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अकाश~गामिनी विद्या : व्यतीत और वर्तमान

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~डॉ. विकास मानव

     _योगतंत्र की 64 विद्याओं में से एक विद्या है–‘अकाशगामिनी विद्या’। यह अति प्राचीन विज्ञान है जिसे जानने वाला व्यक्ति आकाश मार्ग से सर्वत्र विचरण कर सकता है। नदी, पहाड़, जंगल, समुद्र कोई भी उसके मार्ग में बाधक नहीं बन सकते। इस रहस्यमयी विद्या के अनेक उदाहरण प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलते हैं।_

          महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव जी ने इसी विद्या की सिद्धि द्वारा सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की निर्विघ्न यात्रा की थी। इसी विद्या का आश्रय लेकर महर्षि नारद भी तीनों लोकों में विचरण करते थे। रामभक्त हनुमान और नल-नील को भी इस विद्या की सिद्धि थी। हनुमान ने इसी विद्या के द्वारा समुद्र का लंघन किया था और आकाश मार्ग से वे मृतसंजीवनी भी लाये थे।

         रावण को भी आकाशगामिनी विद्या का आचार्य कहना उपयुक्त होगा। उसने इसी विद्या की सहायता से एक ऐसा विमान बनाया था जो उसके इशारे पर तीव्र गति से आकाश में उड़ता था। रावण स्वयम् भी इस विद्या की सहायता से आकाश मार्ग से यात्रा करता था। ‘हेमवती विद्या’ द्वारा उसने विपुल मात्रा में स्वर्ण निर्माण कर समूची लंका को ही स्वर्णमयी बना दिया था।

     वास्तव में जितनी भी तान्त्रिक विद्याएँ हैं वे सब यक्षों और राक्षसों की ही देन हैं। आर्यों के साथ ही हमारे देश में यक्ष और रक्ष संस्कृति के लोग रहते थे। रक्ष संस्कृति के लोग बाद में राक्षस संज्ञक हो गए। यक्ष और राक्षस दोनों प्रकृति के भयानक रूप के उपासक थे। मगर दोनों की उपासना पद्धति में काफी भिन्नता थी।

       यक्ष जाति के लोग प्रकृति शक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहते थे, जबकि राक्षस जाति के लोग प्रकृति शक्ति के विभिन्न रूपों पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहा करते थे। कहने की आवश्यकता नहीं, दोनों की इसी प्रयत्नशीलता के फलस्वरूप नाना प्रकार की तंत्र विद्याओं ने जन्म लिया और उनके विज्ञानों का भी अभिर्भाव हुआ समय-समय पर।

     तान्त्रिक विद्याओं में एक ‘पारदविद्या’ भी है। पारद को बांधना असम्भव है। उसको बांधने की क्रिया को ‘रसबन्ध क्रिया’ कहते हैं। रावण ‘पारदविद्या’ और उसकी ‘रसबन्ध क्रिया’ से भी भलीभाँति परिचित था। ‘रसबन्ध क्रिया’ के आधार पर उसने पारद की एक ऐसी गुटिका तैयार की और उसे नाभि में स्थापित कर लिया जिसके प्रभाव से वह जरा- मरण के भय से मुक्त हो गया था।

        ऐसे सिद्ध पारद को ‘अमृत’ कहा गया है। नाभि जीवनी-शक्ति का एकमात्र केंद्र है। इसीलिए गुटिका को रावण ने अपनी नाभि में स्थापित कर रखा था। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि रावण का वध तभी सम्भव हो सका जब राम ने अपने इकत्तीसवें (31वें) वाण से उसी पारद गुटिका को नष्ट कर डाला।

      दूसरी शताब्दी में भी अकाशगामिनी विद्या के प्रमाण मिलते हैं। उत्तर भारत के आर्यावर्त प्रान्त में नागवंश के अनेक प्रतापी राजा हुए। इस अवधि में जिन्होंने इस रहस्यमयी विद्या को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, उनमें अहिच्छत्र (वर्तमान रुहेलखंड) के राजा वासुकि के असाधारण प्रतापशाली पुत्र ‘नागार्जुन’ का नाम विख्यात है।

       नागार्जुन के गुरु थे–पदलिप्त। पदलिप्त ने नागार्जुन को रसायनशास्त्र में पारंगत ही नहीं किया, बल्कि उन्हें अकाशगामिनी विद्या भी बतलाई। वे स्वयम् आकाश मार्ग से तीर्थयात्रा करते थे। उन्होंने नागार्जुन से प्रसन्न होकर उन्हें आकाशगमन विद्या के सारे रहस्यों से परिचित करा दिया था।

         भारतीय रसायन के इतिहास में नागार्जुन एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण नाम् है। पारद विद्या के दो महत्पूर्ण अँग हैं–तारबीज और हेमबीज। प्रकारांतर से इन्हीं दोनों को ‘तारक विद्या’ और ‘हेमवती विद्या’ कहते हैं।

     जैसे हेमवती विद्या स्वर्ण निर्माण से संबंधित है, वैसे ही तारक विद्या है आकाश गमन से संबंधित। दोनों में ही पारद का प्रयोग है। पारद का पर्याय है ‘रस’। आकाश गमन योग द्वारा तो सम्भव है ही, पारद सिद्धि द्वारा भी सम्भव है।

       नागार्जुन पारद विद्या के ज्ञाता तो थे ही, साथ ही तारक विद्या और हेमवती विद्या के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। तिब्बत्त में रस-रसायन से सम्बंधित अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है–‘बौद्धतंत्र’। इसके लेखक नागार्जुन ही हैं। महायान सम्प्रदाय के इस तंत्र का नाम ‘रसरत्नाकर’ है।

      जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, ‘रस’ यानी ‘पारद’ द्वारा भी आकाश गमन सम्भव है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में ‘व्याडी’ नामक एक रसायनशास्त्री ने अत्यधिक परिश्रम से स्वर्ण बनाने और आकाश में उड़ने की कला प्राप्त की थी। इस विषय में व्याडी ने एक पुस्तक भी लिखी थी जो इस समय अनुपलब्ध है।

      व्याडी उज्जैन का निवासी था। वह रसायन विद्या की खोज में इतना डूब गया कि अपनी सम्पत्ति तो सम्पत्ति, अपना जीवन तक भी नष्ट कर डाला था। अपना सर्वस्व गँवा देने के बाद उसे इस विद्या से नफरत हो गयी। एक दिन शोकमग्न होकर नदी के तट पर बैठा था। उसके हाथ में वह ‘भेषज संस्कार’ नामक ग्रंथ था जिसमें वह अपने शोध के लिए व्यवस्था पत्र लिखा करता था।

        निराशा में डूबा हुआ व्याडी उसी ग्रन्थ का एक एक पृष्ठ फाड़कर जल में फेंक रहा था। व्याडी से कुछ ही दूरी पर नदी के किनारे धारा की दिशा में एक वेश्या भी बैठी थी। उसने पृष्ठों को बहते हुए पानी से बाहर निकाल लिया। व्याडी की दृष्टि उस पर तब पड़ी जब वह पुस्तक के सारे पृष्ठ फाड़कर फेंक चुका। वह वेश्या चलकर उसके पास आई और पुस्तक को फाड़ने का कारण पूछा।

      व्याडी ने सारी बात साफ-साफ बतला दी और अन्त में कहा–घोर असफलता के कारण मुझे इस विद्या से घृणा हो गयी है।

      यह सुनकर वह वेश्या बोली–मत छोड़ो इस महत्वपूर्ण कार्य को। ऋषियों का ज्ञान कभी मिथ्या नहीं हो सकता। आपकी कामना सिद्धि में जो बाधा है, वह सम्भवतया किसी सूत्र को ठीक से न समझ पाने के कारण है। कोशिश करने पर वह बाधा स्वयम् ही दूर हो जाएगी। मेरे पास अपरिमित धन है। आप वह धन ले लें और पुनः प्रयास करें। सफलता अवश्य मिलेगी। 

        प्रोत्साहन पाकर व्याडी के मन में आशा का पुनः संचार हुआ। वह उस वेश्या से धन लेकर पुनः रसायन विद्या के रहस्यों की खोज में डूब गया।

 वास्तव में व्याडी से एक औषधि के व्यवस्था पत्र के एक शब्द को समझने में भूल हो रही थी। उस शब्द का अर्थ यह था कि इसके लिए तेल और नर-रक्त दोनों की आवश्यकता है। वह शब्द था–‘रक्तामल’।

         इसका अर्थ उसने रक्त अर्थात् लाल आमलक यानि  ‘लाल आँवला’ समझा। इस भूल का क्या परिणाम हुआ–जानते हैं ? जब व्याडी ने औषधि का प्रयोग किया तो उसका कुछ भी असर नहीं हुआ। बेचैन होकर तब विभिन्न प्रकार से वह औषधियां पकाने लगा।

       यह क्रिया करते समय आग की लपट अचानक ऊपर उठी और उसका सिर जल गया, फलस्वरूप उसने अपनी खोपड़ी में बहुत सारा तेल डाल लिया और फिर उसे मलने लगा। तभी किसी कार्य से वह वहां से उठकर बाहर जाने लगा।

       उसके सिर के ऊपर छत से एक एक कील बाहर को निकली हुई थी। जैसे ही वह आगे बढ़ा, उसका सिर उसमें लग गया और रक्त बहने लगा। तीव्र पीड़ा की वजह से उसने अपना सिर नीचे की ओर कर लिया। परिणाम यह हुआ कि तेल के साथ मिली उसकी रक्त की कुछ बूंदें खोपड़ी के ऊपरी भाग् से डेगची में गिर पड़ीं।

       लेकिन व्याडी ने स्वयम् उन बूंदों को गिरते नहीं देखा था। फिर जब डेगची में रसायन पक गया तो उसने और उसकी पत्नी ने परीक्षा करने के उद्देश्य से अपने शरीरों पर मल लिया। इस क्रिया की बड़ी आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया हुई।

   जानते हैं–क्या हुआ ?

वे दोनों हवा में उड़ने लगे।

    इसके बाद अकाशगामिनी विद्या के विषय में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।

इसका कारण यह था कि इस विषय से संबंधित साहित्य नष्ट हो गया या कर दिया गया। हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला पार कर बर्बर असभ्य आक्रांता यहां आए। उन्होंने मन्दिरों, देवालयों, विश्वविद्यालयों को तोड़ा, लूटा और दुर्लभ से दुर्लभ पुस्तकों और प्राचीन ग्रंथों को जला कर नष्ट कर डाला।

        सबसे ज्यादा नुकसान नालंदा विश्वविद्यालय को हुआ। पूर्व-मध्यकाल में केवल एक यही विश्विद्यालय बचा था  जहाँ अनेक प्रकार की विद्याएँ जीवित थीं।

       आचार्य गौड़पाद, अनंगवज्र, गोरखनाथ, चर्पटीनाथ, नागसेन आदि सिद्ध उस युग के असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् थे।

     बाणभट्ट के अनुसार सिद्ध तपस्वियों का साधना स्थल ‘श्रीपर्वत’ था जो वर्तमान नागार्जुन कोंडा (आंध्र प्रदेश) के निकट नरहल्ल पर्वत है।

        _आज की हिमालय की सुरम्य घाटियों, गिरि-गुहाओं और दुर्गम स्थानों में प्राचीन विद्याओं के गौरव से मंडित अनेक सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। सिद्ध पारद द्वारा उन्होंने शरीर को काल के बंधन से मुक्त कर लिया है। आकाशगामिनी विद्या द्वारा वे इच्छानुसार यहां-वहां विचरण करते रहते हैं।_

        साधारणतया उन्हें देख पाना सम्भव नहीं है। किन्तु जो अदृश्य के दर्शन की क्षमता का विकास कर लेते हैं उनको उनके दर्शन होते हैं. वे उन्हें प्रत्यक्ष आकाश मार्ग से गमन करते देखते हैं।

     _आप भी देख सकते है. समय दें तो इस क्षमता के विकास में आपका प्रभावी सहयोग किया जा सकता है. प्रतिदान में हमें आपसे कोई भी भौतिक चीज नहीं चाहिए होती है._ 👁️

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