शशिकांत गुप्ते
इनदिनों एक कहावत चरितार्थ हो रही है। कान पर जूं न रेंगना।
एक यह कहावत नक्कार खाने में तूती की आवाज भी हकीकत साबित हो रही है।
इस कहावत शब्दशः अर्थ इस प्रकार है।
जब छोटे लोगों की आवाज अमीर लोग नहीं सुनते हैं, तो इसे नक्कार खाने में तूती की आवाज कहा जाता है।
आज के माहौल में उक्त कहावत को यूं समझना चाहिए।
चंद अमीर लोग,कानून को धता बताने वाली कहावत को
बेखौफ होकर चरितार्थ करतें हैं,कारण ये लोग आश्वत हैं कि, सियासत में Power मतलब सत्ता की शक्ति की अपने ऊपर पूर्ण अनुकम्पा है।
पिछले दिनों एक स्लोगन बहुत प्रचलित हुआ है। ना खाऊंगा न खाने दूंगा।
यह हिदायत सिर्फ उनके लिए है,जो अपने नहीं हैं। जो अपने हैं उन्हे छूट है,भलेही वे खा कर डकार भी न ले।
कानून में एक प्रावधान है,यदि किसी व्यक्ति पर कोई गंभीर आरोप हैं,एहतियातन उसका पास पोर्ट जप्त किया जाता है।
लेकिन अपने तो अपने हैं।
इस मामले में अपना पराया कोई नहीं सभी को अदृश्य उपकार प्राप्त हो ही जाता है।
कितना भी बड़ा गबन करें, उन्हे विश्व भ्रमण की सुविधा प्राप्त होती है?
इतना ही लिख पाया था। उसी समय यकायक सन1967 में प्रदर्शित फिल्म मेहरबान का यह गीत याद आया। इसे लिखा है गीतकार शैलेन्द्रजी
गीत की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है।
मेरा गधा गधों का लीडर
कहता है के दिल्ली जाकर
सब मांगे अपनी कौम की
मैं मनवा कर आऊंगा
नहीं तो घास न खाऊंगा
दूजी मांग के जात हमारी
मेहनत करने वाली
फिर क्यों यह इंसान
,गधे का नाम समझते गाली
न बदला यह दस्तूर
तो होकर मजबूर
मैं इन पर केस चलाऊँगा
फिल्म का नाम है,मेहरबान
एक यह भी कहावत है, अलाह मेहरबान तो गधा पहलवान
सामान्य ज्ञान का प्रश्न है,कौन किस पर मेहरबान है खोजों तो जाने।
व्यवहारिक दृष्टि से इनदिनों मेहरबान शब्द एक दूसरे के लिए,
Reciprocal मतलब पारस्परिक है।
हम बने, तुम बने, एक दूजे के लिए।
खोजो तो जाने?
शशिकांत गुप्ते इंदौर