सुधा सिंह
विवाह= वि + वाह।
वि= विपरीत लिंगी, विपरीत गुणी, विजातीय, विरुद्ध स्वभाव वाला वाह = = वह + घञ्। वहन / धारण करने वाला ले जाने वाला, साथ लेकर चलने वाला, भार ढोने वाला, उत्तरदायित्व का निर्वाह करने वाला।
अब विवाह का अर्थ हुआ-विपरीत लिंगी / विरुद्ध स्वभावी/ विरुद्ध गुणी को अपने साथ लेकर आगे बढ़ने वाला, जीवन जीने वाला पुरुष स्त्री को लेकर, स्त्री पुरुष को लेकर एक साथ चले, जीवन जिये, आनन्द मनाए।
स्त्री और पुरुष दोनों शीत-उष्ण, कोमल-कठोर, चर-अचर, सुन्दर-असुन्दर, भीरु निडर, सहनशील- असहनशील, अन्तर्मुखो बहिर्मुखी अप्रकट प्रकट, जननी जनक रूप हैं। अलग-अलग दोनों अपूर्ण हैं। मिलने पर दोनों पूर्ण होते हैं।
पूर्ण वही है जिसमें समस्त विरुद्ध गुणों का समावेश हो। विवाह पूर्णता के लिये किया जाता है। जो पुरुष में नहीं है, वह स्त्री में है। जो स्त्री में नहीं है, वह पुरुष में है। पूर्णता दो से होती है, एक से नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक और मिलकर एक ही होते हैं, दो नहीं। अर्थात् १+१=१
यही विवाह का सूत्र है।
दार्शनिक भाव में जीव और ईश्वर का विवाह होता है। कबीर कहते है-‘हरि मेरो पीव मैं तो राम की बहुरिया’ जीव और ईश्वर अर्थात् भक्त और भगवान् में पत्नी और पति का सम्बन्ध है।
जैसे वो अपने पति/पुरुष से मिलने के लिये व्याकुल रहती है, वैसे ही यह जीव अपने स्वामी ईश्वर से मिलने के लिये आतुर रहता है। भक्त के प्रेम को देख कर परमात्मा भी उस (जीव) से मिलने के लिये उसके सम्मुख हृदय में प्रकट होता है।
जीव और ईश्वर का मिथुन सप्तम भाव है। जीव द्वारा ईश्वर के किसी भी स्वरूप का ध्यान मनन, कोर्तन करना जीव और ईश्वर का मिलन वा विवाह है।
खास बातें :
१. स्त्री और पुरुष का मिलन संगम-सहवास-संश्लेष-संभोग का सुख है।
२. जीव और ब्रह्म का मिलन एकीकरण-सायुज्य-सामीप्य-सान्निध्य का सुख है।
अतः दाम्पत्य सुख एवं योग साधना के सुख का विचार दशम भाव से करना चाहिये।
विवाह एक योग है। योग का अर्थ है दो तत्वों का जुड़ना, संयुक्त होना दो तत्व है – स्त्री-पुरुष अथवा जीव ब्रह्म वा आत्मा-परमात्मा स्त्री और पुरुष की संयुक्ति दो स्तरों पर होती है- शारीरिक एवं मानसिक।
जीव और ईश की संयुक्ति मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर होती है। जीव और ईश्वर दो भिन्न तत्व हैं जीव शरीरी है, ईश्वर अशरीरी है। जीव सीमित है, ईश्वर असीमित है। जीव अनेक है, ईश्वर एक है।
जीव बन्धन में है, ईश्वर मुक्त है। जीव जन्मता है, ईश्वर अजन्मा है। जीव अपूर्ण है, ईश्वर पूर्ण है। इन दो विजातीय तत्वों का मिलन ही उपासना है। उपासना का सुख समाधि है।
दैहिक भाव की सिद्धि अर्थात् मैथुन सुख.
समाधि सुख के लिये जीव को अपने भीतर दो गुण लाना चाहिये :
१.उपेक्षा
२. उपासना
इन दोनों का अर्थ है :
उपेक्षा = उप + ईक्षा।( उप =निकट। ईक्षा = देखना ।) = ईश्वर/संसार/ प्रकृति को निकट से देखना।
उपासना= उप + आसना (उप= निकट। आसन =बैठना।)=
ईश्वर/संसार/ प्रकृति के निकट गोद में बैठना।)
सर्वप्रथम पुरुष उपेक्षा करता है, स्त्री की वह स्त्री को निकट से देखता है, समझता है, उसके बारे में सब कुछ जानता है। इसके बाद वह उस स्त्री की उपासना करता है, उसके निकट बैठता बैठाता है, एक आसन पर बैठता है- विवाह करता है, अपने अंक में रखता बैठाता है।
अन्य दृष्टि से जीव सर्वप्रथम प्रकृति/ शिव को निकट से देखता है, सम्यक जानकारी प्राप्त करता है। इसके सौन्दर्य से अभिभूत होकर वह उस प्रकृति/ विश्वात्मा की उपासना करता, उसके निकट बैठता, उसको अपना सर्वस्व समर्पित करता, शरणागत होता है।
स्त्री (जीव) में पुरुष (ईश्वर) के प्रति समर्पण का भाव होना चाहिये। इससे जीव अभय हो जाता है। अभयता हो सुख है।
पुरुष का स्त्री के प्रति सहज आकर्षण होता है। किन्तु पुरुष किसी विशेष स्त्री को सर्वाधिक पसन्द करता है और वह उसे अपने से अभिन्न मानता है। इसी प्रकार हर प्राणी पर ईश्वर का अहेतुक प्रेम होता है। किन्तु वह किसी किसी को बहुत अधिक चाहता है और वह उसे अपना स्वरूप प्रदान करता है।
एक कहावत है-‘दूल्हन वही जो पिया मन भाये।’ जीव वहीं धन्य है, जिसे ईश्वर अपना बना ले, जिसका ईश्वर से विवाह हो जाय, जिसे ईश्वर अपनी पत्नी बना ले, जिसे ईश्वर अपने से अभिन्न कर ले। पुरुष (ईश्वर) किस जीव (स्त्री) को अपनाता, विवाह करता, अपनी शय्या स्वरूप देता है?
जो उसे पसन्द आ जाय। उसे पसन्द कौन आता है ? यही महत्वपूर्ण है। स्त्री (जीव) का रूप रंग सौन्दर्य, जाति, कुल, गुण, बड़प्पन, बुद्धिमत्ता, विद्या, शील, धर्म, धन, बल आदि पुरुष (ईश्वर) के लिये व्यर्थ है। पुरुष (परमात्मा) तो स्त्री (जीव)) से अनन्यता/ एकनिष्ठा, श्रद्धा मात्र चाहता है।
इसी के कारण वह उसे पसन्द करता है। अनन्यता / अनन्ययोग होने पर कुरूप, निर्धन, निर्बल, कुजाति जीव (स्त्री) उसे मान्य है।
दाम्पत्य सुख के चार बिन्दु :
१. धन
२. आवास
३ सन्तान
४. स्त्री-पुरुष का एक साथ रहना (सहयोग)
एस्ट्रोलॉजी की दृष्टि से भाव २ धन है। भाव ४ निवास स्थान है। भाव ५ सन्तान प्राप्ति है। भाव ७ सहवास सहयोग है।
मुख्य पापग्रह सूर्य, मंगल, शनि एवं राहु हैं दशम में इन को उपस्थिति से दाम्पत्य सुख की हानि सुनिश्चित है। स्त्री और पुरुष के मध्य जो एकता, समरसता, निष्ठा, विश्वास एवं तृप्ति होनी चाहिये, उसे ये होने नहीं देते।
१. सूर्य अपनी पूर्ण सप्तम दृष्टि से आवासच्युत करता है।
२. मंगल अपनी पूर्ण सप्तम दृष्टि से आवासहीन तो करता ही है, वह अपनी अष्टम पूर्ण दृष्टि से सन्तान सुख की हानि भी करता है।
३. शनि भी सप्तम दृष्टि से आवास से दूर किये रहता है तथा दशम पूर्ण दृष्टि से स्त्री पुरुष में वाकू युद्ध, मल्लयुद्ध कराता हुआ न्यायालय तक ले जाता है।
४. राहु अपनी पूर्ण पञ्चम दृष्टि से धन की हानि करता, धन संग्रह को रोकता, परिवार को विपरित करता है। धनहीन को दाम्पत्य सुख कहाँ ?
ये पाप ग्रह भले हो दाम्पत्य जीवन में दरार डाले, उसे उजाड़ें किन्तु पद एवं बाह्य प्रतिष्ठा तो देते ही हैं। राजकीय सेवा, राज सम्मान देना इनके लिये सहज है।
उच्च पदस्थ, सरकारी सेवारत, प्रशासन एवं शासन में कार्यरत स्त्री-पुरुषों को दाम्पत्य सुख की अनुभूति माधुर्यहीन होती है उसमें कटु तिक्त अम्ल कषाय एवं लवण रस का आधिक्य होता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो लाखों में कोई-कोई हो दाम्पत्य सुख के मृदुरस से आप्लावित है।
स्त्री पुरुष को नचा रही है। पुरुष स्त्री को नचा रहा है दम्पत्ति नाच रहे हैं। इन सबको नाचने वाला एक परमेश्वर राम है।
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस वेद अस गावत।I