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संघियों और उसके गुंडों को एक्सपोज करता ‘लाल सिंह चढ्ढा’ की कामयाबी

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कहावत है नंगा को नाचना नहीं चाहिए, इससे उसकी नंगई खुलकर सामने आ जाती है. ठीक ऐसी ही हालत संघियों और उसके नाकारा भक्तों की हो गई है जब उसने और उसके गोदी मीडिया ने अमीर खान की हालिया फिल्म लाल सिंह चड्ढा को फ्लॉप कराने के लिए पूरी ताकत लगा दी. संघियों ने ठीक ऐसी ही ताकत अपनी अम्मा कंगना रनौत और अनुपम खेर की फिल्म कश्मीर फाईल को सुपर हिट कराने में लगाया था. कश्मीर फाईल को हिट कराने के लिए तो उसने बकायदा पोस्टर तक चिपकाया था.

संघियों का पूरा जोर लगाने के बाद भी लाल सिंह चढ्ढा का सुपर हिट हो जाना, कंगना रनौत की फिल्मों का बुरी तरह पिट जाना और कश्मीर फाईल का बदनाम हो जाना यह साबित करता है कि देश में संघियों का प्रभाव कतई नहीं है. संघी केवल देश की सत्ता और उसके संवैधानिक संस्थानों का इस्तेमाल कर ही अपनी मौजूदगी साबित कर पाता है. इसके साथ ही संघियों का फटा ढोल पीटने वाला दल्ला मीडिया जो दुनिया भर में गोदी मीडिया नाम से कुख्यात हो चुका है, तक ही सीमित है. धरातल पर उसकी उपस्थिति आज भी बेहद कम है.

बहरहाल, लाल सिंह चड्डा देखने लायक शानदार फ़िल्म है, जिसने बायकॉट करने वाले संघियों के मुंह पर करारा तमाचा मारा है. यह फ़िल्म रिलीज होने से पहले ही 550 करोड़ की कमाई कर ली है, जो संघियों के झूठ-सांच पर बनी कश्मीर फाईल से बहुत आगे है. इस फ़िल्म की प्रोडक्शन कास्ट 180 करोड़ रुपये है. लक्ष्मी प्रताप सिंह अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखते हैं कि लाल सिंह चड्ढा को कोई हिट होने से नहीं रोक पायेगा. अंत में विदेश के कलेक्शन, TV OTT राइट्स तक अच्छा पैसा कमा लेगी.

लक्ष्मी प्रताप सिंह आगे लिखते हैं कि ये फिल्म एक मासूम आदमी की कहानी है. आज के जमाने में मासूम आदमी को बेवकूफ समझा जाता है. ये फिल्म बताती है कि मासूम होना गुनाह नहीं है. मासूम होकर भी दुनियां जीती जा सकती है. सिर्फ घड़े शयाने बनना ही सफलता की गारंटी नहीं होता. फिल्में किसी के बायकाट करने से फ्लॉप या सपोर्ट करने से हिट नहीं होती. फिल्में कहानी और अभिनय से चलती हैं.

सपोर्ट के बाद भी नरेंद्र मोदी, पृथ्वीराज और धाकड़ जैसी फिल्में सुपर फ्लॉप हो गयी थी और बायकाट के बाद भी पद्मावत, कश्मीर फाइल्स चल गयी. लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड की चर्चित फिल्म फारेस्ट गम्प का रीमेक है. टॉम हेंक्स मेरा फेवरिट एक्टर है. और मुझे लगता था आमिर बॉलीवुड का टॉम हेंक्स है. लेकिन लाल सिंह चड्डा के बाद लगा कि आमिर की एक्टिंग टॉम से 21 है 19 तो कतई नहीं.

वहीं, हरिओम राजोरिया लिखते हैं कि लाल सिंह चड्डा आज देख ली. ये फ़िल्म झूठ का पुलिंदा नहीं है. नफरत के लिए तिल धरने की जगह नहीं है इस फ़िल्म में. इस फ़िल्म को देखते हुए ‘जागते रहो’ के राज कपूर का भोला चेहरा तथा चार्ली चैप्लिन की बहुत याद आई.. फ़िल्म के स्त्री पात्र दिखावटी और भर्ती के नहीं हैं, उनका स्पेस भी है औऱ ज़रूरी भूमिका भी. फिल्मकार ने कहानी के आलेख पर ही नहीं पात्रों पर, फ़िल्म के वातावरण और अपनी बात कहने की पद्धति पर बहुत काम किया है.

फ़िल्म दास्तानगोई (किस्सा कहने की कला) से शुरू होती है औऱ ट्रेन में बैठा लाल सिंह डिब्बे में बैठे मुसाफिरों को अपनी कहानी सुनाने लगता है. इस काम का गहन अभ्यास किया होगा आमिर ने. थिएटर से जुड़े कुछ लोग लखनऊ के हिमांशु वाजपेयी को जानते होंगे जो ‘दास्तानगोई’ विधा के विशेषज्ञ हैं, वे जब किस्सा सुनाते हैं तो सुनने वाले रोने लगते हैं.

इस फ़िल्म में एक ऐसे बच्चे की कहानी है जो पैरों से कमजोर, भोला, धीमे सोचने वाला और भावुक है, जिसके संसार में एक मां भर है, जो उसे किसी भी कीमत पर पढ़ाना चाहती है. उसे बड़ी मुश्किल से स्कूल में प्रवेश तो मिलता है पर उपेक्षा और अपमान के बीच एक दोस्त भी मिलती है ‘रूपा’, जिसका शराबी बाप दस रुपये के लिए पीट-पीटकर अपनी पत्नी की हत्या कर जेल चला जाता है.

फ़िल्म की कहानी बीच-बीच में किस्से से कविता में तब्दील हो जाती है. भोलापन, सरलता और असमर्थता किस तरह ताक़त बन सकते हैं इसे दिखाने में कल्पनाशीलता का सार्थक उपयोग किया है निर्देशक ने. जो चल नहीं सकता, वो दौड़ने लगता है, वह सैनिक बनता है फिर दर्जी और अंत में मां के गुजरने के बाद किसान. इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से श्रम के महत्व को भी प्रतिपादित करती है ये फ़िल्म.

पूरी फिल्म का संदेश प्रेम है. इस फ़िल्म में 1984 के सिख नरसंहार, आडवाणी जी की रथ यात्रा, कारगिल युद्ध और अन्ना आंदोलन आदि घटनाक्रम चलते हुए दिखाये भर गए हैं. इस दिखाने में फिल्मकार अपनी तरफ़ से कुछ भी नहीं कहता. दर्शकों को इन मसलों पर सोचने का काम दे देता है. लाल सिंह की मां पूरी फिल्म में दंगे को दंगा न कहकर मलेरिया कहती है – ‘बेटा ! दिल्ली में मलेरिया फैल रहा है घर पर ही रहना.’

84 दंगों के समय बचती हुई मां बच्चे के केस काटती है. इस दारुण व्यथा का दृश्य बहुत मार्मिक बन पड़ा है. फ़िल्म का ट्रीटमेंट बहुत अच्छा है. फ़िल्म में यातनाओं और घटनाओं के बीच चुप्पी अभिव्यक्ति का नया हथियार बनती है. फ़िल्म में अनेक उपकथाएं हैं जो कहानी के फलक को व्यापक बनाती है. फ़िल्म के अंत में लाल सिंह अपने बच्चे को उसी तरह स्कूल छोड़ने जाता है, जिस तरह वह खुद गया था. बच्चे का नाम ‘अमन’ है और पूरी फिल्म अमन का संदेश देती है.

यह तथ्य है कि अमीर खान की फिल्म लाल सिंह चढ्ढा, अमेरिकी फिल्म ‘फारेस्ट गम्प’ का रीमेक है, जिसने अमेरिका की हैवानियत, युद्ध विरोध (वियतनाम युद्ध) और वहां की नस्लभेद का मुद्दा उठाया था. उसने अपनी फिल्म में अमेरिकी लोकतंत्र को बेनकाब किया और वहां के फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ा दी, यहां तक कि अमेरिकी नागरिकों की जाहिली पर गंभीर सवाल उठाए हैं. परन्तु, भारत जैसे अंधविश्वासी और जाहिलों के देश में क्या अमीर खान ने इन सवालों को उठाया है ?

मनमीत लिखते हैं – अमीर खान की लाल सिंह चड्डा देखें या न देखें, इस पर राष्ट्रीय स्तर की बहस छिड़ी हुई है. एक विकसित देश में ऐसी बहस आम है, जहां हर ओर खुशहाली हो, हर तरह का विकास हो चुका हो, वहां ऐसे विमर्श होते ही रहते है. अभी कुछ समय पहले करीना कपूर के दूसरे बेटे के नामकरण और औरंगज़ेब की भयावहता से ध्यान हटा ही था कि लाल सिंह चड्डा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस छिड़ गई.

खैर, जहां तक मेरी बात है, मैं इस फ़िल्म को देखकर समय खराब नहीं करूंगा, इसलिए नहीं कि अमीर खान कोई बेकार के कलाकार हैं या इसलिए कि उनकी दूसरी पत्नी का मायका देहरादून है बल्कि इसलिए कि मैं ‘फारेस्ट गम्प’ मूवी देख चुका हूं, जिसका रीमेक लाल सिंह चड्डा है. मैं जब बीएमडब्ल्यू कार में बैठ कर सफर का आनंद ले चुका हूं तो मारुति अल्टो में क्यों बैठूंगा !

दूसरी बात अकादमिक अवार्ड से नवाजी जा चुकी फारेस्ट गम्प के निर्देशक रॉबर्ट जेमेकिंस ने बड़े साहस के साथ इस फ़िल्म में अमेरिका की हैवानियत, युद्ध विरोध (वियतनाम युद्ध) और वहां की नस्लभेद का मुद्दा उठाया था. उसने अपनी फिल्म में अमेरिकी लोकतंत्र को बेनकाब किया और वहां के फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ा दी, यहां तक कि अमेरिकी नागरिकों की जाहिली पर गंभीर सवाल उठाए.

क्या अमीर खान फारेस्ट गम्प का रिमेक लाल सिंह चड्डा बनाते वक्त भारतीय परिपेक्ष्य में ये मुद्दा ईमानदारी और साहस से उठा पाए होंगे ? अगर उठाएं हैं तो उन्हें बधाई. मैं फिर भी अल्टो कार में क्यों बैठूं, जब मेरे पास बीएमडब्ल्यू का विकल्प हो !

बहरहाल, जिन लोग ने अकादमिक अवार्ड से नवाजी जा चुकी निर्देशक रॉबर्ट जेमेकिंस के फिल्म फारेस्ट गम्प को नहीं देखा है, वे लाल सिंह चढ्ढा के बहाने इसे देख समझ सकेंगे. लेकिन सवाल फिर वहीं पर है फारेस्ट गम्प ने जिन सवालों को उठाया है, अमीर खान की इस फिल्म ने अगर उसे उठाया या छुआ भर भी हो, तब भी यह फिल्म कामयाब मानी जायेगी. लेकिन संघियों ने जिस तरह अमीर के लाल सिंह चढ्ढा के खिलाफ उतर गया है और इस फिल्म ने अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद किया है, वह अनेक सवालों का जवाब है.

हरिबोल ने लाल सिंह चड्डा की समीक्षा लिखी है. उनके अनुसार अन्ना का लोकपाल आंदोलन है लाल सिंह चड्डा. वे लिखते हैं कि  जब किसी भक्त को लाल सिंह का बहिष्कार करते देखता हूं तो सोचता हूं ‘या खुदा, इसे माफ करना. इसे पता ही नहीं कि यह किस चीज का बहिष्कार कर रहा है.’

मोदीभक्तों की मूर्खता को संतुष्ट करने के लिए बनाई गई है लाल सिंह चड्डा. लाल सिंह चड्डा में दिखाया गया इतिहास हद से ज्यादा पूर्वाग्रही है.अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन है लाल सिंह चड्डा. ये फ़िल्म कांग्रेस और मुसलमानों के खिलाफ है. इस फ़िल्म में ऑपरेशन ब्लू स्टार को बड़ी वीभत्सता से दिखाया है. नायक और उसका परिवार ऑपरेशन ब्लू स्टार से दु:खी है पर ऑपरेशन ब्लू स्टार की नौबत क्यों आई, इस पर फ़िल्म खामोश है. ये फ़िल्म इंदिरा गांधी को खलनायिका दिखाना चाहती है.

इस फ़िल्म में सिख नरसंहार को बड़े मार्मिक तरीके से दिखाया गया है. बुजुर्ग ऑटो वाले को जिंदा जला दिया गया, छोटे से बच्चे को जिंदा बचाने के लिए उसकी मां कांच के टुकड़े से उसके केश कतर देती है, पर गुजरात दंगों पर खामोश है लाल सिंह चड्डा. बाबू बजरंगी और माया कोडनानी की मन ही मन पूजा करती है लाल सिंह चड्डा. ये फ़िल्म कारगिल युद्ध तो बताती है पर अटल और जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में कफनचोरी नहीं बताती. ये फ़िल्म इस्लामिक आतंकवाद को धर्म से जोड़ती है. आतंकवाद के जियोपोलिटिकल कारण नहीं बताती.

फ़िल्म में एक मौलाना कहता है कि ‘जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी, जिनका रंग इतना गोरा होगा कि उनका पिंडलियों का गूदा भी दिखेगा.’ अब साला पिंडलियों का गूदा कौन देखता है बे ? आदमी अप्सराओं से यौन संबंध बनाएगा या फिर उनका टंगड़ी कबाब खायेगा ? इस फ़िल्म ने इस्लाम का पूरा व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का चित्रण किया है. बस हलाला के दृश्य बताने की कसर रह गई.

कट्टर हिंदुत्व पर यह फ़िल्म खामोश है. मोब लिंचिंग नहीं है इसमें. गौ हत्या के शक में मानव हत्या जायज है या नहीं, ये प्रश्न नहीं उठाया फ़िल्म ने. यह फ़िल्म, इतिहास की टाइम लाइन में से मुसलमान विरोधी और कांग्रेस विरोधी मसाला उठाती है और बाकि सब कुछ किसी कूड़ेदान में फेंक देती है. ऐसा पहले भी होते आया है.

कांग्रेस सरकारों के समय क्रांतिवीर, तिरंगा, रंग दे बसंती जैसी फिल्में बनती हैं जिनमे मंत्री और नेताओं को आतंकवादियों से मिला हुआ बताया जाता था. आज किसी की औकात नहीं जो पुलवामा में आये RDX के रहस्य के ऊपर फ़िल्म बनाये या किसी केंद्रीय मंत्री को आतंकवादियों से मिला हुआ बता दे.

संघियों ने जिस तरह लाल सिंह चढ्ढा का विरोध किया है उस पर तंज करते हुए शादाब सलीम लिखते हैं – लाल सिंह चड्डा बुरी फ़िल्म है, एक दम बकवास है, बगैर सर पैर की फ़िल्म है इसलिए उसका पिट जाना तय है. अब फ़िल्म पिट जाने पर महीने भर में आमिर गत्ते की फैक्ट्री में मजदूरी करेंगे और इस ही दो महीने के भीतर वह मुंबई कलेक्टर को बीपीएल कूपन का भी आवेदन देंगे, जहां उन्हें माहवार प्रतिव्यक्ति बीस किलो अनाज मुफ्त मिलेगा.

उनके बच्चे सीधे सरकारी स्कूल कॉलेज में जाएंगे जहां उन्हें पिछड़े वर्ग की सालाना स्कॉलरशिप मिलेगी. उन्हें अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ से रहने के लिए होस्टल में नि:शुल्क कमरे भी मिल सकते हैं. पत्नी से तो उनका संबंध विच्छेद हो चुका है इसलिए उसकी कोई ज़िम्मेदारी आमिर पर नहीं है हालांकि उनकी पत्नी के भी बंगलों पर घरेलू कार्य करने जैसी खबरे चर्चा में है.

संभव हुआ तो तोड़-जोड़कर उन पर एक दो मुकदमे भी बन सकते हैं जैसे सेना और सिख अपमान इत्यादि. फिर उन्हें मुकदमे में भी भारी खर्च करना पड़ेगा. इधर तो खाने को नहीं और उधर मुकदमों पर खर्च, वकीलों की फीस. हम अपने मक़सद में कामयाब हुए, हम उसे सड़क पर देखना चाहते थे और हमने वह कर दिखाया. जय हो !

बहरहाल, लाल सिंह चढ्ढा ने संघियों, उसके भक्त और गोदी मीडिया को प्रभावहीन साबित कर दिया है और इसने यह भी बता दिया है कि संघियों का प्रभाव केवल सुप्रीम कोर्ट के दल्ला जज, ईडी आदि जैसे लगातार बदनाम हो रहे गुंडों के बदौलत ही है, जो आये दिन जनता के बीच अपनी दलाली के कारण बदनाम होता जा रहा है. कि जनता के बीच इसका कोई प्रभाव नहीं है. बस इस संघी गुंडों के खिलाफ एकबार डट कर खड़े हो जाने की जरूरत है, जैसा कि बिहार की राजनीति में संघियों और उसके गुंडों के आतंक के खिलाफ नीतीश कुमार डटकर खड़े हो गए हैं.

‘प्रतिभा एक डायरी’ से साभार

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