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राज्यों में आर्थिक अस्थिरता की सुगबुगाहट

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पीएस वोहरा
देश के कुछ राज्यों में आर्थिक अस्थिरता की सुगबुगाहट है। हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है और दुनिया की टॉप-5 अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है। भारत की छवि भी एक ऐसे मुल्क के रूप में बन रही है जिस पर वैश्विक घटनाओं का बहुत अधिक आर्थिक असर नहीं होता है। मगर राज्यों की माली हालत देखें तो अधिकतर ने सीमा से अधिक कर्ज ले रखा है।

चिंताजनक आंकड़े
राज्यों की माली हालत का अंदाजा कई रिपोर्टों से मिलता है।

  • आरबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत के सभी राज्यों का वित्तीय कर्ज जीडीपी का 31.2 फीसदी हो चुका है। वर्ष 2014-15 में राज्यों के वित्तीय कर्ज जीडीपी का 21.7 प्रतिशत था।
  • 2018 में संसद ने राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम को स्वीकृति दी थी। इसके प्रावधानों के अनुसार वर्ष 2024-25 तक जीडीपी के 60 फीसदी तक का कर्ज उचित माना गया।
  • इसमें 40 प्रतिशत की सीमा केंद्र सरकार के लिए और 20 प्रतिशत की सीमा राज्यों के लिए थी। लेकिन राज्यों के वित्तीय कर्ज का प्रतिशत 20 की सीमा से बहुत आगे बढ़ चुका है।
  • 15वें वित्त आयोग ने निश्चित किया था कि केंद्र सरकार वित्तीय वर्ष 2022-23 में 86,201 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता ऐसे राज्यों को वितरित करेगी, जहां वित्तीय घाटे की हालत बनी हुई है, लेकिन आने वाले वर्षों में केंद्र सरकार की इस वित्तीय राशि में कमी का प्रावधान रहेगा।
  • फिलहाल भारत के 7 राज्य- आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, केरल, पंजाब, राजस्थान, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल पहले से ही वित्तीय घाटे के दौर से गुजर रहे हैं।
  • आने वाले समय में असम, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम और उत्तराखंड भी केंद्र सरकार पर वित्तीय सहायता हेतु निर्भर होने वाले हैं।
    अगर आगामी वर्षों में केंद्र सरकार ने वित्तीय सहायता की रकम कम की, तो हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु भी मुश्किल हालात से गुजरेंगे।

ब्याज की मार
आखिर राज्यों की परिस्थितियां ऐसी क्यों होती जा रही हैं? यहां एक बात अचंभित करने वाली है कि तकरीबन सभी राज्यों में पावर सेक्टर से होने वाला वित्तीय घाटा बहुत अधिक है। बता दें कि वेतन, पेंशन, ब्याज और सब्सिडी राजस्व खर्चे में शामिल होते हैं, लेकिन इन खर्चों से कोई संपत्ति नहीं बनती जिससे किसी तरह की आय हो। लगातार बढ़ रहे कर्ज का ब्याज राजस्व खर्चों का एक बहुत बड़ा हिस्सा लेता जा रहा है। इसके चलते आर्थिक विकास के लिए जरूरी दूसरे आयामों जैसे कृषि, इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट, शिक्षा में गुणवत्ता वगैरह पर खर्च करना मुश्किल होता जा रहा है, जो शायद भविष्य में असंभव भी हो जाए।

जीएसटी की दिक्कत
राज्यों की प्रत्यक्ष आय का स्रोत सिर्फ टैक्स हैं। जीएसटी के आने के बाद से राज्यों के टैक्स लगाने के अधिकारों में कमी हुई है। राज्यों पर दो तरह से इसके आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं-

  • एक, 2015-16 तक टैक्स का टोटल ग्रॉस कलेक्शन जीडीपी के अनुपात का 6.7 प्रतिशत था। जीएसटी के आने के बाद से यह लगातार कम होता रहा है। वर्ष 2021-22 में यह 5.9 प्रतिशत रहा। इसके पीछे के मुख्य कारणों में टैक्स रेट में की गई कमी भी है।
  • दो, 13वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010-11 से वर्ष 2014-15 तक औसतन ग्रॉस टैक्स कलेक्शन 32 प्रतिशत था और उसका 28 प्रतिशत हस्तांतरण विभिन्न राज्यों में किया गया था। वहीं 14वें वित्त आयोग के दौरान वर्ष 2015-16 से वर्ष 2019-20 तक औसतन कर संग्रहण 42 प्रतिशत रहा, जबकि राज्यों को हस्तांतरण मात्र 34.8 प्रतिशत ही किया गया।

अब 15वें वित्त आयोग के चालू 3 वर्षों में हालात और खराब लग रहे हैं। वर्ष 2020 से 2022 तक औसतन ग्रॉस टैक्स कलेक्शन 41 प्रतिशत रहा है और राज्यों को मात्र 29.66 प्रतिशत ही हस्तांतरण किया गया है। निश्चित रूप से पिछले काफी वर्षों से राज्यों को तुलनात्मक रूप से कर संग्रहण में उनका हिस्सा कम मिल रहा है। इसके कारण भी उनका राजस्व घाटा बढ़ रहा है। आय का कोई दूसरा बड़ा स्रोत न होने के कारण उन्हें वित्तीय कर्जों के जाल में उलझना पड़ रहा है।

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