दुनिया जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद विज्ञान और तकनीक के नए युग की ओर बढ़ रही थी, तब
भारत को ब्रिटेन से आजादी मिलने के पहले एक भारतीय में इतना साहस और इतनी दूरदृष्टि थी कि
उन्होंने देश को ‘बैलगाड़ी युग’ से सीधे ‘नाभिकीय युग’ में ले जाने का संकल्प लिया। यह और कोई
नहीं, डॉ. होमी जहांगीर भाभा थे…
मुंबई के धनाढ्य और प्रतिष्ठित पारसी परिवार में 1909 में जन्मे बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. होमी
जहांगीर भाभा ने न सिर्फ सैद्धांतिक शोधों में पूरी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विज्ञानियों का ध्यान खींचा,
बल्कि राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माण में भी अतुलनीय योगदान दिया। टाटा इंस्टीट्यूट आफ
फंडामेंटल रिसर्च (टीआइएफआर) और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
उन्होंने न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान के संस्थानों के निर्माण में भूमिका निभाई, बल्कि युवा विज्ञानियों
को उनसे जोड़ने का भी काम किया। उनकी प्रशंसा करते हुए स्वयं डॉ. सी.वी. रमन ने 1941 की
भारतीय विज्ञान कांग्रेस में कहा था, ‘भाभा संगीत के महान प्रेमी हैं, अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार हैं,
मेधावी इंजीनियर हैं और उत्कृष्ट विज्ञानी हैं… वह आधुनिक काल के लियोनार्दो द विंची हैं।’
मुंबई में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद भाभा ने कैंब्रिज के गोन्विल एंड कायस कॉलेज से मैकेनिकल
इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। हालांकि उनका जुनून इंजीनियरिंग की बजाय न्यूक्लियर फिजिक्स की
ओर था। 1934 में आखिर उन्होंने फिजिक्स में पीएचडी की। भाभा ने यूरोप का दौरा किया और
ज्यूरिख में वोल्फगांग पॉली तथा रोम में एनरिको फर्मी के साथ काम किया। जर्मनी में उन्होंने
कॉस्मिक किरणों पर अध्ययन और प्रयोग किए। होमी भाभा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक रदरफोर्ड और
नील्स बोर के साथ काम करने का अवसर मिला था।
कैम्ब्रिज में भाभा का कार्य मुख्य रूप से ब्रह्माण्ड किरणों पर केंद्रित था। भाभा और हाइटलर ने
1937 में कॉस्मिक किरणों की बौछार की व्याख्या की। 1939 में वे भारत आए हुए थे, तभी दूसरा
विश्व युद्ध छिड़ गया। युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाने के प्रस्ताव भी मिले, लेकिन
तब तक भाभा के अंदर बहुत कुछ बदल गया था। उन्हें महसूस हुआ देश निर्माण में जुट जाने का
समय आ गया है। 1940 में वे भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरू में रीडर के पद पर नियुक्त हुए। वहां
पर उन्होंने कॉस्मिक किरणों की खोज के लिए अलग विभाग की स्थापना की। जब 1941 में उन्हें
रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुना गया, तब उनकी उम्र मात्र 31 वर्ष थी। भाभा की प्रेरणा से जेआरडी
टाटा ने ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च’ की स्थापना की, जिसके भाभा महानिदेशक बने। भाभा
ने उसी समय परमाणु ऊर्जा के महत्व को पहचान लिया था। 1948 में परमाणु ऊर्जा आयोग की
स्थापना हुई और डॉ. भाभा इसके अध्यक्ष चुने गए। 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना की
गई और भाभा इसमें भारत सरकार के सचिव नियुक्त किए गए। इसके साथ ही उन्होंने एटॉमिक
एनर्जी एस्टब्लेशिमेंट, ट्राम्बे नाम की प्रयोगशाला की स्थापना की, जिसे अब लोग भाभा परमाणु
अनुसंधान केंद्र के नाम से जानते हैं। उन्होंने परमाणु रिएक्टरों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई।
साथ ही रिएक्टर में काम आने वाले अहम हेवी वाटर के क्षेत्र में भी भारत को आत्मनिर्भर बनाने का
काम किया। उनके ही प्रयासों से फर्टिलाइजर काॅरपोरेशन आॅफ इंडिया ने 1962 में पहला हेवी वाटर
प्लांट स्थापित किया। आज हम हेवी वाटर के प्रमुख उत्पादकों में शामिल हैं। 1964 में 10 करोड़
रुपये की फंडिंग मिलने के बाद भाभा ने तीन स्टेज में न्यूक्लियर पावर प्रोग्राम तैयार किया। 1965
में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो से घोषणा की कि अगर जरूरत पड़े तो हम 18 महीने के अंदर परमाणु
बम बना सकते हैं। 24 जनवरी, 1966 को विएना जाते समय मोब्लां (Mont Blanc) पर्वत श्रृंखला पर
विमान हादसे में उनकी मृत्यु से इस महान विज्ञानी के जीवन का अंत हुआ, लेकिन वह आज भी युवा
विज्ञानियों के प्रेरणास्रोत हैं।
आजादी के इस अमृत महोत्सव काल में जब भारत आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की ओर बढ़ रहा है
और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के विकास में विज्ञान को उस ऊर्जा की तरह मानते हैं, जिसमें हर
क्षेत्र के विकास को बहुत गति देने का सामर्थ्य है। तब यह समय डॉ. होमी जहांगीर भाभा जैसे महान
वैज्ञानिकों को नमन करने का भी है, जिन्होंने भविष्य के भारत की नींव रखी है। n