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तुम इतना जो बहका रहे हो ; क्या जुर्म है जिसको छुपा रहे हो

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बादल सरोज

एक ही समय में कई-कई जुबानों से बोलने में सिद्धहस्त आरएसएस की तरफ से अब एक और शिगूफा उछाला गया है।  इसे अचानक देश की गरीबी और बढ़ती असमानता और बेरोजगारी पर फ़िक्र होने लगी है। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने, हालांकि जानबूझकर अपुष्ट और अधूरे आंकड़ों का ही उल्लेख किया है, लेकिन तब भी माना है कि देश की आबादी का करीब पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। इनके अलावा चौथाई हिस्सा ऐसा है, जिसकी आमदनी बहुत कम है।  उनके मुताबिक़ कोई चार करोड़ बेरोजगार हैं और यह भी कि देश की आबादी के आधे हिस्से के पास कुल 13 प्रतिशत संपत्ति ही है। वगैरा-वगैरा। 

कहने की जरूरत नहीं कि यह एक साथ, आज के समय के सबसे बड़े संकट पर बोलने और आंकड़ों को कम करके उसकी मारकता को छुपाने की सियानपट्टी है। यह खुद होसबोले के इसी सांस में किये इस दावे से साफ़ हो जाता है कि “पिछले कुछ सालों में गरीबी, असमानता और बेरोजगारी दूर करने के कई कदम उठाये गए हैं।” जबकि सभी जानते हैं कि स्थिति इससे ठीक उलट है।  

पिछले कुछ सालों में, खासकर 2014 में बकौल अमित शाह जब कोई 6-7 सौ साल बाद पहली बार कोई हिन्दू देश का शासक बना है, तब से इस देश में गरीबी और असमानता, बेरोजगारी और भुखमरी जिस रफ़्तार से बढ़ी और एक के बाद एक नीतिगत बदलावों और सरकारी फैसलों से बढ़ाई गयी है, उसकी इससे पहले के ज्ञात इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के भीषण संकट के समय में भी भारतवासी जितना आहार लिया करते थे, उसमें भी कमी आयी है – लगातार कमी आ रही है। इस भीषण दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने के लिए उसे दर्ज करना भी है और कम करके दिखाना भी है। ‘साफ छुपना भी नहीं, सामने आना भी नहीं’ का करतब इसे ही कहते हैं। 

बोलने को तो बहुत बोले होसबोले, मगर इस संत्रास की असली वजहों पर बिलकुल भी नहीं बोले। वे गरीबी और असमानता बढ़ने की बात कहते-कहते मोदी सरकार द्वारा जिसे अपनी उपलब्धि बताया जाता है, वह तथ्य बताने से से बचते रहे कि भारत में डॉलर अरबपति 2014 में 109 थे, जो द्रुत गति से छलांग मारते हुए 2022 में 221 हो गए – जबकि साल का पूरा होना अभी बाकी है। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि उनके मोदी के सबसे चहेते गौतम अडानी के दिन ऐसे फिरे कि विश्व के सबसे धनाढ्य व्यक्ति होने को आमादा है, कि वे अकेले 30 अगस्त के एक दिन में 42 हजार करोड़ रुपया (मतलब प्रति घंटा 1750 करोड़ रूपये) कमाकर दुनिया में कमाई के असाधारण और अविश्वसनीय से लगने वाले ऐसे रिकॉर्ड कायम कर रहे हैं, जिन्हे देख-सुनकर सटोरियों के विश्वगुरु जॉर्ज सोरोस और पूंजीवादी वैश्वीकरण के शंकराचार्य जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ की भी आँखें फटी रह जाएँ। उन्होंने नहीं बताया कि जब कोरोना की महामारी सर्वोच्च शिखर पर थी, सारे बाजार, कारखाने, काम-धंधे बंद थे, जब 4-5 करोड़ भारतीय हजारों किलोमीटर की पदयात्राएं करते हुए मरते-खपते अपने गाँव लौट रहे थे, ठीक तब मुकेश अम्बानी 90 करोड़ और गौतम अडानी 120 करोड़ रुपये प्रति घंटा कमाई का विश्वरिकॉर्ड कायम कर रहे थे।  यह कमाई कितनी है, इसका अनुमान तक लगाना मुश्किल है। एक छोटे से तथ्य से मोदी की छत्रछाया में चल रही लूट से होने वाले आदिम संचय की विकरालता समझी जा सकती है और वह यह है कि “अकेले मुकेश अम्बानी की एक दिन की कमाई से पूरे 3 महीने तक देश के 80 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है।”  

होसबोले किसानो और देहाती आबादी के बारे में भी नहीं बोले।  हालांकि उन्होंने भी अखबारों में पढ़ा होगा कि देश के लहसुन उत्पादक किसानो को उनकी उपज की कीमत 40 पैसा प्रति किलो मिल रही है, कि वे अपनी ट्रॉलियों में भरा लहसुन नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं, कि बुआई के समय बीज के लिए और उसके बाद खाद के लिए रात के दो बजे से महिलायें तक लाइन लगाकर बैठ रही हैं और शाम तक इन्तजार करने के बाद खाली हाथ लौट रही हैं या फिर दूनी कीमत पर कालाबाजार में खरीद रही हैं, कि 2014 में जब मोदी सत्ता में आये थे, तब करीब ढाई हजार किसान हर रोज खेती-किसानी छोड़ रहे थे, अब इनकी तादाद तकरीबन दो गुनी हो गयी है। वे बोले मगर उतना ही बोले, जिससे यह बताया जा सके कि वे बोलते तो हैं। 

आरएसएस के सरसंघचालक के बाद दूसरे सबसे बड़े पदाधिकारी उनके सरकार्यवाह जब यह सब बतिया रहे थे, तब कैफ़ी आज़मी साहब की लिखी और जगजीत सिंह की गाई नज़्म को थोड़ा बदल कर कहें तो  “तुम इतना जो बहका रहे हो / क्या जुर्म है जिसको छुपा रहे हो।” वे अपनी सरकार के इन्ही जघन्य अपराधों को छुपा रहे थे।  

मजेदार बात यह है कि वे ये सारी बातें स्वदेशी जागरण मंच के मंच से बोल रहे थे। वही स्वदेशी जागरण मंच, जिसे आरएसएस ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ भारत के उद्योगों की हिफाजत के नाम पर 1991 में खड़ा किया था। नब्बै और उसके बाद के दशक में यह स्वदेशी जागरण मंच बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की जगह, जिन-जिन भारतीय कंपनियों के उत्पादों की सूची लेकर लोगों के बीच जाया करता था, वे लगभग सबकी सब, सीधे या साझेदारी की आड़ लेकर किसी न किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के स्वामित्व में जा चुकी हैं। मगर ढीठपन देखिये कि भाई लोग आज भी स्वदेशी की बात करते नहीं थकते। ढिठाई तो यह भी है कि स्वदेशी की बात वे कर रहे हैं, जो जड़ से लेकर तने, शाखा और पत्तियों तक विदेशी हैं।  जिस संगठन का ढांचा इसके पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने अपने मार्गदर्शक डॉ मुंजे की 19 मार्च 1931 को इटली के तानाशाह बेनितो मुसोलिनी से हुयी मुलाक़ात में लिए गुरुमंत्र के आधार पर खड़ा किया है, जो अपना नाम और गणवेश मुसोलिनी और अपनी कार्यशैली और बर्बरता और ध्वज प्रणाम हिटलर से लेकर आया है, और लिखा-पढ़ी में इसे कबूल भी किया है ; उसके मुंह से स्वदेशी का जाप और गरीबी, असमानता और बेरोजगारी पर किया जा रहा विलाप झांसेबाज़ी की राजनीति के सिवा और कुछ नहीं है।  इस तरह के दोहरे आचरण से इस विचार समूह का पूरा रिकॉर्ड भरा हुआ है ; हत्या के ठीक पहले झुककर प्रणाम करने की अदा इनकी आजमाई हुयी विधा है। 

इस संदर्भ में, जिन्हे आरएसएस अपना गुरु मानता है, उन गोलवलकर का एक प्रसंग इस झांसेबाज़ी को और रोचक तरीके से सामने लाता है। 1966 में संसद पर साधुओं के धावे के बाद तबकी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 29 जून 1967 को गौकशी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व चीफ जस्टिस ए के सरकार की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसमें बाकियों के अलावा खुद गोलवलकर और पुरी के शंकराचार्य भी थे। छह महीने में रिपोर्ट देने के निर्देश के साथ गठित यह समिति 12 वर्ष तक बनी रही। अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी जिस कैबिनेट में थे, उस मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में 1979 में इसे भंग कर दिया गया। इस कमेटी ने तो कोई रिपोर्ट वगैरा दी नहीं या दी भी होगी, तो वह सार्वजनिक नहीं हुयी, लेकिन इस कमेटी के दो सदस्यों डॉ अशोक मित्र और डॉ वी कुरियन (अमूल वाले) ने अपनी किताबों में और इस कमेटी के बुलावे पर वैज्ञानिक पक्ष रखने गयी देश की सुप्रसिद्ध जीव विज्ञानी पुष्पा एम भार्गव ने अपने साक्षात्कारों पर काफी दिलचस्प जानकारी दी है। उन्होंने लिखा है कि जब सारे वैज्ञानिक प्रमाणों, वैदिक उदाहरणों और धार्मिक संदर्भो के साथ इस समिति में बात रखी गयी, तब डॉ कुरियन ने गोलवलकर से पूछा कि अब बताइये आपका क्या तर्क है, आपको क्या कहना है। गोलवलकर ने पूरी बेबाकी के साथ कहा कि हमे पता है कि वास्तविकता क्या है मगर “गाय हमारे लिए राजनीतिक मुद्दा है”, इसलिए इन सब तर्कों और उदाहरणों से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कमेटी में निरुत्तर होने और उसे एक राजनीतिक मुद्दा बताने वाले गोलवलकर और उनका आरएसएस गाय की पूंछ पकड़ कर सत्ता की वैतरणी पार करने में जुटा रहा। गरीबी और असमानता पर संघ को हुआ इल्हाम भी इसी तरह की राजनीति है। गरीबों के प्रति उमड़ी उनकी चिंता और प्रेम ठीक वैसा ही प्रेम है, जैसा कभी गाँधी के प्रति, तो कभी सुभाष चंद्र बोस, तो कभी तिरंगे, यहां तक कि बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर – – इस तरह जो इनके एकदम विलोम हैं, जिनके ये धुर विरोधी रहे हैं, उनके प्रति उमड़ता है। 

आरएसएस के प्रमुख नेता का यह बयान नीचे समाज में मची खलबली और उभरते विक्षोभ की तेज से तेजतर होती गर्माहट और उसको जुमलों के तिनकों से टालने के शेखचिल्लियाना ख्वाब हैं। पिछले महीने देश भर में घूमी छात्र संगठन एसएफआई की यात्रा और नौजवान सभा की अगुआई में उभरते आंदोलनों द्वारा युवाओं के बीच लाये उभार, 5 सितम्बर को देश के तीन प्रमुख वर्गीय संगठनो द्वारा की गयी संघर्ष की हुंकार और 3 अक्टूबर को संयुक्त किसान मोर्चे की अगुआई में देश भर में निकाली गयी सरकार की अर्थियों के जरिये दी गयी ललकार को इस तरह की दिखावटी मान-मनुहार से टरकाने का मुंगेरीलाल का सपना है।  

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)*

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