दिव्यांशी मिश्रा
_फासिस्टों के सरगना अयोध्या में ढाई-तीन लाख पीले-बीमार चेहरे वाले उन्मादियों की विवेकहीन बर्बर भीड़ जुटाना चाहते थे, लेकिन अभीतक पहुँचे हैं सिर्फ़ 7-8 हज़ार !_
काठ की हाँडी फिर चढ़ नहीं पा रही है I गंजेड़ी, तड़ीपार और कनफटा गुंडा बदहवास हैं ! नागपुर के अन्तःपुर में नयी रणनीति पर मंत्रणा हो रही है I पर निश्चिन्त होने की ज़रूरत नहीं है ! इनके तरकस में अभी भी कई और अमोघ अस्त्र सुरक्षित हैं.
सड़कों पर धार्मिक उन्माद की खूनी लहर मुट्ठीभर गुंडों की भीड़ द्वारा भी उकसाया जा सकता है I और फिर तृणमूल स्तर पर संघियों का पूरा तानाबाना है ही !
न्यायपालिका, आई.बी.,सी.बी.आई., ई.डी., समूची नौकरशाही और मुख्य धारा की मीडिया के बड़े हिस्से का फासिस्टीकरण किया जा चुका है Iसेना में भी शीर्ष पर फासिस्ट प्रतिबद्धता वाले लोगों को बैठाया जा रहा है !
देश पहले से ही आपातकाल से भी अधिक संगीन अँधेरे में जी रहा है ! अब ई.वी.एम. की बोतल से विजय का जिन्न निकालने की पूरी तैयारी है , इन विधानसभा चुनावों में नहीं तो अगले लोकसभा चुनावों में तो ज़रूर !
समस्या यह है कि ई.वी.एम. हथकंडे का भी सेलेक्टिव इस्तेमाल ही संभव हो पायेगा ! अगर बड़े पैमाने पर होगा तो नतीजे सामने आते ही जन-असंतोष सड़कों पर भड़क सकता है और हालात तेज़ी से एक क्रांतिकारी संकट की शक्ल अख्तियार कर सकते हैं ! फिर जितना दमन होगा, प्रतिरोध उतना ही बढ़ता जाएगा I
संघी फासिस्ट अगर चुनाव हार भी जायेंगे तो सड़कों पर अपना खूनी खेल जारी रखेंगे और फिर से सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग की चरम पतित और अवसरवादी पार्टियों के साथ गाँठ जोड़ने की कोशिश करते रहेंगे !
वे भी भलीभाँति इस तथ्य को जानते हैं कि कांग्रेस या बुर्जुआ पार्टियों का कोई भी गठबंधन अगर सत्तारूढ़ होगा तो उसके सामने भी एकमात्र विकल्प होगा नव-उदारवादी विनाशकारी नीतियों को लागू करना I इन नीतियों को एक निरंकुश बुर्जुआ सत्ता ही लागू कर सकती है, अतः दमन और भ्रष्टाचार का रास्ता तो भा.ज.पा. विरोधी बुर्जुआ पार्टियों की सत्ता को भी चुनना ही पड़ेगा I
ऐसे में भा.ज.पा. फिर धार्मिक कट्टरपंथ, अंधराष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवाद के नारे देते हुए मध्य वर्ग के एक धुर-प्रतिक्रियावादी रोमानी उभार को हवा देगी और उस लहर पर सवार होकर तथा क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों को साथ लेकर सत्ता तक पहुँचाने के कुलाबे भिड़ायेगी इ
कांग्रेस जो नरम हिंदुत्व की लाइन ले रही है, उसका भी लाभ अगली पारी में भा.ज.पा. को ही मिलेगा I
तात्पर्य यह कि फासिज्म-विरोधी मोर्चे का सवाल किसी इलेक्टोरल फ्रंट का सवाल नहीं है I फासिज्म-विरोधी संघर्ष सड़कों पर होगा I फासिस्ट सत्ता में रहें या न रहें, इनका उत्पात तबतक जारी रहेगा जबतक पूँजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी I.
सड़कों पर फासिज्म-विरोधी लड़ाई के मोर्चे में कोई भी बुर्जुआ पार्टी साथ नहीं आने वाली है I बंगाल और त्रिपुरा के बाद भी, सारी उम्मीद चुनावी हार-जीत पर टिकाये पतित सामाजिक जनवादियों (संशोधनवादियों) ने अपने आचरण से साबित कर दिया है कि इतिहास से कोई सबक न लेते हुए वे 1920 और 1930 के दशक का ही इतिहास दुहराने वाले हैं !
आज फासिज्म- विरोधी किसी जुझारू संयुक्त मोर्चे में मज़दूर वर्ग के सभी क्रांतिकारी संगठनों और मंचों के अतिरिक्त कुछ निम्न-बुर्जुआ रेडिकल संगठन ही शामिल हो सकते हैं I
सडकों के संघर्ष में पॉपुलर फ्रंट जैसी कोई रणनीति काम नहीं आयेगीI बेशक जबतक बुर्जुआ जनवाद है, तबतक बुर्जुआ चुनावों का भरपूर टैक्टिकल इस्तेमाल किया जाना चाहिए लेकिन चुनावी हार-जीत से फासिज्म को ठिकाने लगा देने की खामख़याली आत्मघाती मूर्खता होगी I
असल बात यह है कि हमें तृणमूल स्तर पर कामों को संगठित करना होगा, एक जुझारू प्रगतिशील श्रमिकवर्गीय सामाजिक आन्दोलन खडा करना होगा और मज़दूरों और रेडिकल प्रगतिशील युवाओं के फासिस्ट-विरोधी दस्ते बनाने होंगे.
किसी को लग सकता है कि मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और क्रांतिकारी संगठनों की स्थिति को देखते हुए यह एक दूर की कौड़ी है I पर हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि यदि परिस्थितियों का आकलन और उसपर आधारित कार्यदिशा सही हो तो तो व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ ही उस लाइन पर अमल के नतीजे चमत्कारी गति से सामने आते हैं, क्रांतिकारी कामों का तेज़ी से विस्तार होता है और व्यवस्था का संकट एक क्रांतिकारी संकट में तबदील हो जाता है I
इसी बात को संसदीय जड़वामन और दुनियादार “प्रगतिशील” शुतुरमुर्ग नहीं समझ पाते और अपने घोंसलों के दरवाजे पर बैठे हुए क्रांतिकारी मंसूबों को ‘हवाई पुलाव’ बताते रहते हैं !