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संवेदनाशून्य, चरित्रहीन, स्वार्थी और अपाहिज ही नहीं अपराधी भी बना रही है नौकरीकेंद्रित शिक्षा

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दिव्या गुप्ता

(डॉ. विकास मानवश्री से हुए संवाद पर आधारित शब्दांकन)

  _अच्छे मार्क्स लाने हैं. किसी भी स्तर की प्रतिस्पर्धा से गुजरना है. मेरिट, हायर एजुकेशन और फिर बेहतर पैकेज पर नौकरी : यही जीवन लक्ष्य है._

       जन मानस में यह बात कूटकूट कर भर दी गई है. नौकरी मिलती नहीं. मिली तो टिकती नहीं. लाखों जाया कर पढ़ने के बाद नामी-गिरामी संस्थान में नियुक्ति पाने वाले भी छटनी के शिकार हो जाते हैं — कभी भी. फिर ये आत्महत्या करें, भूखे मरें या अपराध करें. स्व-निर्धारित स्तर से नीचे का काम इनसे नहीं होता. जिनको अवसर ही नहीं मिला नौकरी का, वे भी अपने शैक्षिक स्तर के कारण कोई स्वावलम्बी काम नहीं करते. यानि मूलभूत मामला ग़रीबी – बेरोजगारी का नहीं स्तर संबंधी सोच का है, जिसके लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार है.

      _नौकरी-केंद्रित आधुनिक शिक्षा इंसान को संवेदनाशून्य,  नैतिकताविहीन यानि चरितहीन, न्यस्थ स्वार्थ केंद्रित और अपाहिज ही नहीं अपराधी भी बना रही है._

*महज अर्थकेंद्रण है अनर्थ का कारण :*

     आधुनिक शिक्षा इंसान को केवल महज भौतिकवादी और संवेदनहीन बना रही है। शिक्षा से जितना हम ग्रहण कर रहे हैं वह हमें उतना ही असंतुलित कर रही है। यूनिवर्सिटी में हम अपना कैरियर बनाने जाते हैं, लेकिन यह कैरियर बनाने का तरीका हमें केवल भौतिक सुख-साधनों की ओर ले जाता है।

    महज पैसा वस्तुतः हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है। हम पहले खुद को जाने, अपना स्वावलंबन लक्ष्य निर्धारित करें। ब्रह्म को जानें, प्रकृति को जानें और उन दोनों का भेद समझें, सहजता और शांति से जीना सीखें. इस तरह की शिक्षा नहीं रही अब.

      एक बीज है जो विशाल वृक्ष का जन्म देता है लेकिन वह बीज भी हमेशा जीवित नहीं रहता। ठीक उसी तरह जैसे मानव शरीर को जन्म देने वाले माता पिता हमेशा नहीं रहते। लेकिन वह बीज रूपी प्राण जहां वृक्ष को जीवंतता प्रदान करता है, उसके पालन-पोषण में सहयोगी रहता है वैसे ही माता-पिता की वह प्राण वायु इंसान के जीवन को संचालित करती रहती है। लेकन आज ओल्डएजहोम/ वृद्धाश्रम का जमाना है.

     वर्तमान में केवल शारीरिक व मानसिक तत्व पर ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, बौद्धिक, आत्मिक और आध्यात्मिक तत्व गौंण हो गया है।

      दरअसल ये शिक्षा केवल बौद्धिकता तक ही सीमत रह गई है। यही वजह है कि हम यूनिवर्सिटी में जितनी ज्यादा शिक्षा ग्रहण करते हैं उतने ही असंतुलित होते जाते हैं। इसे आध्यात्मिकता की ओर ले जाने की जरूरत है।

      जिस तरह से बीज को कोल्ड स्टोरेज अथवा फ्रिज में ज्यादा दिनों तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है उसी तरह मानव शरीर भी है। बीज को वृक्ष बनने के लिए जमीन में गणना ही होगा। ऐसे ही अगर आप वृक्ष की तरह बड़ा बनना चाहते हैं तो जीवन की सार्थकता के लिए सर्वजन सुखाय की ओर जाना होगा। जीवन का सत्य समझने के लिए मृत्यु को समझना होगा।

   बच्चे को जन्म देते समय जो मृत्यु तुल्य कष्ट वह सहन करती है वही उसे मातृत्व का असल बोध कराता है। ये सिजेरियन मदर में वो भाव आ ही नहीं सकता। ऐसे में मां बनना और मातृत्व का बोध करना जरूरी है। मां द्वारा बोया गया वह बीज ही है जो वृक्ष के समान मानव जीवन को आगे बढाता है, यही जीन्स कहलाता है। यह चक्र ही है जो समाज की स्थापना करता है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। ठीक उसी तरह जैसे ब्रह्मांड यानी यूनिवर्स है। यह सब हमारी शिक्षा नहीं बताती.

      बादल, एनर्जी, लाइट, वाटर आदि सब एक सर्किल है जिसके माध्यम से ही सृष्टि जीवत है। यो सोम और सूर्य ही जिससे ब्रह्मांड संचालित है। ब्रह्म कोई अलग नहीं वह हर इंसान के अंदर है। यही वेदों का निचोड़ है और इसे आधुनिक विज्ञान ने भी माना है।

      पद यानी सरस्वती और अर्थ यानी लक्ष्मी। ये दोनों एक साथ हो ही नहीं सकते। जहां पद है वहां अर्थ नहीं। महज अर्थलिप्सा अंधकार की ओर ले जाती है, अनैतिकतता की ओर. इसीलिए लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। वर्तमान शिक्षा में भी इस अर्थ की ही प्रधानता है। 

  पुरुष व स्त्री एक हैं, प्रकृति व शरीर एक हैं। यानी अहम् ब्रह्मास्मि, अर्थात मुझमें और ब्रह्म में कोई भेद नहीं। आज जरूरी एकात्मवाद को समझने की है। यही तत् त्वम असि है।

*प्राचीन शिक्षा प्रेरणा-दायक :*

       आधुनिक शिक्षा पद्धति में न तो प्राचीन भारतीय संस्कार व संस्कृति की झलक देखने को मिलती है और न ही उसमें उच्च कोटि की गुणवत्ता है जो चिंता का विषय है।

      सबसे पहले हमें छात्रों के व्यक्तित्व के निर्माण पर जोर देना चाहिए। आधुनिक शिक्षा में नैतिकता का अभाव झलकता है। सामाजिक बुराइयों को दूर करने एवं समाज में परिवर्तन लाने का यह एक सशक्त माध्यम है. आधुनिक शिक्षा का व्यवसाईकरण होते जा रहा है जो भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। इसमें बदलाव की जरूरत है। आज शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी हो गया है।

     प्राचीन शिक्षा पद्धति नौकरी केंद्रित नहीं; देहिक-मानसिक स्वास्थ्य, व्यवसाय और स्वावलंबन केंद्रित थी. भारतीय संस्कार व संस्कृति से परे होना ही आधुनिक शिक्षा की सबसे बड़ी बुराई है।

      आधुनिक शिक्षा में स्थायित्व नहीं है। आधुनिक शिक्षा के नाम पर हम आगे बढ़ते जा रहे हैं। पीछे मुड़कर कोई नहीं देख रहा है। इससे हम धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कट रहे हैं।

भावी पीढ़ी को आत्मनिर्भर बनाने या यूँ कहें आत्मनिर्भरता का अर्थ सिखाने की आवश्यकता है. आज एक ओर जहाँ अमूमन कम शिक्षित वर्ग नए व्यवसाय स्थापित करने में लगा है वहीं दूसरी ओर उच्च शिक्षित वर्ग सुसाइड या अन्य अपराध करने में लगा है.

     मानव सभ्यताओं के किसी भी युग में घटनाओं के घटित होने के बाद ही क्यों उनके समाधान को ढूंढने के लिए हस्तक्षेप होने लगता है. घटनाएं तो अंदेशा पहले से ही देती हैं. यहीं से जोड़कर देखना चाहिए शायद  हमें आत्मनिर्भर भारत के सपने को.

        अवाम को मुफ्तखोरी का लती बनाकर राहत पैकेज के ज़रिये हम समाज को कितनी दूर तक आत्मनिर्भरता की ओर ले जाएंगे.

   आत्मनिर्भरता एक कला है जो किसी की मानसिक दशा के मज़बूत ढाँचे पर आधारित है. मानसिक ढाँचे का रंगरूप देने का कार्य शिक्षा पर ही आधारित है. आस-पास से मिलने वाली शिक्षा इंसान के अंदर नई ऊर्जाए, धैर्य और संयम की स्तिथि को पनपने की दर को तय करती है.

स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा का अर्थ समझाते हुए कहा था कि शिक्षा एक उपकरण है जो मनुष्य में पहले से ही मौजूद पूर्णता को पहचानने और उसकी प्राप्ति का काम करती है, अतः शिक्षा के द्वारा बच्चे में आत्मनिर्भरता को बढ़ाना आवश्यक है. विवेकानंद की दूरदर्शिता आज की शिक्षा पर सवाल करती है.

*संस्कारविहीन शिक्षा महत्वहीन :*

        आत्मनिर्भरता कैसे सिखाई जाए इसके लिए शिक्षा के मुलभुत उद्देश्य को जानना ज़रूरी है, शिक्षा का मुलभुत उद्देश्य व्यक्ति को उसकी छिपी प्रतिभाओं से रूबरू कराना है और यह सिखाना है कि वह इन प्रतिभाओं को कहाँ और कैसे अपने जीवन के संघर्षो को चुनौती में बदल सफल हो सकता है. इस तरह के ज्ञान को व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को जीवन भर सीखने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है.

        अब जीवन भर सीखने के लिए भी एक प्रणाली है जो की 1993  से “आजीवन शिक्षा” के नाम से मशहूर है और जिसकी जड़ें 1962 के समय से हैं. आजीवन शिक्षा प्रणाली एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें हर उम्र के व्यक्ति का विभिन सन्दर्भो में सीखने की प्रक्रिया वर्णित है . इसके अनुसार व्यक्ति केवल विद्यालय में ही नहीं वरन घर, कार्यस्थल , क्रीड़ास्थल , अवकाश स्थल एवं कहीं भी सिखने की प्रक्रिया में रहता है. 

       इस प्रणाली में मुख्यता पड़ना , सुनना , लिखना , अवलोकन , प्रयोग एवं अभ्यास करना जैसे कौशलों पर काम किया जाता है. इन कौशलों का बच्चे में इतना विकास किया जाता है की उसकी इन्द्रियां आम दिनचर्या में भी इन कौशलों के जरिये नई नई चीज़े सिखने लगती हैं. 

       इसमें जानकारी और ज्ञान का अंतर बताते हुए प्रेरणा एवं प्रतिबिम्ब पर काम किया जाता है.  परन्तु आजीवन शिक्षा प्रणाली का उपयोग केवल विश्वविद्यालयों में अलग विभाग बनाने में एवं शोध करने में किया जाता है. परन्तु अफ़सोस इसका इसका उपयोग कैसे हम अपनी स्कूली शिक्षा प्रणाली में करें : इस पर कोई ठोस शोध या हस्तक्षेप नहीं हैं.

      रही कही कसार निकाल दी है हमारे प्राइवेट स्कूलों ने, लॉकडाउन की स्तिथि किसी विश्वयुद्ध से कम नहीं थी पर प्राइवेट स्कूलों द्वारा चलाई गयी ऑनलाइन क्लासेज एक अलग ही युद्ध  को आगाज दे रहीं है. यहाँ तो शिक्षा के मुलभुत उद्देश्य की धज्जियां ही उड़ती दिख रहीं थी.

       ऐसा लगने लगा की मानों उद्देश्य तो किसी भी तरह से पाठ्यक्रम को बच्चे के दिमाग में ठूंस  देने का है.  सीखना सिखाना तो दूर इन सब से बच्चों की शारीरिक स्तिथि पर पड़ने  प्रभाव पर तो आने वाले समय के शोध में पता चलेगा. परन्तु एक अन्य युद्ध का बिगुल भी अब बज ही चूका है , वह है इन ऑनलाइन कलासेस  के बदले आमदनी या अभिभावकों के लिए जुर्माना कैसे लगाया जाए.

जनाब यह तो अलग ही घटनाक्रम की तरफ जाता दिख रहा है. ऑनलाइन क्लासेज में प्राणो को झोक कर पढ़ाने वाले शिक्षको को उनकी नौकरी के जाने के डर उनके संयम को और अंत में उन्ही की आत्मनिर्भरता पर कुछ प्रश्नचिन्ह से लाग रहा है. 

       कैसे रोकेंगे आप सुसाइड जैसी अवस्था में जाने से किसी को जब शिक्षा देने वाला अपनी आत्मनिर्भरता की चिंता में डूबा है. जिसकी मनोदशा पूरा दिन ऑनलाइन कक्षाओं से घिरने के बावजूद आज इस स्तिथि में खड़ी है की अपनी अवस्थाओं को कैसे सुधारा जाए. फिर कैसे उम्मीद करें हम ऐसे बेक़सूर शिक्षकों से एक आत्मनिर्भर पीढ़ी को बनाने का.

       तो अब शिक्षा के इस निजीकरण वाले व्यापार से आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करने की अपेक्षा करना भी एक उपेक्षा ही होगी.

       शायद आज रक्षा विभाग की तरह शिक्षा को पूर्ण रूप से सरकार को अपने हाथों में लेना चाहिए. शिक्षा के लिए अब वोकल  टू  लोकल होने की ज़रूरत है. ज़रूरत है हमारे ही देश से जन्मी शिक्षा पद्धत्ति को महत्व दिया जाए ना की निजीकरण से उपजी शिक्षा, जो वोकल तो बनाती है पर शिक्षा के लोकल उद्देश्य को कहीं भूल चूकी  है. 

      एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को बनाने की आवश्यकता है जो कौशलों के विकास पर ज़ोर दे, भावी युवाओं को अपनी लोकल संस्कृति  के प्रति अवगत कराती हो, जिससे की यही पीढ़ी भविष्य में अपनी ही संस्कृति के कौशलों को समझे, बढ़ावा दे और आत्मनिर्भर बनते हुए आत्मनिर्भरता के भारतीय सपने को साकार करे.

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