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वाकई समान नागरिक संहिता का सपना साकार करना है तो मोदी सरकार को हिंदूराष्ट्र का सपना छोड़ना होगा

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मुकुल सरल

क्या आपको अपने घर-परिवार में किसी दूसरे को बराबरी का हक़ देने से कोई क़ानून रोक रहा है? और सच यही है कि अगर वाकई समान नागरिक संहिता का सपना साकार करना है तो मोदी सरकार को हिंदूराष्ट्र का सपना छोड़ना होगा, क्योंकि मनुवाद पर आधारित हिंदूराष्ट्र में तो समान नागरिक संहिता संभव नहीं।

UCC

कॉलोनी के लोगों के साथ दोस्त-रिश्तेदारों के व्हाट्सऐप ग्रुप में बहुत धूम है। शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब बहुत ख़ुश हैं कि मोदी जी अनुच्छेद 370 और राम मंदिर के बाद अपना तीसरा वादा यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (UCC) यानी समान नागिरक संहिता को भी पूरा करने जा रहे हैं। चुनावी राज्य मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका ऐलान कर दिया है कि एक घर में दो क़ानून नहीं चलेंगे। हालांकि अभी घर वाले टमाटर की महंगाई से परेशान थे। गैस, पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों से परेशान थे। बच्चे बेरोज़गार हैं और मोदी जी अपना हर साल 2 करोड़ नौकरी वाला वादा भूल गए हैं। सबसे पहला वादा तो विदेशों से काला धन लाना था। मोदी जी का भाषण सुनकर उन्हें ग़फ़लत हो गई थी कि काला धन आते ही उन्हें 15 लाख रुपये मिल जाएंगे।

लेकिन फ़िलहाल वे सारे वादे भूलकर समान नागरिक संहिता पर फोकस करना चाहते हैं। वाट्सऐप ग्रुप पर लगातार इसके फ़ायदे गिनवाए जा रहे हैं। ऐसे में शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब से कुछ ज़रूरी सवाल—

* क्या कोई आपको बेटे-बेटी को समान अधिकार देने से रोक रहा है?

क्या कोई आपको अपनी बहनों को बराबरी का हक़ देने से रोक रहा है?

संविधान तो सबको बराबरी का अधिकार देता है। फिर आप क्यों महिला-पुरुष में भेद करते हैं, बेटे-बेटी में फ़र्क़ करते हैं। क्यों नहीं उन्हें संपत्ति में बराबरी का अधिकार देते हैं। और अब तो 2005 से हिंदू महिलाओं को संपत्ति में बराबरी के अधिकार का क़ानून भी बन गया है तो क्यों आपने उसे अपने घर में लागू नहीं किया।

क़ानून तो हर बालिग़ को अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार देता है। फिर आप क्यों अपने बच्चों ख़ासकर बेटियों के प्यार से ख़फ़ा रहते हैं। क्यों आप उन्हें उनकी मर्ज़ी से शादी करने का अधिकार नहीं देना चाहते।

क़ानून तो अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह को मान्यता देता है तो आप क्यों अंतरधार्मिक प्यार और शादी को लव जेहाद कहते हैं। आपको पता ही होगा कि उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी के ही पूर्व विधायक और वर्तमान में पौड़ी नगर पालिका अध्यक्ष यशपाल बेनाम को भी अपनी बेटी के अंतरधार्मिक विवाह को रद्द करना पड़ा। वे समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते थे, लेकिन उनकी ही पार्टी द्वारा तैयार किए गए भस्मासुरों की वजह से उन्हें इसे रोकना पड़ा। अब यही भस्मासुर समान नागरिक संहिता का ढोल बजा रहे हैं।

क़ानून तो नाबालिग़ की शादी करने को दंडनीय मानता है। लेकिन यह आप ही हैं जो अपनी बेटियों की जल्दी शादी करना चाहते हैं। इसमें हिंदू-मुसलमान का फ़र्क़ नहीं है और इसके पीछे धार्मिक कारण या पर्सनल लॉ नहीं बल्कि आर्थिक स्थितियां भी काम करती हैं। इसके अलावा आपने यह भी देखा ही होगा कि हिंदुओं के पर्व अक्षय तृतीया पर सबसे ज़्यादा बाल विवाह होते हैं।

दहेज देना-लेना तो क़ानूनन अपराध है। फिर आप क्यों दहेज ले रहे हैं—दे रहे हैं।

समान नागरिक संहिता

सरकार का तर्क है कि समान नागरिक संहिता का मक़सद देश में मौजूद सभी नागरिकों के पर्सनल लॉ को एक समान बनाना है, जो बिना किसी धार्मिक, लैंगिक या जातीय भेदभाव के लागू होगा।

आपको बता दें कि संविधान सभा ने भी इसकी वकालत की थी। लेकिन सर्वसम्मति न बनने के कारण समान नागरिक संहिता को लागू करने के बजाय इसे अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्वों में डाल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर इसे लागू करने की ज़रूरत पर ज़ोर देता रहा है।

समान नागरिक संहिता के तहत सभी धर्म-पंथ के लोगों के लिए विवाह, तलाक़, विरासत व बच्चा गोद लेने के नियम समान रूप से लागू होंगे।

सुनने में यह सब बहुत अच्छा लगता है। लगता है कि यही न्याय पूर्ण व्यवस्था है। लेकिन जैसे मैंने ऊपर कहा कि विवाह, तलाक़, ज़मीन-जायदाद के मुद्दे पर आपको अपने घर में कौन सा क़ानून बराबरी का हक़ देने से रोक रहा है। हां बच्चा गोद लेने के लिए कुछ विशेष शर्ते हैं। यही एक क़ानून मुसलमान-पारसी और ईसाइयों को बच्चा गोद लेने से रोकता है (यह जानकर तो शायद शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब को झटका लगे कि इससे तो मुसलमानों-ईसाइयों को फ़ायदा हो सकता है)।

संविधान तो धर्म-जाति में भेदभाव से मना करता है—

समान नागरिक संहिता को ज़रूरी बताने वालों से यह सवाल भी बनता है कि संविधान जो बराबरी के अधिकार देता है, वही बराबरी आप सबको देते नहीं, जिन भेदभाव को करने से रोकता है आप उसे तो मानते नहीं और समान संहिता की बात करते हैं। सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि—

तो फिर आप क्यों धर्म—धर्म और जाति—जाति में फ़र्क़ करते हैं? क्यों तमाम क़ानून और पढ़ाई-लिखाई के बावजूद ब्राह्मण और दलितों में भेद है। क्यों आप उनसे आज भी छुआछूत बरत रहे हैं। क्यों दलित, मंदिर के पुजारी नहीं बन सकते, क्यों उन्हें सभी मंदिरों में जाने का, पूजा करने का अधिकार नहीं है। आप तो महिलाओं के भी सभी मंदिरों में जाने के विरोधी हैं। वो चाहे सबरीमाला का मंदिर हो या शनिदेव का।

शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब आपसे ये सवाल इसलिए क्योंकि आप ही ख़ुद को अपर कास्ट हिंदू समझते हैं और आप ही सबसे ज़्यादा मोदी सरकार और उसके द्वारा प्रस्तावित यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (UCC) यानी समान नागिरक संहिता के समर्थक हैं।

मोदी सरकार से सवाल

और मोदी सरकार के नेतृत्व से भी सवाल कि एक तरफ़ आप मनुस्मृति की वकालत करते हैं और दूसरी तरफ़ भारतीय संविधान की दुहाई देते हुए समान नागरिक संहिता की बात करते हैं। इसी वजह से आपकी मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। हर नियम-क़ानून में पूरा मामला मंशा और उसके कार्यान्वयन का ही तो है।

मनुस्मृति जो न औरत और आदमी के समान अधिकार को मानती है, न सभी जातियों को एक बराबर। और मनुस्मृति में तो LGBTQ+ के लिए कोई जगह ही नहीं।

कौन नहीं जानता कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किस तरह मनुस्मृति के क़ानून को भारत में लागू करना चाहता है। मनुस्मृति से संचालित राष्ट्र ही तो आपके सपनों का हिंदूराष्ट्र है।

यही वजह है कि इस मनुस्मृति और हिंदूराष्ट्र के सपने को आगे बढ़ाने में योगदान देने वाले चाहे वे सावरकर हों या गोरखपुर की गीता प्रेस आपके सबसे ज़्यादा प्रिय हैं।

यही वजह है कि आप सावरकर के जन्मदिन पर भारतीय लोकतंत्र की नई संसद का न केवल उद्घाटन करते हैं बल्कि उसमें पूरे ब्राह्मणीय विधि-विधान और कर्मकांड से सेंगौल (राजदंड) की स्थापना करते हैं।

क्या आप (मोदी सरकार) संविधान की भावना से खिलवाड़ करते हुए सीएए का क़ानून लेकर नहीं आए।

क्या समान नागरिक संहिता का जुमला या रणनीति भी सिर्फ़ अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों को टार्गेट करने के लिए नहीं है। उनके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप के लिए नहीं है।

भाजपा और आरएसएस जम्मू-कश्मीर के अनुच्छेद 370 के ख़िलाफ़ रहे लेकिन अनुच्छेद 371 की तमाम उपधाराओं के तहत गुजरात समेत तमाम राज्यों को मिले विशेषाधिकार पर हमेशा मौन रहे।

मोदी जी और उनकी सरकार मुसलमानों में तीन तलाक़ की प्रथा को तो ग़लत और मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार बताती रही लेकिन हिंदुओं में बिन बताए पत्नियों को छोड़ देने पर ख़ामोश है। ख़ुद मोदी जी ने अपनी पत्नी को बिना तलाक़ दिए छोड़ दिया, लेकिन न कोई सवाल है, न कोई खेद। और ये बात देश के नागरिकों को पता भी न चलती अगर चुनाव आयोग यह नियम न बनाता कि नामांकन के समय सारी जानकारी देनी ज़रूरी हैं। नोमिनेशन फॉर्म का कोई कॉलम खाली नहीं छोड़ा जा सकता। सबमें सही जानकारी भरना ज़रूरी है।

तो यह बात मोदी जी, मोदी सरकार और उसके समर्थक हिंदू अपर कास्ट जो समान नागरिक संहिता की बात पर भी बहुत ख़ुश नज़र आ रहा है उनके दोहरे रवैये, दोहरे मानदंड को ही दर्शाता है।

और डर यही है कि समान नागरिक संहिता का हाल भी समान चुनाव आचार संहिता जैसा ही होगा, जिसमें चुनाव आयोग का सत्तारूढ़ दल के लिए अलग रवैया दिखता है और विपक्ष के लिए अलग।

“क़ानून सबके लिए बराबर है”

देश-दुनिया में क़ानून के लिए यह बहुत ही प्यारा और मासूम वाक्य है कि क़ानून सबके लिए बराबर है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? कड़वा सच यही है कि क़ानून पैसों वालों के लिए है। वर्चस्वशाली प्रभु वर्ग के लिए है।

फिर भी हम चाहते हैं कि क़ानून वाकई सबके लिए बराबर हो। होना भी चाहिए। लेकिन जैसे मैंने कहा कि सारा मामला मंशा के implementation का है। क्या हमारे क़ानून का सही से अनुपालन, कार्यान्वयन हो पाता है। मतलब सबके लिए बराबर क्रिमिनल लॉ यानी भारतीय दंड विधान, जिसकी नज़र में सब बराबर हैं। हमारी सरकार, हमारी व्यवस्था, हमारी न्याय प्रणाली उसी को लागू नहीं कर पाती या करा पाती। तो फिर अभी यह समान नागरिक संहिता का शिगूफ़ा क्यों।

आप कह सकते हैं कि भावना तो है, उद्देश्य तो है। क़ानून तो हैं, भले ही सबको बराबर का न्याय नहीं मिल पा रहा हो। लेकिन यही तो सवाल है कि इसे लागू करने वाली, इनका अनुपालन कराने वाली सरकार और व्यवस्था ही जब अन्यायपूर्ण हो तो फिर बराबर के न्याय की उम्मीद किससे की जाए।

दो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए दो क़ानून

अभी हमने देखा भारतीय कुश्ती संघ के निवर्तमान अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के मामले में पुलिस, सरकार और क़ानून ने एक बराबर काम नहीं किया। क़ानून है कि अगर कोई महिला किसी के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की शिकायत करती है तो तुरंत पुलिस एफ़आईआर दर्ज करे। और अगर पॉक्सो यानी नाबालिग़ का मामला हो तो तुरंत पीड़िता के मजिस्ट्रेट के सामने बयान करके एफ़आईआर हो और आरोपी को गिरफ़्तार किया जाए। पॉक्सो में आरोपी को सिद्ध करना पड़ता है कि वो निर्दोष है, लेकिन यहां पीड़िता को ही साबित करने को कहा गया। आरोप लगाने वाली पहलवानों से ही ऑडियो, वीडियो और फोटो-गवाह मांगे गए। एफ़आईआर तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हुई और फिर क्या-क्या हुआ सबने देखा। बृजभूषण आज भी खुला घूम रहा है।

यानी यौन उत्पीड़न के आरोपी एक बाहुबली नेता की गिरफ़्तारी या हिरासत ज़रूरी नहीं समझी गई लेकिन दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी ज़रूरी समझी गई, उन्हें इसलिए ज़मानत भी नहीं दी गई कि वो गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं। इसी तरह तमिलनाडु के मंत्री सेंथिल बालाजी की ईडी ने तुरंत गिरफ़्तारी की और राज्यपाल ने संविधान के विरुद्ध जाकर बिना राज्य सरकार की सहमति या कैबिनेट की सिफारिश के उन्हें बर्ख़ास्त करने का आदेश भी जारी कर दिया। जिसे बाद में रोक लिया गया।

यानी एक देश में दो विधान साफ़ दिखाई दे रहे हैं। नारा है कि एक देश में दो विधान-दो निशान नहीं चलेंगे। बिल्कुल साफ़ है कि एक विधान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और सांसद-मंत्रियों के लिए है जिन पर चाहे जितने आरोप हैं लेकिन वे न इस्तीफ़ा देंगे, न उनके ऊपर छापे पड़ेंगे, न उनकी गिरफ़्तारी होगी और एक विधान विपक्ष के नेताओं-मंत्रियों के लिए है, जिनके ऊपर आरोप मात्र ही उनकी गिरफ़्तारी और बर्खास्तगी का कारण बन जाते हैं।

लोग अभी भूले नहीं होंगे किसान आंदोलन के दौरान लखमीपुर में हुए किसान हत्याकांड को। आज तक उस मामले में आरोपी गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी का बाल भी बांका नहीं हुआ। गिरफ़्तारी तो दूर मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा या मोदी जी ने एक शब्द खेद का नहीं बोला।

राज्यों से भी भेदभाव

इसी तरह विपक्ष के राज्य में एक घटना भी उसकी आलोचना और बर्ख़ास्तगी का कारण बन सकती है, मीडिया में दिन भर चर्चा हो सकती है लेकिन एक राज्य मणिपुर जहां डबल इंजन की भाजपा सरकार है वो दो महीने से जल रहा है, लेकिन न उसकी मीडिया को चिंता है, न सरकार को। मोदी जी अमेरिका और मिस्र के दौरे से लौटकर तुरंत भोपाल में चुनावी रैली करके यूसीसी यानी समान नागरिक संहिता का नारा तो दे सकते हैं लेकिन मणिपुर पर एक शब्द नहीं बोल सकते।

इसी सबसे शक़ ही नहीं बल्कि यह बात पुख़्ता होती है कि ‘सबका साथ, सबका विश्वास’, ‘तुष्टिकरण नहीं संतुष्टिकरण’ ये सब सिर्फ़ नारे हैं। इसी तरह समान नागरिक संहिता भी एक नारा है, जिसका प्रयोग पांच राज्यों के आने वाले विधानसभा चुनावों और 2024 के आम चुनाव के लिए पूरे तौर पर किया जाएगा। यही नहीं इसके माध्यम से मुसलमानों को टार्गेट करने और अपने वोटर्स में यह संदेश देने का प्रयास है कि देखिए कैसे मुसलमानों को ‘टाइट’ किया जा रहा है।

इस समय यह मुद्दा ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उछाला है। इसके पीछे एक वजह शायद यह भी है कि आरएसएस और भाजपा के एक खेमे में कर्नाटक हार के बाद यह समझ बन रही है कि मोदी जी का करिश्मा कम हो रहा है। यह बात कोई और नहीं आरएसएस का मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र लिखता है। अब योगी जी को मोदी जी के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है। इसलिए मोदी जी को और ज़ोर से अपनी हिंदुत्व की छवि स्थापित करनी है। तभी तो कर्नाटक हार के तुरंत बाद ये सेंगौल का मुद्दा उछाला गया और इसे लोकसभा में स्थापित किया गया। और अब ये समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया जा रहा है।

मोदी जी कहते हैं कि “क्या एक घर में दो क़ानून चल सकते हैं?”

लेकिन मैं पूछता हूं कि मोदी जी क्या एक क़ानून के नाम पर घर में सिर्फ़ पिता का आदेश या क़ानून चलेगा। क्या मां और पिता की आपसी सहमति के नियम से घर नहीं चल सकता। क्या केवल सास या पति का आदेश ही घर में चलना चाहिए या बहू-पत्नी की भी इच्छा और सहमति कोई मायने रखती है। क्या भाई का आदेश चलेगा या बहन की भी राय होगी। अगर आप यह सब एक बराबर करने जा रहे हैं तो मैं आपके साथ हूं।

लेकिन ऐसा है नहीं। यह आप भी जानते हैं। आप और आपके समर्थक इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के समर्थक हैं। यही मनुस्मृति का नियम है। यही ग़ैरबराबरी, ऊंच-नीच मनुवाद है। आप इसे ख़त्म करने की बात करें तो मैं आपके साथ हूं। सबको हिंदू-मुस्लिम, ब्राह्मण-दलित, औरत-मर्द और एलजीबीटीक्यूआई भी सबके लिए बराबरी के अधिकार की बात करें तो मैं आपके साथ हूं।

लेकिन ऐसा नहीं होने जा रहा है। मुझे कोई वहम नहीं है। मैं जानता हूं कि ये एक और चुनावी रणनीति है। हिंदूराष्ट्र की तरफ़ और एक क़दम है। मनुवाद को और मज़बूत करना ही आपका उद्देश्य है। इसलिए मैं आपके और इस समान नागरिक संहिता के ख़िलाफ़ हूं।

आपका एक देश-एक विधान का नारा हमारे विविधता भरे देश में एकरूपता थोपना है। आप पूरे देश में एक भाषा थोपना चाहते हैं। एक वेशभूषा थोपना चाहते हैं। आप सबके खानपान को भी नियंत्रित करना चाहते हैं। आपको हर चीज में एक चाहिए, जबकि कोई भी घर, समाज आपसी सहमति और एक-दूसरे के निर्णय और आस्था के सम्मान से चलता है। यही वजह है कि संविधान में पर्सनल लॉ की भी अनुमति दी गई।

मैं जानता हूं कि इसी तरह शब्दों की चाशनी में लपेटकर आप तीन कृषि क़ानून लाए थे, लेकिन किसान आपकी चाल समझ गए। इसी तरह आप 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर तीन श्रम कोड लाए हैं, लेकिन मज़दूर आपकी चाल को समझ गए हैं। इसी तरह आप नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) लाए थे, एनआरसी की बात करते थे, लेकिन मुसलमान ही नहीं देश का हर संवेदनशील नागरिक उसमें छिपे एजेंडे, इसकी क्रोनोलॉजी को समझ गया।

LGBTQ+ के मुद्दे पर भी समाज के साथ मोदी सरकार का रुख बहुत रुढ़ीवादी है। आप उन्हें नागरिक अधिकार तो क्या मानवीय अधिकार तक देने के पक्ष में नहीं। तभी तो सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह के ख़िलाफ़ तर्क दे रहे हैं।

मज़ेदार है कि अभी मोदी समर्थक और इस नए क़ानून के समर्थक भी यह नहीं जानते कि यह समान नागरिक संहिता आख़िर है क्या। इसके क्या फ़ायदे होंगे लेकिन उन्हें इतना ज़रूर पता है कि इससे मुसलमानों को परेशान करने का एक और हथियार मिल जाएगा। उनके पर्सनल लॉ में दख़ल का मौक़ा मिल जाएगा। मुसलमानों को तीन शादियों से रोका जा सकेगा, जबकि हिंदुओं में भी बहुपत्नी प्रथा है। और आंकड़े निकालकर देखें तो मुसलमानों में भी तीन शादियां सिर्फ़ अपवाद स्वरूप मिलेंगी।

और सवाल सिर्फ़ मुसलमानों का नहीं। इस क़ानून के समर्थकों को भी नहीं पता कि इससे सिर्फ़ मुसलमान या ईसाई ही प्रभावित नहीं होंगे, बल्कि सिख और आदिवासी भी प्रभावित होंगे। यही वजह है कि छत्तीसगढ़, झारखंड और पंजाब में इसका बड़े स्तर पर विरोध भी शुरू हो चुका है। पंजाब का शिरोमणि अकाली दल जो लंबे समय तक भाजपा का साझीदार रहा है, उसने इस मुद्दे पर कड़ा विरोध जताया है। मिज़ोरम में भी इसका विरोध शुरू हो गया है।

मिजोरम विधानसभा तो पहले ही समान नागरिक संहिता के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास कर चुकी है। सदन की राय थी कि यूसीसी को यदि लागू किया गया तो देश बिखर जाएगा, क्योंकि यह धार्मिक या सामाजिक परंपराओं, प्रथागत क़ानूनों, संस्कृतियों और मिजो लोगों समेत धार्मिक अल्पसंख्यकों की परंपराओं को ख़त्म करने का एक प्रयास है।

लोकतंत्र आपसी सहमति से चलता है। और जिस तरह हमारे देश में विविधता है, उसमें कुछ नियम-क़ानून आपसी सहमति से ही चलते हैं। लेकिन इस समान नागरिक संहिता के ज़रिये सबके धार्मिक और सामाजिक विश्वासों में दख़ल देने की योजना बनाई जा रही है।

और सवाल अल्पसंख्यक या आदिवासियों के प्रभावित होने का ही नहीं है शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब आप भी प्रभावित होंगे। आप जो अधिकार अभी तक अपनी महिलाओं, बहन-बेटियों को नहीं देना चाहते, वे आपको देने होंगे। बस इसी ऐतबार, इसी दृष्टिकोण से हम भी इस समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हैं। समान नागरिक संहिता के ज़रिये अगर वास्तव में महिलाओं और LGBTQ+ को भी समान अधिकार दिलाएं जाएं तो इसका कुछ अर्थ है। लेकिन महिलाओं से ख़ासकर कथित सवर्ण महिलाओं से भी पूछना बनता है क्योंकि आप कह सकते हैं कि सारी बहस अधिकार देने वालों को केंद्रित करके की जा रही है, जिन्हें अधिकार मिलने हैं उनकी तरफ़ से कोई सवाल नहीं। तो महिलाओं से भी पूछा जाना चाहिेए कि क्या जो अधिकार वे अपने लिए चाहती हैं वही अधिकार अपनी बेटी के लिए भी चाहती हैं और वही अधिकार अपनी बहू को भी देना चाहती हैं। आप कह सकती हैं कि हमारे देश में महिलाएं पितृसत्ता से संचालित हैं, लेकिन वास्तव में आप क्या चाहती हैं। क़ानून ने संपत्ति में महिलाओं को भी बराबरी का हक़ दिया है। तो क्या आपने अभी तक उस क़ानून का प्रयोग किया। कहने का अर्थ यह है कि पहले जो अधिकार आपको प्राप्त हैं आप अपनी कंडशीनिंग, अपनी रूढ़ियों के चलते उसपर ही दावा नहीं कर रहीं। लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर आपके हक़ के लिए समान नागरिक संहिता को मेरा भी समर्थन है।

लेकिन हम सब जानते हैं कि क़ानून बनना अलग बात है उसका लागू होना दूसरी बात। शर्मा जी, गुप्ता जी और सिंह साहब यह सोचकर शायद ख़ुश हैं, राहत में हैं कि जिस तरह फ़ौजदारी और ज़मीन-जायदाद के मामलों में क़ानून का फ़ायदा वह उठा लेते हैं, उसी तरह वह समान नागरिक संहिता अपने घर में लागू नहीं करेंगे और सिर्फ़ मुसलमानों-ईसाइयों को टार्गेट कर लेंगे, तो आपसे ज़्यादा शातिर कोई नहीं। तभी आप इसके समर्थक हैं, वरना जैसे मैंने पहले कहा कि ऐसा कौन सा क़ानून है जो आपको अपने ही घर-परिवार में सभी को बराबरी का हक़ देने से रोक रहा है।

कुल मिलाकर सच यही है कि समान नागरिक संहिता का सपना अगर साकार करना है तो मोदी सरकार को हिंदूराष्ट्र का सपना छोड़ना होगा, क्योंकि मनुवाद पर आधारित हिंदूराष्ट्र में तो समान नागरिक संहिता संभव नहीं। और आज की हक़ीक़त यही है कि इस समय तो संविधान और संविधान में पहले से दिए गए नागरिक अधिकार ही दांव पर हैं।

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