शशिकांत गुप्ते
चुनाव के दौरान देश की जनता का भाग्य जाग जाता है। प्रत्येक राजनैतिक दल जनता की भलाई करने के लिए तत्पर दिखाई देता है। चुनावी रैलियों में हरएक दल जनता का हितैषी बनकर वादें करता है। चुनावी वादे विज्ञापनों में बैनरों पोस्टरों में पढ़ने देखने और सुनने को मिलतें हैं।
चुनाव के नतीजों के बाद क्या होता है? यह गम्भीर प्रश्न है?
इस प्रश्न का जवाब जानने मै मेरे व्यंग्य कार मित्र सीतारामजी से मिला।
सीतारामजी पुरानी फिल्मों के गानों के शौकीन है। सीतारामजी से जब मै मिलने गया तब वे सन 1953 में प्रदशित फ़िल्म पतिता का यह गीत गा रहे थे। इसे लिखा है,गीतकार शैलेंद्रजी ने और गाया है गायक तलत महमूदजी ने।
अंधे जहान के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहाँ
दुनिया तो दुनिया, तू भी पराया, हम यहाँ ना वहाँ
जीने की चाहत नहीं, मर के भी राहत नहीं
इस पार आँसू, उस पार आहें, दिल मेरा बेज़ुबां
आग़ाज़ के दिन तेरा अंजाम तय हो चुका
जलते रहें हैं, जलते रहेंगे, ये ज़मीं आसमां
सीतारामजी संयोग से यही गीत गा रहे थे। गीत की पँक्तियों को ध्यान से सुनने पर मुझे मेरे गम्भीर प्रश्न का जवाब मिल गया।
सीतारामजी से थोड़ी गुफ़्तगू कर जब मैं वापस अपने घर आ रहा था। तब एक मंदिर के बाहर खड़ा भिखारी भीख माँगते हुए उपकार फ़िल्म के गीत की निम्न पंक्तियाँ गया रहा था।
कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या
सुख में तेरे साथ चलेंगे
दुख में सब मुख मोड़ेंगे
दुनिया वाले तेरे बनकर
तेरा ही दिल तोड़ेंगे
देते हैं भगवान को धोखा
इन्सां को क्या छोड़ेंगे
उसी समय एक दल का उम्मीदवार अपने समर्थकों के हूजूम के साथ मंदिर दर्शन करने आया। उसके साथ कोई मंत्री भी था।
कोई मंत्री किसी धार्मिक स्थल पर दर्शनार्थ जाता है,तब ऐसा प्रतीत होता है। मानो मंत्री महोदय मंदिर में विराजित देवताओं को दर्शन देने आएं हैं।
यह नजारा देख मेरे मुँह से भी अचानक ये पंक्ति निकल गई।
देतें हैं भगवान को धोखा इंसा को क्या छोड़ेंगे?
समझने वाले समझ गए,जो न समझे वो अनाड़ी है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर