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सुनो भाई संतों : न कोई अपना न बेगाना

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पुष्पा गुप्ता 

      शिवालिक पहाडिय़ों की तराई घने जंगलों से घिरी है। वहां बाघ हैं, हाथी हैं और तेंदुआ तो कुत्ते की तरह टहलते मिल जाएंगे। पचकुला की मोरनी हिल्स से लेकर हरिद्वार तक ये शिवालिक पहाडिय़ां कतार बनाकर फैली चली गई हैं।

       अगर जंगल को कभी करीब से देखना हो तो शिवालिक पहाडिय़ों के आसपास के जंगल में आप जा सकते हैं। हमसफ़र डॉ. मानवश्री के साथ हम काशी, खजुराहो, आगरा, मथुरा भी गए हैं और हरिद्वार भी। पर उनके अनुसार : जो एकांत और आनंद शाकुंभरी के निकट के इस वन विश्राम गृह में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। 

 उन्होंने बताया कि शाकुंभरी मंदिर जाकर देवी दर्शन के बाद मेरे पास दो विकल्प थे। एक मैं सहारनपुर लौट आऊँ अथवा वहीं शाकुंभरी स्थित डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के गेस्ट हाउस में रुक जाऊँ।

       डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के गेस्ट हाउस में बिजली और पानी भरपूर थी मगर मैने ये दोनों ही विकल्प छोड़ दिए और तीसरा रास्ता चुना शाकुंभरी वन विश्राम गृह में रुकने का। इसमें रुकना मुश्किल था।

     एक तो यह अतिथि गृह नहीं है इसलिए यहां रुकने के लिए वन विभाग के किसी उच्चाधिकारी की अनुमति जरूरी होती है। दूसरे यहां पर कोई सुविधा नहीं है। बिजली के तार जुड़े तो हैं पर कमरे में एक सामान्य बल्ब के अलावा और कुछ नहीं है। पंखे जरूर लगे हैं। पर एसी या गीजर अथवा ब्लोअर चलाने की कोई सुविधा नहीं है।

      चौकीदार खाना जरूर बना देगा। पर खाने-पीने का सामान आप उपलब्ध करवा देंगे तो सहूलियत रहेगी। इस रेस्ट हाउस में दो बेडरूम हैं और एक कामन कारीडोर है। जहां पर फायरबॉक्स लगा है। जाड़े में इसमे लकड़ी के कुंदे लगवाकर कमरे गर्म कर लें। और सारी रात इन्हें जलने दें।

यह वन विश्राम भवन साल तब बना था जब यह जमीन अंग्रेजों ने फारेस्ट डिपार्टमेंट के अंडर में कर ली। इसके पहले यह पूरा इलाका किसी शर्मा जी के अधीन था । नीचे का हनुमान मंदिर भी और शाकुंभरी देवी मंदिर भी उनकी निजी जागीर थी।

      पर अंग्रेजों ने 1878 में यह जमीन रेवेन्यू से लेकर फारेस्ट को दे दी। फिर 1888 में बटवारा किया और वह हनुमान मंदिर तथा शाकुंभरी मंदिर रेवेन्यू को पुन: दे दिया तथा वन विभाग की सीमा मंदिर से सौ मीटर दूर कर दी। लेकिन उन बेचारे शर्मा जी की जागीर जब्त कर ली गई। तब वन विभाग ने यह फारेस्ट रेस्ट हाउस बनवाया।

    इस रेस्ट हाउस का पहले 1957 में और फिर 2008 में नवीनीकरण कराया गया। मगर मूल ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया गया। छतें वैसी ही लकड़ी की और ढलवाँ तथा दरवाजे व अन्य लकड़ी के सामान तत्कालीन ही। फायरबॉक्स वैसा ही है व ढाई-ढाई गज की लोहालाट दीवालें भी पहले जैसी ही।

     अल्मारी भी वही बस फर्श जरूर ग्रेनाइट पत्थरों का कर दिया गया। बाकी न कुछ जोड़ा गया न घटाया गया। इस रेस्ट हाउस से लगा हुआ चौकीदार का कमरा तथा किचेन। करीब एक एकड़ के एरिया में बने इस रेस्ट हाउस में शांति तो इस कदर है कि दूर-दूर तक सिर्फ झींगरों की आवाजें आती हैं या रात को किसी जानवर की काल की या हाथियों के चलने की आवाजें।

       बिजली के आने का कोई भरोसा नहीं है। चूंकि यह रेवेन्यू लैंड में नहीं है इसलिए बिजली चौबीस घंटे में चार या पांच घंटे ही आती है। ऐसे में बहुत दिनों बाद मैने तारों भरा आसमान देखा और जंगल के अंधेरे में बनते-बिगड़ते काल्पनिक चित्र भी।

       सुबह और शाम बंदर इस रेस्ट हाउस की छत पर धमाचौकड़ी करते हैं और जरा-सा भी दरवाजा खुला पा गए तो कमरे में बिना बुलाए मेहमान की तरह आ धमकेंगे। 

हम यहां कुल चौबीस घंटे रुके पर इन चौबीस घंटों में मैने एकदम शांत, नीरव जिंदगी जी जो शायद गांव छोडऩे के बाद कभी हासिल नहीं हुआ.

      यहां पर जानवरों से डरना नहीं उनके साथ रहना सीखिए जिन्हें किसी अखिलेश, किसी मायावती, किसी राहुल या किसी मोदी द्वारा छले जाने की आशंका नहीं है।

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