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रियल स्टोरी : स्प्रिचुयलिटी के नाम पर यंग गर्ल से छल

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 डॉ. विकास मानव

(मनो-चिकित्सक/ध्यान-प्रशिक्षक)

      _सन 1999 यानी 10वीं में पढ़ने के समय से अब तक पांचों उंगलियों के बीच द्रौपदी की तरह स्व-साधना, मानवकल्याण की क्रिया और मेरी लेखनी चलती आ रही है। अनेक बाधाएं आयीं, विघ्न उपस्थित हुए, तरह-तरह के मानसिक और शारीरिक कष्ट आये लेकिन लेखनी की गति कहीं रुकी नहीं, उसका प्रवाह कहीं थमा नहीं। अनवरत चलती रही और चलती रहेगी देह के अंत तक।_

         इस दीर्घ कालावधि में जीवन में विचित्र, अद्भुत और अविश्वसनीय रूप से घटी घटनाओं और उनके अनुभवों पर आधारित न जाने कितनी कथा-कहानियां लिखीं, विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर लेख लिखे और न जाने कितने साहित्यिक निबन्ध लिखे, उनका लेखा-जोखा नहीं है हमारे पास। 

      यह तो सर्वविदित है कि वर्तमान समय में सर्वशक्तिमान और ऐश्वर्यवान धर्माचार्यों और आधुनिक सुख-सुविधा सम्पन्न धर्मगुरुओं की संख्या जहां एक ओर बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक साज-सज्जा और आधुनिक परिवेश में साध्वी महिलाओं और सन्यासिनियों की भी बढ़ती जा रही है संख्या।

      _इन सभी लोगों के बीच सिद्ध साधकों और योगियों का अपना-अपना जगत है। इन समस्त महापुरुषों के पाखण्ड और आडम्बर से भरे-पूरे विशाल आश्रम हैं और हैं रहस्यमय मठ भी जिनमें गैरिक वस्त्रधारिणी युवा शिष्याओं की ही संख्या अधिक मिलेगी आपको जिन्हें देखकर देवकन्याएं भी शरमा जायें।_

      धर्माचार्यों के आध्यात्मिक प्रवचन, धर्मगुरुओं के पारलौकिक उपदेश और सिद्ध साधकों और योगियों की ब्रह्मज्ञान से सम्बंधित चर्चाओं को सुनकर लोग प्रसन्न होते हैं, मुग्ध होते हैं और हो उठते हैं गदगद और समझने लगते हैं अपने-आपको धन्य।

   _वे भला बेचारे क्या जानें कि प्रवचन के रूप में जो सुन रहे हैं, वह उधार का ज्ञान है, अपना नहीं। अनुभवहीन है प्रवचन। उससे किसी प्रकार का कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं। जो प्रवचन या उपदेश उन्हें प्राप्त हो रहा है, वह पूर्णरूप से तथ्यहीन है।_

        अध्यात्म से उसका कोई दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार उन्हें जो ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो रहा है, उसका वेद-उपनिषद आदि से कोई नाता-रिश्ता नहीं है।

    जो दीक्षा उन्हें प्राप्त हो रही है, उससे किसी प्रकार का आत्म-कल्याण सम्भव नहीं है।

      यह कहना अनुचित न होगा कि ऐसे कलियुगी महात्माओं और महापुरुषों का अपना न कोई ज्ञान होता है और न तो होता है अपना कोई अनुभव ही। उनकी अपनी कोई आध्यात्मिक सम्पत्ति नहीं होती। यदि उनकी कोई सम्पत्ति होती भी है तो वह है उनका पाखण्ड और आडम्बर.

        कुछ ऐसे महापुरुष हैं जो इस लोक की बातें कम और परलोक की बातें अधिक करते हैं जिसे किसी ने देखा तक नहीं।

   एक महात्मा तो ऐसे हैं जो प्रायः मेरी अभिव्यक्ति पढ़ते हैं। किसी रचना में मैंने सूक्ष्म जगत और सूक्ष्म शरीर की चर्चा की है। बस फिर क्या था ? मसाला मिल गया महात्मा को। अपने प्रवचन का मुख्य विषय बना लिया उन्होंने और न जाने कितने प्रवचन दे डाले सूक्ष्म जगत और सूक्ष्म शरीर पर। आज भी उनके प्रवचन का मुख्य विषय यही है।

      भारतीय अध्यात्म में मनोनिग्रह का भारी महत्व है जिसका आधार कल्पना-शक्ति है। कल्पनाओं में सबसे बड़ी कल्पना पवित्र ईश्वर का विचार है। हम जितना ही ईश्वर के विचार को आत्मसात करते जाएंगे, उतने ही मन के साथ हमारे संघर्ष कम होते जाएंगे और अन्त में पूर्ण मनोनिग्रह को हो जाएंगे उपलब्ध योग में।

      _मनोनिग्रह सबसे ऊंची चीज है। मनोनिग्रह आवश्यक है। योग-तन्त्र की सारी साधनाओं की सफलता एकमात्र मनोनिग्रह पर आधारित है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि भौतिक विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान–दोनों कल्पना-शक्ति पर आधारित हैं।_

आपको ज्ञात होना चाहिए कि जब से पश्चिम के भौतिकवाद से घबड़ाये, परेशान, तनावग्रस्त और ऊबे हुए  महापुरुषों का वास्तविक सुख-शान्ति की खोज में भारत आना अधिक हो गया है, तभी से भारत में साधु, सन्यासियों, योगियों और सिद्ध साधकों की जमात भी द्रुत गति से बढ़ने लगी है जिनकी अपनी-अपनी ऐश्वर्यमयी और सुख-सुविधा सम्पन्न प्रभावशाली मण्डलियां भी हैं और जिनके सदस्य अधिकांश पश्चिमी देशों के पलायनवादीे लोग हैं जो वास्तविक सुख-शान्ति की खोज में भारत आते हैं।

      _अब प्रश्न यह है कि देश के हों या विदेश के लोग, क्या उनको उपलब्ध होता है सच्चे अर्थों में सुख और उपलब्ध हो पाती है सच्चे अर्थों में शान्ति ? विचारणीय है यह प्रश्न। प्रायः मेरा सामना ऐसे लोगों से बराबर पड़ता रहता है जो मण्डलियों से भटक कर या किसी महापुरुष के चंगुल से किसी प्रकार मुक्त होकर आ जाते हैं मेरे पास–कुछ जिज्ञासाएं लेकर या कुछ आध्यात्मिक प्रश्न लेकर।_

      अभी कुछ समय पहले ऋषिकेश से एक साध्वी महिला आयी थी। नाम था–शाम्भवी प्रिया। वह तो उनका गुरुप्रदत्त नाम था, वैसे उनका जन्म का नाम था–शान्ति तनेजा।

       _शरीर से स्वस्थ, सुन्दर और आकर्षक महिला थी शाम्भवी प्रिया। आयु भी यही रही होगी 26 के लगभग। मेरे पास परामर्श के लिए आई थी वह।_

         पहले तो उन्होंने अपने-आपको संयत किया फिर गम्भीर स्वर में कहना शुरू किया–मेरी कुण्डलिनी जागृत हो चुकी है। सारा शरीर बराबर तपता रहता है कुण्डलिनी शक्ति के उत्ताप से। अठारह वर्ष की अवस्था में मुझे शक्तिपात दीक्षा दी थी गुरूदेव ने।

       रोमांचित हो उठा था मेरा सारा शरीर और प्रफुल्लित हो उठा था मेरा मन-प्राण और आनन्द के सागर में डूब गयी थी मेरी आत्मा। उस परम दीक्षा के मूल्यवान क्षणों में उपलब्ध सुख और आनन्द का मैं वर्णन नहीं कर सकती।

      इतना कहकर कुछ क्षणों के लिए आंखें बंद कर लीं साध्वी ने। लगा–जैसे उस आनंद की स्मृति सजीव हो उठी हो उनके मानस-पटल पर। उसी अवस्था में आगे बोली–पूरे दस वर्षों के अन्दर न जाने कितनी बार “मेरे शरीर के साथ एक-शरीर होकर” शक्तिपात दीक्षा दी थी गुरूदेव ने।    

       उनका कहना था कि जब तक कुण्डलिनी का जागरण न हो जाये तब तक दीक्षा का चलता रहेगा यह क्रम।

      बाद में गुरुदेव अस्वस्थ रहने लगे थे। दिन भर खांसते ही रहते. अधिक-से-अधिक सोने भी लगे थे। अवस्था भी तो हो गयी थी उनकी साठ के ऊपर। अब जब मैं कभी अध्यात्म की चर्चा करती तो झिड़क देते मुझे। एक दिन मुझे बुलाकर मेरे सिर पर हाथ रखकर खांसते हुए गुरूदेव बोले–तेरी कुण्डलिनी अब जागृत हो गयी है। शक्तिपात दीक्षा की अब आवश्यकता नहीं। अब तू एक सिद्ध साधिका है। विवाह कदापि न करना। अब केवल गुरु-चिन्तन करते हुए जीवन व्यतीत करना है तुझे।

      यह सब सुनकर स्तब्ध रह जाना पड़ा मुझे एकबारगी। मुंह बाए अपलक देखता रह गया मैं उस सरलचित्त महिला की ओर।

       _शक्तिपात और उसकी दीक्षा के नाम पर आध्यात्मिक समाज में कितना भ्रम फैलाया जा रहा है, उपद्रव किया जा रहा है और कितना चारित्रिक पतन हो रहा है और कितना हो रहा है शारीरिक शोषण भी।_

      इस प्रसंग में यह बतला देना और स्पष्ट कर देना अति आवश्यक है कि शक्तिपात दीक्षा योग-तन्त्र की अति आवश्यक और महत्वपूर्ण दीक्षा है। वह अत्यन्त गहन, गम्भीर और रहस्यमयी और सर्वोच्च दीक्षा समझी जाती है। यह गुह्य और गोपनीय दीक्षा उस विशेष व्यक्ति को दी जाती है जो योग-तन्त्र परक साधना की एक विशेष अवस्था को उपलब्ध हो गया होता है।

 शक्तिपात दीक्षा के पूर्व चार प्रकार की क्रमदीक्षा है–स्पर्श दीक्षा, मनोनिग्रह दीक्षा, यवजनिका दीक्षा और वैन्दव दीक्षा। इन दीक्षाओं के संपन्न होने पर ही सद्गुरु शिष्य को अन्तिम शक्तिपात दीक्षा प्रदान करता है जिसके प्रभाव से साधक के व्यक्तित्व में तत्काल आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। मन, मन नहीं रह जाता, प्राण, प्राण नहीं रह जाता और आत्मा, आत्मा नहीं रह जाती।

      _तीनों अपने-अपने स्थान पर नैसर्गिक अवस्था को हो जाते हैं उपलब्ध। सारे कर्म-विपाक नष्ट हो जाते हैं जिससे नष्ट हो जाते हैं आणव मल भी। वह शक्तिपात दीक्षा इतनी सरल और इतनी सहज नहीं है जिसको देने और लेने वाले–दोनों दुर्लभ होते हैं–गुरु भी और शिष्य भी।_

      हे भगवान ! यह समझते देर न लगी मुझे कि शक्तिपात और कुण्डलिनी-जागरण के नाम पर प्रत्यक्ष रूप से उस सरलचित्त महिला का केवल आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण किया गया था.

अब बताइये आप। मुझसे क्या चाहती हैं ?–सहज भाव से पूछा मैंने।

      बड़ी ही विकट समस्या है मेरी, उसी का हल और समाधान चाहती हूं मैं आपसे। 

      स्पष्ट करिए, सम्भव होगा तो हो जाएगा समाधान–मैंने कोमल और अपनत्वभरे स्वर में दिया उत्तर।

      गुरुदेव तो अब रहे नहीं। अपने गुरु के शरण में चले गए हमेशा-हमेशा के लिए। लेकिन कब तक उनका चिन्तन करती रहूंगी मैं ? आप ही बतलाइये। 

      _परिवार में माता-पिता हैं नहीं। बड़ा भाई है, वह सपरिवार दुबई में रहता है। माँ ने जो मेरी शादी के लिए रुपये और जेवर रखे थे, उन सबको मैंने अर्पित कर दिया था गुरुदेव के चरणों में। एक प्रकार से निराश्रित और एकाकी ही समझिए आप मुझे।_

      थोड़ा रुककर वो आगे बोली–एक युवक से प्रेम करने लगी हूँ मैं। उससे शादी करना चाहती हूँ। वह भी इसके लिए तैयार है। क्या मैं शादी कर सकती हूँ ? गुरु की आत्मा रूष्ट तो नहीं होगी ?

      यह सुनकर तरस आ गया मुझे उस सीधी-सादी सरलचित्त युवती पर। मन-ही-मन सोचने लगा–कितनी निश्छल है यह ! अध्यात्म के नाम पर किस प्रकार छली गयी यह युवती–स्वयं उसे ज्ञात नहीं।

      _यदि स्पष्ट रूप से सब कुछ बता देता तो संभवतः उसका अर्थ कुछ और ही लेती वह। इसलिए मैंने हँसकर कहा–आप सहर्ष विवाह करिए। रही गुरु की बात, उनकी पवित्र आत्मा महानिर्वाण को हो गयी है उपलब्ध, इसलिए उनकी आत्मा को कष्ट होने का प्रश्न ही नहीं है।_

      कुण्डलिनी का क्या होगा ?–थोड़ा व्यग्र भाव से बोली वह।

      हँसे बिना न रहा गया मुझसे। मैंने कहा–

_यह आपका भ्रम है। कुण्डलिनी स्त्रियों में होती ही कहाँ है कि जागृत होगी आपकी।_

      ऐं  क्या कहा आपने–कुण्डलिनी होती ही नहीं स्त्रियों में ? –आश्चर्यचकित होकर बोली वह।

      हां ! ठीक ही तो कह रहा हूँ मैं। स्त्री का गर्भाशय ही कुण्डलिनी का प्रतिनिधित्व करता है।

     _चलिए आपके गुरु का ही कहना मान लेता हूँ। यदि आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गयी होती तो आप मेरे पास आती ही क्यों ? आप रहती समाधिस्थ और अपने आप में मग्न।_

      मेरी बात सुनकर सिर झुकाए विचारमग्न बैठी रही कुछ देर तक साध्वी। फिर सिर उठाकर मेरी ओर देखा एक निरीह नारी की तरह।

       _उसकी आँखों से झर-झर कर गिर रहे थे आँसू गालों पर। उस समय निश्चय ही वे आँसू पश्चाताप के थे–इसमें सन्देह नहीं।_

    मेरे मार्गदर्शन में उसी महीने शादी करली अपने प्रेमी के साथ शाम्भवी प्रिया ने। गुरु का दिया हुआ नाम और माता-पिता का दिया हुआ नाम टांग दिया खूँटी पर उन्होंने और उनके स्थान पर पति का दिया हुआ नाम रखा–पुष्पा सिहोरिया।

कहने की आवश्यकता नहीं– इस तरह के कई मर्मस्पर्शी उदाहरण हैं मेरे पास। यदि उन सभी को लिपिबद्ध करना चाहूं तो एक बहुत मोटी पुस्तक तैयार हो जाएगी।

      _मेरी अभिव्यक्ति को पढ़कर तार्किकों के मन में तर्क उत्पन्न होता है। जो अल्पज्ञ हैं, उनके मन में उत्पन्न होता है–अविश्वास और कौतूहल। जो पूर्णरूप से भौतिकवादी हैं, उनके मन में उत्पन्न होती है कल्पना, ऊँची कल्पना और जो अध्यात्मप्राण जिज्ञासु हैं, वे अपनी आत्मतुष्टि के लिए अपनी जिज्ञासाओं को प्रकट करते हैं।_ 

      बहुत-से ऐसे प्रबुद्ध पाठक हैं जो यह जानने के लिए इच्छुक हैं कि मैंने अपने आध्यात्मिक जीवन में इतनी शीघ्र सफलता कैसे प्राप्त कर ली ? बहुत-से ऐसे कार्य हैं जिनको पूर्ण करने में कई जन्म लेने पड़ सकते हैं, लेकिन आपने उन्हें एक ही जन्म में कैसे कर लिया पूर्ण ? असम्भव-सा लगता है।

      _इस सम्बन्ध में मेरा एक ही उत्तर है :_

इस संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। सब कुछ सम्भव है बन्धु ! इस संसार में यदि कोई अति मूल्यवान और अति महत्वपूर्ण वस्तु है तो वह है ‘समय’।

   समय के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–‘काल’ यानी समय में मैं ‘क्षण’ हूँ। आपको जीने के लिए केवल एक क्षण प्राप्त होता है और जब आप एक क्षण जी लेते हैं तो आपको जीने के लिए प्राप्त होता है दूसरा क्षण। अपने जीवन में प्रत्येक क्षण का मूल्य और महत्व समझा है मैंने और क्षण को पूर्णरूप से जिया है मैंने।

      अध्यात्म ही नहीं, जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी मेरी सफलता का यही एकमात्र रहस्य है। अब रही साधना-उपासना की बात तो जितने देवी-देवता हैं, उतनी ही उपासनाएँ हैं, लेकिन जहां तक प्रश्न साधना का है, वे दो ही हैं–योग-साधना और तंत्र-साधना।

     इन दोनों का आविर्भाव वेदों से हुआ है। दोनों साधनाएं योग्यता और संस्कार पर निर्भर हैं। यदि ये दोनों हैं तो आप में साधना के प्रति उत्पन्न होगी रुचि और तभी साधना-मार्ग पर उठेंगे आपके पैर और तभी प्राप्त होगी सफलता भी।

       _बस, आध्यात्मिक प्यास होनी चाहिये। यदि है तो आप एक-न-एक दिन उस स्थान पर पहुंच जाएंगे जहां पहुंच कर आपके मुख से स्वयं निकल पड़ेगा–“ॐ शान्ति…।” जिसका अर्थ है–‘परमशान्ति’ और सर्वत्र ‘परम आनन्द’।_

    {चेतना विकास मिशन)

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