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ऐतिहासिक फलक : काशी, पण्डितराज और गंगा

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सुधा सिंह 

संस्कृत के काव्यशास्त्रीय आलोचकों की परम्परा के अन्तिम शिखर पुरुष पण्डितराज जगन्नाथ (सोलहवीं सत्रहवीं शती) साहित्यशास्त्र के अगड्धत्त काव्यरसिक विद्वानों में धुरिकीर्तनीय थे।

       पण्डितराज तत्कालीन दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के निवेदन पर उसके ज्येष्ठपुत्र दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाने दिल्ली गये थे। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर शाहजहाँ ने इन्हें ‘पण्डितराज’ की उपाधि से विभूषित किया था।

        पण्डितराज तीक्ष्णप्रज्ञ एवं सूक्ष्मेक्षिका – सम्पन्न आलोचक थे। इनका अपने समकालीन संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध समालोचकों में अग्रगण्य आचार्यत्रयी मम्मट, भट्टोजि दीक्षित और अप्पय दीक्षित से वैचारिक मतभेद बराबर बना रहा। इन्होंने काव्य प्रकाशकार मम्मट के सिद्धान्तों का खण्डन अवश्य किया, पर स्थान-स्थान पर उन्हें ‘सहृदयशिरोमणि’ भी कहा है।

सिद्धान्तकौमुदी’ ‘मनोरमा’ आदि ग्रन्थों के रचयिता भट्टोजि दीक्षित से इनका मतभेद इसलिए था कि दीक्षित जी ने इनके गुरु शेषवीरेश्वर के पिता शेष श्रीकृष्ण द्वारा लिखित व्याकरण -ग्रन्थ ‘प्रक्रिया कौमुदी’ की टीका ‘प्रक्रिया प्रकाश का खण्डन अपनी ‘मनोरमा’ टीका में किया था। 

       अतएव, पण्डितराज ने गुरुभक्तिवश दीक्षित जी की ‘मनोरमा’ टीका के खण्डन के लिए ‘मनोरमा कुचमर्दन’ नाम के टीका ग्रन्थ की रचना की। व्याकरण-जगत् में पण्डितराज की ‘मनोरमाकुचमर्दिनी’ टीका बहु विदित है।

        इसी प्रकार अप्पय दीक्षित के ‘कुवलयानन्द’ तथा ‘चित्रमीमांसा’ नाम के अलंकार -ग्रन्थों का बहुशः खण्डन पण्डितराज ने अपने प्रसिद्ध कालजयी काव्य-शास्त्रीय ग्रन्थ ‘रसगंगाधर’ में किया है। 

    इसके लिए इन्होंने ‘चित्रमीमांसाखण्डन’ नाम के स्वतन्त्र ग्रन्थ की ही रचना की है। संस्कृत साहित्य में पण्डितराज अपनी अभिमानपूर्ण गर्वोक्तियों के लिए

अतिशय प्रख्यात है। आन्ध्रप्रदेश-स्थित तैलंगदेश के पण्डित पेरूभट्ट और उनकी पत्नी लक्ष्मीदेवी के पुत्र पण्डितराज जगन्नाथ की ज्ञानाग्नि से जलने वाले लोगों ने, इनके बारे में अनेक भ्रान्त किम्वदन्तियाँ फैलायीं, पर वे सभी इनकी ज्ञानाग्नि में जलकर भस्मसात् हो गये ।

       पण्डितराज न केवल शास्त्रप्रौढ़ पण्डित थे, अपितु रसमयी पद्धति के प्रज्ञाप्रौढ़ कवि भी थे | 

पाण्डित्य की प्रकाण्डता, काव्य-रचना की प्रवीणता, प्रौढि- परिष्कृत लेखन-कौशल आदि सभी गुण उन में चरम पर पहुँचे हुए थे । कवित्व-सर्जना में इनकी अलौकिक प्रतिभा की द्वितीयता नहीं थी । रुचिर – कोमल भावों के कवि पण्डितराज की काव्य-शैली, प्रसादगुण-युक्त और कल्पना अतिशय उदात्त है।

       इस सन्दर्भ में इनके ‘लहरीपंचक’ उदाहरणीय हैं। जैसे ‘करुणालहरी’ (विष्णु-स्तुति) ‘गंगालहरी’ (गंगा-स्तुति)

‘अमृत लहरी’ (यमुना-स्तुति ) ‘लक्ष्मी लहरी’ (लक्ष्मी स्तुति) और ‘सुधा लहरी’ (सूर्य स्तुति ) ।

      पण्डितराज ने ‘गंगालहरी’ (ग्रन्थ- समाप्ति की पुष्पिका के अनुसार अपर नाम ‘पीयूष लहरी ) गंगा की स्तुति के लिए लिखी है। गंगालहरी के बाद ही इन्होंने ‘रसगंगाधर’ की रचना की।

गंगालहरी के अनेक पद्य अलंकारों के उदाहरण के रूप में इन्होंने रसगंगाधर में उद्धृत भी किये हैं ।

       सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री। साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता। इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह, कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर-दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।

पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था। पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी। “मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है ?”

      बादशाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा। ” 

      जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो।” शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।

      सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था। गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी, “पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”। पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी, “स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।” 

मुगल दरबार में “जहाँ पेड़ न खूंट वहाँ रेड़ परधान” की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई। शास्त्रार्थ क्या था; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…

       दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था, “महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं, यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे।”.

      मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए, शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज”।

       दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त। दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा उदारमना बना। मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे।

उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुंह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती।

यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा- अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ। पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों।

       पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था। पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी ?

    लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- अविश्वास न करो पण्डित ! प्रेम किया है….

   पण्डितराज जानते थे यह अन्य के गर्भ से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी।

एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-

न याचे गजालीम् न वा वजीराजम् न वित्तेषु चित्तम् मदीयम् कदाचित।

इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा, लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु।।

       शाहजहाँ मुस्कुरा उठा ! कहा- लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज। यह भारतीय इतिहास की संभवतः एकमात्र घटना है जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी हो। लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।

       युग बीत रहा था। पण्डितराज दाराशुकोह के गुरु और परम् मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दाराशुकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा। पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।

       बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर लेता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी “ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….” गा रहा है। 

बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा- “लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।”

      तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया। पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है। पण्डितराज ने कहा- “लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।”

       पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी। पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने ” प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया। 

     पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए ” चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।

    बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।

       जगन्नाथ मिश्र, लवंगी के साथ खुश थे लेकिन अपने साथ हुआ यह व्यवहार उन्हें मन ही मन कचोटता रहता था। वह भीतरी तौर पर बेहद दुखी रहने लगे। इस दुख से छुटकारा पाने के लिए एक दिन उन्होंने ऐसा निर्णय किया, जिसके बाद रचना हुई गंगा के श्रेष्ठतम काव्य ‘गंगा लहरी’ की। लेकिन इस ग्रंथ की रचना करने के लिए उन्हें अपने और लवंगी के प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

      जाति से बहिष्कृत हो जाने की वजह से उन्हें सामाजिक असम्मान झेलना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप एक दिन पंडित जगन्नाथ मिश्र लवंगी को लेकर काशी के दश्वाश्वमेध घाट पर जा बैठे जहां 52 सीढ़ियां हैं।

पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था। असाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- “गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।”

      लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- “गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं?  स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।”

पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- “अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया।”

      लवंगी मुस्कुरा उठी, “जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”

पण्डितराज की आँखे चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था-“प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”

       पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-“आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”

पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।

      अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था। पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी। गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थी। लवंगी को अपने साथ बैठाकर वे गंगा की स्तुति करने लगे। ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही जगन्नाथ शास्त्री एक पद रचते, गंगा का पानी और ऊपर होने लगता। 52वें पद का गान करते ही गंगा ने उन्हें अपनी गोद में समा लिया। लवंगी और पंडितराज जगन्नाथ  दोनों ही जलधार में बहने लगे।

      तब जगन्नाथ ने मां गंगा से यह आग्रह किया कि जब उन्हें अपनी गोद में ले ही लिया है तो फिर अब उन्हें अलग ना करें। जगन्नाथ मिश्र इस संसार रूपी कीचड़ से निकलकर गंगा की पावन गोद में समाना चाहते थे। मां गंगा ने उनका अनुरोध स्वीकार किया और लवंगी समेत मिश्र जी को अपने आगोश में समेट लिया।

नृणामीक्षामात्रदपि परिहरन्त्या भावभयं

शिवायास्ते मूर्तिः क इह वहुमानं निगदतु ।

अमर्षम्लानायाः परममनुरोधं गिरिभुवो

विहाय श्रीकण्ठः शिरसि नियतं धारयति याम् ।।

      दर्शनमात्र से ही जो सदा सब मानवों की भवभीति भगाये,

ऐसी तुम्हारी शिवंकरी मूर्ति का गौरव कोई कहाँ तक गाये ?.

डाह से हो जिनका मुख म्लान, उदासियों को रहता अपनाये, छोड़ मनाना विशेष उन्हीं गिरिजा को, जिसे शिव शीश चढ़ाये |

       पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आती। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी। गंगालहरी के 51 श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थी। 

      पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में। अबकी लवंगी बोल पड़ी- “क्यों अविश्वास करते हो पण्डित ? प्रेम किया है तुमसे…”

पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ी और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गई।

     बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।

तट पर खड़े पण्डित अप्पाजी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था।

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