सुधीर मिश्र
अज़हर इनायती का शेर है-
वो ताज़ा-दम हैं नए शो’बदे दिखाते हुए
अवाम थकने लगे तालियां बजाते हुए
नेताओं का क्या है, उनके पास तो कई प्रकार के इवेंट हैं। इस पार्टी के पास ये वाला है तो दूसरी पार्टी के पास वो वाला। किसी के पास गायक हैं तो किसी के पास अभिनेता। कोई पूर्वांचल से पकड़कर लाया गया है तो कोई उत्तरांचल से। किसी ने मैथिल लोगों के साथ बंद कमरों में मीटिंग की है तो कोई बंगालियों से बोल रहा है आमी तोमाके भालोबाशी। पर दिल्ली वालों, कल आपको ध्यान यह रखना है कि आपकी कॉलोनी, मोहल्ले और गली की दिक्कतों को दूर करने के लिए जरूरी क्या है। जाति, भाषा, क्षेत्र या धर्म या फिर प्रत्याशी का ईमान, नीयत और अच्छी समझ।
चुनाव चाहे लोकसभा का हो, विधानसभा का या फिर पार्षद का। सोचिए हर बार बड़े-बड़े वादों के बावजूद समस्याएं कम होने के बजाय बढ़ती क्यों चली जाती हैं? जवाब आप के भीतर है। सच तो यह है कि चुनाव में जिस मुद्दे को सोचकर ज्यादातर लोग वोट देते हैं, जीतने के बाद अपने प्रत्याशी और राजनीतिक दल से उन्हें वही मिलता है। अब इस रविवार वोट देने से पहले मतदान की लाइन में जरा सोचिएगा कि आप किसे वोट देने जा रहे हैं और क्यों? राजनीतिक दल को या प्रत्याशी को। अब पार्षद के चुनाव में भी प्रत्याशी को न देखकर किसी राजनीतिक दल को जिताने के लिए वोट देने जा रहे हैं तो फिर यह तय है कि आप की प्राथमिकता में भी सियासत ऊपर है और समस्याओं का हल नीचे। अगर वाकई किसी खास प्रत्याशी को वोट देने जा रहे हैं तो कुछ सवालों के जवाब आप के पास होने चाहिए। क्या आप उस प्रत्याशी को उसकी जाति, धर्म, किसी खास विचार या रिश्तेदारी में होने के कारण वोट देने जा रहे हैं। अगर हां तो आगे आने वाली बातें आप के मतलब की नहीं हैं लेकिन अगर इन तीनों के अलावा कोई और वजह है तो यकीनन फिर यह जरूर जानना चाहिए कि पसंदीदा प्रत्याशी दिल्ली की दिक्कतों को लेकर कितने जागरूक हैं।
दिल्ली के अलग-अलग वार्डों की समस्याएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन कुछ दिक्कतें सभी जगह एक जैसी हैं। इनमें सबसे विकट है दिल्ली का प्रदूषण, यमुना की गंदगी, सफाई कुव्यवस्था और आवारा जानवरों की बढ़ती तादाद। दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी का तमगा मिला हुआ है। इसका सीधा लेना-देना सफाई व्यवस्था और कूड़े के पहाड़ों से है। अब सभी राजनीतिक दल ऐसे वादा कर रहे हैं कि मानो कुछ समय बाद इन पहाड़ों की जगह पर खूबसूरत पिकनिक स्पॉट होंगे। तय आपको करना है कि कौन यह काम कर सकता है। सवाल पूछिए नेताओं और प्रत्याशियों से। समझिए उनके एजेंडे को और तब वोट दीजिए। बात चाहे यमुना के गंदे पानी की हो या कूड़े के पहाड़ों की। इनका सीधा जुड़ाव दिल्ली वालों की सेहत से है। अगर आप डॉक्टरों से बात करेंगे तो वह आप को साफ बताएंगे कि दिल्ली की हवा और ऐसा वातावरण किस तरह से आपकी जिंदगी कम कर रहा है। सच यह भी है कि इन समस्याओं को दूर करने के लिए किसी रॉकेट साइंस की नहीं बल्कि सिर्फ अच्छी नीयत और समझदारी से काम करने की है। देश-दुनिया के कई शहरों में कूड़ा अब एक रिसोर्स है। उससे एजेंसियां पैसा कमाती हैं। इसके लिए कूड़े को सोर्स से ही अलग-अलग कर लिया जाता है। हरा कचरा एनर्जी का सोर्स है। खाद बना सकते हैं। बहुत जगहों पर इससे बिजली भी बनती है। अगर सब्जियों और खाने-पीने की चीजों से जुड़ा कचरा बाकी कूड़े में न मिले तो फिर दोनों ही रिसोर्स बन जाते हैं। जैविक कचरे के न मिलने से बाकी कूड़ा सड़ता नहीं, उससे गंदी गैसें निकलकर वातावरण नहीं खराब करतीं और आग भी नहीं लगती। लोगों को जागरूक किया जाए तो सब्जियों के छिलके इस्तेमाल किए जा सकते हैं। खाद न भी बनाई जाए तो किसी संस्था के जरिए इसे रोजाना गोशालाओं तक पहुंचाया जा सकता है। सीवेज और नाले-नालियों की गंदगी का भी ऐसा ही इस्तेमाल किया जा सकता है। यमुना भी साफ हो सकती है लेकिन सच तो यह है कि इस तरह के व्यवहारिक उपायों के बारे में वोटर और नेता दोनों ही नहीं सोचते। जबकि इस बारे में सबको मिलकर सोचने की जरूरत है। सांस के रोगी बढ़ रहे हैं, छोटे-छोटे बच्चों को अस्थमा हो रहा है, डॉक्टर बच्चों को दिल्ली से दूर ले जाने तक की सलाह दे रहे हैं। प्रदूषण से तरह तरह की एलर्जी हो रही हैं और फिर भी वोट देते वक्त हम आप इसे बारे में नहीं सोचते। सोचिए आखिर गलती किसकी है। वोटरों को समझना होगा कि उनकी जरूरत क्या है। बाकी रही बात सियासत की तो चलते-चलते यह शेर और बात खत्म कि-
समझने ही नहीं देती सियासत हम को सच्चाई
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पन नहीं मिलता