मीना राजपूत
_आप चाहे जितने भी संवेदनशील लेखक, कलाकार या बुद्धिजीवी हों, अगर सिर्फ़ बुद्धिजीवियों या सामान्य पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय जंतुओं के बीच ही उठते-बैठते हैं तो धीरे-धीरे आपकी सारी संवेदनाएँ मरती चली जायेंगी._
आपकी न्याय-दृष्टि क्षीण होती चली जायेगी, आपके आशावाद की कोंपले मुरझा जायेंगी, आपकी रचनात्मकता छीजती चली जायेगी और आपको पता ही नहीं चलेगा कि कब आप इस कदर जनविमुख, आत्मग्रस्त, स्वप्नहीन और निखालिस कलावादी बन गयेI
फिर आप भी उन बौद्धिक प्रेतात्माओं में शामिल हो जायेंगे जो समाज की हर दुरवस्था के लिए जनसमुदाय की मूढ़ता, पिछड़ेपन आदि को ही ज़िम्मेदार ठहराते रहते हैं, जो ऑनलाइन-ऑफ़लाइन लेक्चर देते हुए अतीत की क्रान्तियों की निरर्थकता और दोषों का विवेचन करते रहते हैं.
उनकी छींक, डकार और पाद में भी अमूर्त दार्शनिक सूत्रीकरण होते हैं, जो मानवमुक्ति की हर परियोजना को शेखचिल्ली का सपना बताते रहते हैं और फ़ासिज़्म के घटाटोप में यह कहते रहते हैं कि फ़िलहाल थोड़ा सा बुर्जुआ जनवाद भी मिल जाये तो ग़नीमत हैइं
वैसे अगर वह भी न मिले तो बुर्जुआ जनवाद के “पश्चिमी स्वर्ग” की ओर प्रस्थान कर जाने के लिए वे हर क्षण तैयार रहते हैंI
अगर इस किस्म के बौद्धिक नहीं तो आप अशोक वाजपेयी-अपूर्वानंद टाइप सम्प्रदायों के सदस्य बन जायेंगे, ‘सुकुल-सरमा-पाँड़े-सिंह-द्विवेदी-चतुर्वेदी-मिसरा’ कबीले के “ब्राह्मणवादी -मार्क्सवादी” लेखक-आलोचक बन जायेंगे या रंग-बिरंगे सामाजिक जनवादी छद्म वामपंथियों और बुर्जुआ लिबरलों के किसी ठग-गिरहकट गिरोह में शामिल हो जायेंगेI
अगर ऐसा कुछ न भी हो तो आप मानसिक रूप से बेहद बीमार, अलगावग्रस्त, आत्मनिर्वासित, सर्व संशयवादी प्रेतात्मा या इन्द्रियभोगी कामुक-विलासी सूअर बन जायेंगेI
प्रतिक्रान्ति और विपर्यय के घटाटोप में, फ़ासिज़्म के आततायी अंधकार में और एक बेहद रुग्ण एवं गतिरुद्ध पूँजीवादी समाज में, अगर अपनी मानवीय संवेदना, न्यायबोध, जनपक्षधरता, सर्जनात्मकता और सामाजिक यथार्थ की ज़मीनी समझ की क्षमता को बचाना और निरंतर संवर्धित करते रहना चाहते हैं, तो दर्शन, इतिहास और साहित्य-कला की सैद्धांतिकी के निरंतर गहन अध्ययन के साथ यह भी उतना ही ज़रूरी है कि आप आम मेहनतकश आबादी के बीच जायें, शोषण और उत्पीड़न के नग्न रूपों से प्रत्यक्षतः परिचित हों, समाज के अँधेरे रसातल में धड़कती और लड़ती-जूझती ज़िन्दगी से जान पहचान करेंI
कभी मज़दूरों के चायख़ानों में आइए, उनकी बस्तियों में आइए! उनके बीच कुछ दिन बिताइए! घबराइए मत, सारा इंतज़ाम हम कर देंगे! दर्ज़नों शहरों की(और गाँवों-कस्बों की भी) मज़दूर बस्तियों में हमलोग मज़दूरों के लिए और उनके बच्चों के लिए अध्ययन मण्डल, सांस्कृतिक केंद्र, पुस्तकालय आदि चलाते हैं!
आइए, आप भी हाथ बँटाइए! वहाँ आप सिखाने से अधिक सीखेंगे! ज़िन्दगी की असली पाठशाला तो वहीं है! कलात्मक सृजन के कच्चे माल की खदानें तो वहीं हैं!
बौद्धिक वीरानों और निष्प्राण विचारों के श्मशानों में कहाँ फालतू भटक रहे हैं महराज! साहित्यिक औघड़ और तांत्रिक बनकर कुछ ईनाम, तमगों, ओहदों और वजीफे के अतिरिक्त और मिलेगा भी क्या! चूहा दौड़ में जो जीतता है, वो भी एक चूहा ही होता है!