष्ठ मंत्री हुआ करते थे। तेजस्वी तब भी उप-मुख्यमंत्री थे, इस बार भी यह पद संभालने जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के मुकदमे दोनों पर चल ही रहे हैं, हालांकि उनका संबंध लालू यादव के रेलमंत्री वाले कार्यकाल से है। टकराव की भीतरी वजह बड़ी पार्टी होने की आरजेडी की हनक बताई जाती थी, जो नीतीश के सामने लालू परिवार की दबंगई में जाहिर होती थी। यह समस्या इस बार भी बनी रहेगी, हालांकि आशा की जा सकती है कि सत्ता से हटने का नुकसान दोनों भाई पहले से ज्यादा समझ चुके होंगे और बीजेपी से एक बार और रिश्ता बनाने को लेकर नीतीश कुमार भी पहले जितने आश्वस्त नहीं रह गए होंगे।
आगे की ओर देखें तो इस बदलाव का एक छोर 2024 में होने वाले आम चुनाव से जुड़ता है। एक अर्से से राजनीति में बीजेपी का हर दांव सही पड़ रहा है। विपक्ष कोई चुनाव जीत ले तो भी छह महीने या साल भर में सरकार वहां बीजेपी की ही नजर आ रही है। कुछ विश्लेषकों ने इसे ‘शाह मिरैकल’ की संज्ञा दी है। अमित शाह का चमत्कार, जिसमें इक्कीसवीं सदी के पैमाने पर काम करने वाले साम-दाम-दंड-भेद के अलावा भी कुछ बातें शामिल हैं।
- बिहार का यह बदलाव शाह मिरैकल की अबाध गति में एकाध छोटे-मोटे रोड़े अटका सकता है।
- नई नीतीश सरकार अगर अगले आम चुनाव तक चलती रही तो विपक्ष को अपना कामचलाऊ कुनबा जोड़ने में कुछ मदद मिल सकती है।
सामाजिक न्याय की वापसी
एक अटकलबाजी चुनाव से पहले नीतीश कुमार के केंद्रीय राजनीति में चले जाने, विपक्ष का नेतृत्व संभाल लेने और प्रधानमंत्री का चेहरा बन जाने की है, लेकिन इसके लिए बिहार में ‘गाछे कटहर ओठे तेल’ का जमीनी मुहावरा बोला जाता है। यानी कटहल अभी पेड़ पर लटका है लेकिन बंदे हैं कि होंठों पर तेल पोतकर उसे कच्चा ही खा लेने की तैयारी में जुटे हैं। बीजेपी की चिंता आम चुनाव-2024 में नीतीश की चुनौती को लेकर नहीं, अब से लेकर तब तक के समय में बिहार की राजनीतिक हलचलों को लेकर होनी चाहिए। मोदी सरकार के हर स्याह-सफेद को लेकर देश में अभी एक आम सहमति बनी हुई दिख रही है। कांग्रेस की ओर से आने वाले आलोचनात्मक बयानों को विपक्ष का रवायती काम भर समझा जाता है। आने वाले दिनों में अगर बिहार में सामाजिक न्याय का मुहावरा जोर पकड़ता है तो केंद्र सरकार को लेकर की जाने वाली टिप्पणियां लोगों को ज्यादा दूर तक और देर तक सुनाई देने लगेंगी।