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शब्द को अपनी लेखनी से सजीव करने वाले- विष्णु प्रभाकर

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देवी नागरानी

हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार और पद्म विभूषण से सम्मानित विष्णु प्रभाकर ( २१ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९) उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव मीरापुर में पैदा हुए, उनकी शिक्षा मीरापुर में हुई। उन्होने हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। पर वे किसी लेबल के मोहताज नहीं थे। खुद को हर वादे से मुक्त रखते हुए उन्होने ने लिखा है-“ कुछ ने प्रगतिवादी कहा, तो कुछ ने सामंतवादी तो कुछ ने गाँधीवादी, मैं अगर वादी हूँ तो विष्णुवादी !”

वे लेने से जियादा कुछ समाज को देने के पक्षधर थे. वे एक ऐसे रचनाकार थे जो आंदोलनों से कभी नहीं जुड़े, न किसी आलोचक से प्रभावित हुए. उन्होंने आज़ादी से वही किया व् लिखा जो उनके भीतर प्रवाहित होता रहा.–
मेरे अँधेरे बंद मकान के/ खुले आँगन में
कैक्टस नहीं उगते/ मनीप्लांट ख़ूब फैलता है
लोग कहते है/ पौधों में/चेतना नहीं होती।

देशभक्तिराष्ट्रीयता और समाज के उत्थान के लिए निरंतर समर्पित उनकी लेखनी ने हिन्दी को कई कालजयी कृतियां दीउनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज आठ दशकों तक निरंतर सक्रिय रहा। कथा-उपन्यास, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रूपक, फीचर, नाटक, एकांकी, समीक्षा, पत्राचार आदि गद्य की सभी संभव विधाओं के लिए ख्यात विष्णुजी ने कभी कविताएं भी लिखी होंगी , यह भी संयोग ही रहा कि उनके लेखन की शरुआत (उनके कहे अनुसार) कविता से हुई और उनकी अंतिम रचना, जो उन्होंने अपने देहावसान से मात्र पच्चीस दिन पूर्व बिस्तर पर लेटे-लेटे अर्धचेतनावस्था में बोली, वह भी कविता के रूप में ही थी। संग्रह-“चलता चला जाउँगा” से उनकी एक चुनिन्दा कविता “आग का अर्थ” हमारेसामने एक नये अर्थ के साथ पेश है,….

मेरे उस ओर आग है/ मेरे इस ओर आग है,
मेरे भीतर आग है / मेरे बाहर आग है / इस आग का अर्थ जानते हो ?/ क्या तपन, क्या दहन/ क्या ज्योति, क्या जलन / क्या जठराग्नि-कामाग्नि,
नहीं! नहीं!/ ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के जीवन की पाठशाला के नहीं,

विष्णु प्रभाकर ने अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया. उनके रचनाकर्म की कुछ प्रेरक खासियतें हैं। वे मानते थे कि कुछ भी अंतिम या स्थायी नहीं है। उनकी भावाभिव्यक्ति से यह ज़ाहिर है –

“मैंने बीते हुए युग कि कथा लिखी थी

वह सच नहीं हुई

तुम आने वाले क्षण की कहानी लिख रहे हो

वह भी सच नहीं होगी

काल सबको ग्रस लेगा/ शेष रह जायेगा दंभ

मेरा, तुम्हारा, उसका/ तुम जानते हो किसका

बोलो नहीं, क्योंकि…..

जो भी तुम बोलोगे झूठ साबित होगा.’

वे कहते थे कि एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अ‌र्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु ‘आवारा मसीहा’ ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा। पद्म भूषण, अर्धनारीश्वर उपन्यास के लिये भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान, देश विदेश में अनेकों सम्मान उनको सुसजित करते रहे।

भारतीय भाषाओं के हिन्दी के साथ समन्वय की दिशा में विष्णु प्रभाकर ने महत्वपूर्ण कार्य किये। अनुवादों के माध्यम से हिन्दी को व्यापक रूप देने में अथक मेहनत की। भारत के गैर हिन्दी भाषी प्रांतों का उन्होंने भ्रमण किया और उनकी साहित्यिक गहराई को भी परखने का प्रयास किया। गैर हिन्दी साहित्य को हिन्दी के करीब लाने के लिये कई प्रांतों की भाषाएं सीखी। गैर हिन्दी भाषियों की परंपरा और उनसे जुड़े व्यक्तित्व को अनुवाद में पूरा स्थान देकर मौलिकता के सूत्र में पिरोने में सफलता प्राप्त की। इससे भाषायी टकराव की संभावना क्षीण हुई, आपसी सद्भाव और हिन्दी के विकास के मार्ग खुले। देखा जाय तो अब विकास की विचारधारा में भारत की विभिन्न भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य का हिन्दी में अनुवाद कर साहित्य भंडार को और अधिक समृद्ध किया जा सकता है।

उनकी कालजयी कृतिआवारा मसीहा’ बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चटर्जी की जीवनी है। जीवनी मनुष्य का जन्म से मृत्यु तक का लिखा प्रमाणित इतिहास है। यह सिर्फ़ जीवनी के तौर पर ही नहीं, बल्कि शोद्धपरकता, प्रामाणिकता और प्रवाह के कारण उपन्यास का आनंद देती है। हिन्दी साहित्य को समृद्ध करती विष्णु प्रभाकर की कालजयी कृति ‘आवारा मसीहा’ जीवनी साहित्य में मील का पत्थर है। आश्चर्यजनक रूप से इस सत्य से जब परिचित होते हैं कि बंगला के अमर कथा शिल्पी शरतचन्द्र को आवारा मसीहा कहने वाले विष्णु प्रभाकर का व्यक्तित्व शरद से बिलकुल विपरीत था। शरद का व्यक्तित्व बोहेमियन था जब कि विष्णु प्रभाकर का गांधीवाद से ओतप्रोत। विष्णु प्रभाकर ने अपने पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए एक संतुलित ज़िंदगी बसर की, जब कि शरत चन्द्र का जीवन अव्यवस्थित हालातों के तहत गुज़रा। कितनी अजीब बात है कि जीवनी में लेखक अपने से भिन्न व्यक्ति के अंतरंग और बहिरंग को पूर्णता से व्यक्त करने की चेष्टा करता है, जिसमें लेखक को अपने नायक के प्रति सुहानुभूति, श्रद्धा होती है, पर अंधविश्वास नहीं। जीवनी में लेखक स्वेच्छा से जीवन वृतांत प्रस्तुत नहीं कर सकता, और जब तक इसमें लेखक चरित्र के साथ समरस नहीं होता, उसे श्रद्धेय नहीं मानता। जीवनी लिखने का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य भी होता है, वह इस भावना से भी लिखी जाती है कि उस श्रद्धेय पुरुष की जीवनी उसे अमरत्व प्रदान करे। जीवनी का सत्य उपलब्ध सामाग्री पर निर्भर है, जहां पर बुद्धि साम्राज्ञी है।

नथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। निष्ठावान प्रतिक्रिया की शिद्दत इतनी विनम्र है जिसकी ऊंचाई के सामने सोच भी बौनी पड़ जाती है जब विष्णु प्रभाकर जी लिखते हैं- “ रवीन्द्रनाथ न होते तो शरत भी न होते, और शरत है इसीलिए “आवारा मसीहा है”। विष्णु प्रभाकर की यह कालजयी कृति चमत्कारमयी भाषा शैली व शरतचंदर की अमरता के प्रति सहज ही आकर्षण पैदा करती है। इस कार्य में उनकी जीवनी की विशेषताओं का व्याख्यान किया है और कई मौलिक तथ्यों के साथ शरत जी के जीवन की अनेक घटनाओं को रोचक अंशों के साथ लिखा है जिसमें से उनके जीवन के अनेक पहलू पारदर्शी रूप में सामने आ रहे हैं।

एक विढ्वान ने कहीं लिखा है, “जीवनी-लेखन कोरा इतिहास-मात्र होगा, अगर उसकी अभिव्यक्ति कलात्मक ढंग से न हो, और उसमें लिखनेवाले का व्यक्तित्व प्रतिफलित न हो। वह व्यक्ति-विशेष का तटस्थ पर खुलकर किया गया अध्ययन होता है” जीवनी लेखक के लिए ज़रूरी है कि उसके पास चरित नायक के संबंध में वैज्ञानिक ज्ञानकारी मौजूद हो, और उससे संसर्ग आवश्यक है। जीवनी का कलात्मक पक्ष जीवन के वास्तव को यथार्थ में रूपांतरित कर पाठकों के हृदय को द्रवित और रसमय करती है।

जब कोई लेखक कुछ वास्तविक घटनाओं के आधार पर श्रद्धेय व्यक्ति की जीवनी कलात्मक रूप से प्रस्तुत करता है तो वह रूप जीवनी कहलाता है, जिसमें जीवन का वृतांत उपलब्ध होता है। यह एक ऐसी व्याख्यां है जिसमें सजग और कलात्मक ढंग से क्रियाओं को संकलित करने की खोज है और व्यक्ति के जीवन में एक व्यक्तित्व का पुनसृजन होता है। कितनी अजीब बात है जीवनी में लेखक अपने से भिन्न व्यक्ति के अंतरंग और बहिरंग को पूर्णता से व्यक्त करने की चेष्टा करता है। अंगेजी के प्रसिद्ध समीक्षक जानसन ने लिखा है “ वही व्यक्ति किसी कि जीवनी लिख सकता है उसके साथ खाता-पीता, उठता-बैठता और बतियाता हो।

जोनपुर के वरिष्ठ व्याख्याता श्री सुनील विक्रम सिंह ने वर्तमान साहित्य में प्रकाशित अपने आलेख “विष्णु प्रभाकर: एक अप्रतिम गध्य –शिल्पी” में कई वैज्ञानिक तत्वों के साथ समग्र सूचनाएँ देता हुए लिखा है “विष्णु प्रभाकर के समग्र साहित्य का केंद्रीय तत्व है- मनुष्य की खोज” और इसी प्रधान तत्व की तहत उन्होने एक शोधपूर्ण व खोज पूर्ण कार्य यही किया कि चौदह वर्ष तथाकथित प्रामाणिक सामाग्री शरत चंद्र के बारे में एकत्रित करते रहे और जो कुछ भी पाया वह सत्य था सत्य के सिवा कुछ भी न था।

सम्मानित चर्चित कथाकार डॉ कलानाथ मिश्र ने उनकी कृति ‘आवारा मसीहा’ को केन्द्र में रखकर विवेचना की। इसके माध्यम से उन्होंने यह बताना चाहा कि कैसे एक आवारा पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है। आवारा और मसीहा दो शव्द हैं। दोनो में एक ही अंतर है। आवारा के सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है, उसी दिन यह मसीहा हो जाता है। प्रमाणिकता और मौलिकता के साथ उन्होंने शरत चन्द्र के जीवन के इसी रूप में रखा।

‘आवारा मसीहा’ की भूमिका में विष्णु शर्मा ने “जीवनी क्या है?” इसको परिभाषित करते हुए लिखा है- “जीवनी है अनुभवों का श्रंखलाबद्ध कलात्मक चयन। इसमें वे ही घटनाएँ पिरोयी जाती हैं, जिनमें संवेदना की गहराई हो, भावों को आलोड़ित करने की शक्ति हो। घटनाओं का चयन लेखक किसी नीति, तर्क या दर्शन से नहीं करता वह गोताखोर की तरह जीवन सागर से डूब-डूब कर सच्ची संवेदना के मोती चुनता है।“ और एक ऐसे ही गोताखोर की तरह उन्होंने शरत चन्द्र के जीवन सागर से मोतियों को चुना तथा काल, देश, व्यक्ति और घटना की सीमाओं को तोड़कर अनुभूतियों का सौंदर्य में विक्षेपण कर परिणति दी। उनकी कृति ‘आवारा मसीहा’ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है।

विष्णु प्रभाकर जी का आचरण पारदर्शी एवं लोकतांत्रिक होना था, जिसमें हर विचारधारा के लोगों से वे जब भी किसी विषय पर संवाद करते, कभी ऐसा नहीं हुआ की वे अपने विचार उन पर थोपें। हां, असहमत होने पर पूरी सादगी और विनम्रता से सुझाव देते थे। वे अपनी रचनाओं और व्यवहार दोनों में जीवन के मर्म और गुत्थियों को बहुत ही सहज और सरल ढंग से खोलते थे। वे हिंदी साहित्य के सभी आंदोलनों के प्रत्यक्षदर्शी थे, और निष्ठा से अपनी कलम की धारधार नोक से सत्य परिभाषित करते रहे। कभी उनकी किसी लेखनी पर चर्चा या आलोचना होती तो विष्णु जी ने ऐसी आलोचनाओं का जबाव भी अपनी रचनाओं से ही दिया। वे आंदोलन को उद्देश्य की कसौटी पर कसते थे, न कि किसी राजनीतिक विचारधारा पर। प्रगतिशीलता के पक्ष में वे थे, साथ-साथ अपनी संस्कृति और राष्ट्रीयता उनके लिए अहम थी।

दो पीढ़ियों के मान्यताओं और मूल्यों के संघर्ष के सिलसिले में उनका कथन रौशन मुनार की तरह साफ साफ देखने को मजबूर करता है। हर दो पीढ़ियों के बीच वैचारिक संघर्ष रहता ही है, पर यह सिर्फ़ दो पीढ़ियों के व्यक्तित्व का ही संघर्ष नहीं बल्कि मान्यताओं और मूल्यों का भी संघर्ष है। जैसे पहले कहा है कि उनके समग्र साहित्य का केंद्रीय तत्व है- मनुष्यता की खोज, इस सिलसिले में कड़ी जोड़ते हुए विष्णु प्रभाकर ने एक जगह लिखा है –“सभ्यता ने मानव को समझदार नहीं बनाया, केवल नासमझी के कारण को कुछ संशोधित कर दिया है।“ उन्होंने कहा कि जाति, वर्ग और पूंजी के आधार पर समाज टूट रहा है। ऐसी स्थिति में विष्णु प्रभाकर के सिद्धांतों और रचनाओं की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ गयी है।

विष्णु प्रभाकर ने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया। विष्णु प्रभाकर परिवार से उनके बेटे अतुल प्रभाकर, बेटियां अनिता प्रभाकर, अर्चना प्रभाकर हैं। उनकी पत्नी का निधन काफी पहले हो गया था। एक साहित्यकार का जीवन उसका साहित्य ही होता है। उनके जीवन के अनछुए और अनकहे पहलुओं को उनकी रचनाओं में खुशबू की तरह पाना होता है। जैसे खुशबू फूल की पंखड़ियों में बसी रहती है, वैसे ही कवि अपनी कविता की पंक्तियों में व्याप्त होता है।

आज विष्णु प्रभाकर जीवित नहीं है, पर उनका साहित्य अमरता का वरदान लिए हमारे सामने पसरा हुआ है.

“मैंने बीते हुए युग कि कथा लिखी थी

वह सच नहीं हुई

तुम आने वाले क्षण की

कहानी लिख रहे हो

वह भी सच नहीं होगी

काल सबको ग्रस लेगा

शेष रह जायेगा दंभ

मेरा, तुम्हारा, उसका

तुम जानते हो किसका

बोलो नहीं, क्योंकि…..

जो भी तुम बोलोगे झूठ साबित होगा.’

सशक्त शब्दावली का प्रतिनिधित्व करके शब्द दर शब्द को अपनी लेखनी से सजीव करने वाले शब्दों के मसीहा को शत शत नमन.

मेरा हर शेर है अख्तर मेरी ज़िंदा तस्वीर देखने वालों ने हर लफ़्ज़ में देखा है मुझे।

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